विगत अंक में बताया गया कि इस विशिष्ट अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्मों के बंधन से मुक्त हो मनुष्य को, साधक को तत्त्वतः भगवान् को जान लेने, उन तक पहुँचने का मार्ग सुझाते हैं। यह एक प्रकार से जीवन जीने की कला का शिक्षण है। कर्म को मनुष्य यदि यज्ञीय भाव से संचालित करता रहे, तो फिर कभी कष्टों में, अज्ञानरूपी दुःखों के घटाटोप में घिरने का तो प्रश्न ही नहीं है। भगवान् कहते हैं कि मनुष्य आत्मा में स्थित है, वह अपने शरीर के कर्मों से लिपायमान नहीं होता, वह मात्र एक साक्षी के रूप में जीवन जी रहा है। ऐसा विचार कर कर्म करने से ‘कर्त्ताभाव’ से मुक्त होकर कर्म किए जाते हैं। इसके लिए भगवान् यहाँ नमूना सामने रखते हैं। पंद्रहवें श्लोक में उन्होंने कहा कि प्राचीनकाल में भी कई मुमुक्षुओं ने इसी तरह कर्म किए हैं, तुम भी उनकी ही तरह कर्मों का संपादन करो। यह एक शास्त्रविहित मार्ग है। कर्म की गति को अति गहन बताते हुए शिक्षक-गुरु श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कर्म-अकर्म-विकर्म का भेद न समझ पाने के कारण ही ढेरों व्यक्ति दुर्गति को प्राप्त होते हैं। निषिद्ध कर्म, विकर्म, संकल्पित कर्म, कर्म तथा संकल्परहित कर्म ईश्वर की इच्छानुसार किए गए कर्म-अकर्म हैं, यह परिभाषा उदाहरणों के साथ विगत अंक में समझाई गई। अब इस सूत्रभरी अभिव्यंजनाओं से भीर व्याख्या को और अच्छी तरह इस अंक में समझने का प्रयास करेंगे।
बुद्धिमान मनुष्य कौन
भगवान् कहते हैं, “कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसका फैसला बुद्धिमान पुरुष भी नहीं कर पाते। जो यह रहस्य जान लेता है, वह कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है।” (श्लोक 16) आगे फिर वे कहते हैं, “कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए। विकर्म को भी भलीभाँति समझ लिया जाना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति बड़ी गहन है-गहना कर्मणो गतिः।” (श्लोक क्रमाँक 17) अब इन दो श्लोकों को और भी अधिक गंभीरता से समझना हो तो अठारहवें श्लोक की व्याख्या समझ लेनी चाहिए। भगवान् इसमें कहते हैं-
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
“जो मनुष्य कर्म में अकर्म को देखता है और जो अकर्म में कर्म को देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है अर्थात् वह बुद्धिमान पुरुष ही सर्वत्र सभी कर्मों का वास्तविक कर्त्ता होता है।”
इन तीनों श्लोकों की गूढ़ अभिव्यंजनाओं को अब हम यहाँ समझाने का प्रयास करेंगे। अकर्म, कर्म और विकर्म की परिभाषाएँ उदाहरण सहित पहले हम दे चुके हैं। भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि यह संसार, जिसमें हम रह रहे हैं, इसमें कर्म एक जंगल के समान है, जिसमें मनुष्य अपने काल की विचारधारा, अपने व्यक्तित्व के मानदंडों और अपनी परिस्थिति के अनुसार किसी तरह लुढ़कता हुआ अपनी यात्रा संपन्न कर रहा है। श्री अरविंद कहते हैं, “ मनुष्य के ये विचार और मान उसके एक ही काल या एक ही व्यक्तित्व को नहीं, बल्कि अनेक कालों व व्यक्तित्वों को लिए हुए होते हैं। अनेक सामाजिक अवस्थाओं के विचार और नीतिधर्म तह-पर-तह जमकर आपस में गुत्थमगुत्था हुए होते हैं, इन सबके बीच मूल सत्य को ढूँढ़ता हुआ एक ज्ञानी अंत में ऐसी जगह जा पहुँचता है, जहाँ यही अंतिम प्रश्न उसके समक्ष आता है कि यह सारा कर्म और जीवन एक भ्रमजाल तो नहीं है, कर्म को सर्वथा त्याग कर अकर्म का प्राप्त होना ही क्या इस थके हुए भ्राँतियुक्त मानव जीव के लिए अंतिम आश्रय नहीं है? परंतु ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस बारे में तो ज्ञानी भी भ्रम में पड़ जाते हैं और मोहित हो जाते हैं (कवयोऽप्यत्र मोहिताः? 4-17)। क्योंकि ज्ञान और मोख कर्म से मिलते हैं, अकर्म से नहीं।” इसीलिए कर्म की गति अति गहन है।
हम बता चुके हैं कि क्रिया कर्म है, अक्रिया अकर्म है। कर्म जीवन की वह क्रिया है, जो हमें करनी चाहिए, जिसे स्वधर्म या निष्काम कर्म भी भगवान् कहते हैं। विकर्म वह क्रिया है जीवन की, जो निषिद्ध है, नैतिकता के सिद्धाँतों के अनुरूप नहीं है। अकर्म वह स्थिति नहीं है, जिसमें व्यक्ति आलस्य या अकर्मण्यता को प्राप्त हो। संकल्परहित कर्म ही अकर्म है। ईश्वर की इच्छा ही हमारी इच्छा बन जाए, तो वह अकर्म के रूप में स्वचालित ढंग से संचालित होती रहती है। ऐसे उच्चस्तरीय स्थिति के कर्मों को अकर्म कहते हैं। संकल्पों से जुड़ी क्रियाएँ कर्म कहलाती हैं।
गहना कर्मणो गतिः
अब कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म यह क्या चक्कर है, इस जंजाल को थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे। कितना समझ या समझा पाएँगे मालूम नहीं, क्योंकि भगवान् स्वयं कह रहे हैं कि कर्म की गति बड़ी गहन है। यहाँ योगेश्वर अठारहवें श्लोक में जो बात कह रहे हैं, वह बड़े पते की है। वे कह रहे हैं कि कोई जरूरत नहीं कि आवश्यक साँसारिक कर्मों से बचा जाए। जो अनिवार्य हैं, उन्हें अवश्य किया जाए, किंतु अंतरात्मा को भगवान् के साथ योग में स्थित करके (युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्)। यदि इस भाव से नहीं किया गया, तो वे कर्म नहीं हैं। अकर्म मुक्ति का मार्ग नहीं है। जिसकी प्रज्ञा विकसित है, जो अंतर्दृष्टि संपन्न है, वह देख सकता है कि ऐसा अकर्म स्वयं ही सतत होते रहने वाला एक कर्म है, एक ऐसी अवस्था है, जो प्रकृति और उसके गुणों की क्रियाओं के अंतर्गत ही संपन्न हो रही है। जो इस बात को समझ लेता है कि आकर्षण्यता क्या है, संकल्पित कर्म क्या है तथा कर्म करते हुए भी अकर्म की स्थिति में कैसे रहा जा सकता है, भगवान् उसे बुद्धिमान मनुष्य (स बुद्धिमान मनुष्येषु) कहते हैं। यह एक उच्चतम ज्ञान है, जो बुद्धि के उच्च आयामों पर पहुँचने पर ही मिलता है। ऐसा ज्ञान प्राप्त करने वाला व्यक्ति भ्राँत-मोहित बुद्धि वाला नहीं है। वह मुक्त पुरुष है। वह ब्राह्मी स्थिति को पहुँचा पुरुष है।
श्री अरविंद की पुस्तक है ‘विचार व सूत्र’। ‘मातृ वाणी’ के दसवें खंड में विचारपक्ष में संकलित करके यह किताब बनी है। इसमें एक वाक्य है, जो उद्धृत करने का मन है। “जो जीवन के संघर्षों से जूझ रहा है, सतत कर्मरत है, उसे ही सक्रिय मत मानो। जो गुफा में बैठा आत्मसत्ता को सक्रिय कर समष्टि की साधना कर रहा है, वह जो कर्म कर रहा है, वह अकर्म है और इस अकर्म में बड़ी शक्ति छिपी पड़ी है।” यदि हम इतिहास के पृष्ठ पलटें तो पाते हैं कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों भूमिका निभाने वाले दो ही संत हैं, महापुरुष हैं, श्री अरविंद एवं पं. श्रीराम शर्मा आचार्य। दोनों ने ही प्रारंभिक जीवन में युवावस्था में एक क्राँतिकारी के रूप में सक्रिय भूमिका निभाकर इस महासंग्रामरूपी महायज्ञ में आहुतियाँ दीं एवं दोनों ने ही जीवन का उत्तरकाल आध्यात्मिक तप-वातावरण को प्रचंड ऊर्जा से ओतप्रोत करने की प्रक्रिया संपन्न करने में लगाया। जीवन के अंतिम वर्षों में श्री अरविंद भी काफी समय एकाकी-अंतर्मुखी साधना में लीन रहते थे। परमपूज्य गुरुदेव का जीवन भी गवाह है कि अंतिम बीस वर्ष के सूक्ष्मीकरण के 1984 से आरंभ होकर 1990 में समाप्त हुए छह वर्ष एकाँत साधना हेतु ही नियोजित थे। इसके अतिरिक्त भी वे एक-एक वर्ष के लिए तीन बार प्रत्यक्ष एवं एक बार परोक्ष हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में एकाकी तप में रत रहे।
कर्म में अकर्म
भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सच्चा योगी वही है, जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म के कर्म को पहचान लेता है। तत्त्व से जान लेता है एवं कर्म की गति इसीलिए गहन होती है। मनुष्य अकर्म में कर्म को देख नहीं पाता और कर्म में अकर्म को समझ नहीं पाता। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि कर्म का अहंकार छोड़कर जिसे अकर्म दिखाई पड़े और यह समझे कि जो भी कर्म हो रहे हैं, भगवान् की इच्छानुसार हो रहे हैं, वही मनुष्य समझदार है-
गुण तुम्हार समझउ निज दोषा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
‘तुम्हार भरोसा’ अर्थात् भगवान् के नाम पर परमसत्ता के नाम पर किया गया हर कार्य अकर्म है। भले ही वह प्रत्यक्ष दिखाई न दे। हम सभी अपने कर्मों का श्रेय लेने की कोशिश करते हैं। अच्छे सभी कर्म परमात्मा की इच्छा से हो रहे हैं, यदि यह हम सोचने लगें, तो हमारी वासनाएँ क्षीण हो जाएँ, कर्म-अकर्म बन जाए। कर्मों को संपन्न करते वक्त यदि कोई दोष रह जाए, जो कि स्वाभाविक है, तो हमें अंतःकरण की मलीनता को निमित्त मानना चाहिए। भगवान् को दोष नहीं देना चाहिए। कई लोग कहते हैं कि अच्छा काम किया तो हमने गलत किया तो भगवान् की प्रेरणा से स्वतः हो गया। यह सामान्य दृष्टि हर किसी के मन में सहज होती है। एक कथा से, जो कि पौराणिक है, बड़ा स्पष्ट हो जाएगा।
एक ब्राह्मण ने अपनी झोंपड़ी के आसपास बगीचे को खूब सुँदर बनाया। बगीचे में चारों तरफ बाड़ लगा दी। एक दिन ऐसा हुआ कि उस बाड़ में से एक गाय अंदर घुस आई। उसने सारे बगीचे को उजाड़ दिया। जो भी कुछ बड़े परिश्रम से लगाया गया था, वह गौ माता चर गई। जैसे ही ब्राह्मण ने बाहर आकर देखा, तो क्रुद्ध होकर उसने एक लाठी उस गाय को लगा दी। सोचा तो यह था कि इससे वह बाहर भग जाएगी, पर गाय थी कृशकाय। एक लाठी पड़ी एवं वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गई। अब ब्राह्मण देवता बड़े परेशान कि यह क्या हो गया। गौ हत्या का पाप लगा गया। इतने में गौ हत्या स्वयं आकर सामने खड़ी हो गई कि चलिए! टब अपने किए का दंड भुगतिए। ब्राह्मण महाराज को एक युक्ति सूझी। उन्होंने कहा, मैंने कुछ नहीं किया। मेरे हाथों ने किया। हाथों के देवता को इंद्र हैं, इसे जाकर पूछो कि यह कैसे हो गया। गौ हत्या सीधी इंद्रदेवता के पास जा पहुँची। बोली कि वह ब्राह्मण कहता है कि गौ हत्या तो आपके द्वारा हुई है। हाथों के देवता होने के कारण उसने यह इल्जाम आप पर थोप दिया है। इंद्र सोचने लगे कि अच्छी आफत है। बुरा काम कोई करे व दोष किसी और का माना जाए।
इंद्र ने ब्राह्मण वेश धारण किया और पंडित जी की झोंपड़ी में अवतरित हुए। पंडित जी से इंद्र ने कहा कि महाराज बगीचा बड़ा सुँदर है। किसने लगाया? पंडित जी बोले, हमने लगाया है। बड़ी मेहनत की है। इंद्र बोले, ऐसा लगता है कि कोई जीव आकर इसका एक हिस्सा चर गया। ब्राह्मण देवता बोले, हाँ एक दुष्ट गाय आई थी। हमने उसे मार दिया। इंद्र बोले, तो क्या आपके हाथों गौ हत्या हो गई। पंडित जी ने पुनः दाँव पलटा, नहीं हमारे क्यों, वह तो इंद्र का अधिकार क्षेत्र है। उन्हीं के द्वारा हुई। इंद्र बोले, पर बगीचा तो आपका ही लगाया हुआ है। आपने ही मेहनत की व आप ही उसका श्रेय ले रहे हैं। जब अच्छे काम की तारीफ की तो आपने मान लिया कि आपने लगाया है, आपने किया है एवं जब हत्या की बात की तो आप कहते हैं कि इंद्र ने की। इतना कहकर इंद्र देवता ने स्वयं को प्रकट कर दिया व ले गए उन्हें मृत्युलोक, ताकि दंड मिल सके।
हर मनुष्य में एक सहज दोष होता है कि हर अच्छे कर्म का वह स्वयं श्रेय लेने की कोशिश करता है। यदि इसके स्थान पर ईश्वरीय सत्ता की प्रेरणा को यदि हम श्रेय दे तो हमारे अंदर अभिमान पैदा नहीं होगा, कर्म के प्रति आसक्ति नहीं होगी। जो कर्म में अभिमान त्याग दे, भगवान् को श्रेय दे, वह कर्म में अकर्म को देखता है। परमपूज्य गुरुदेव हमेशा यही कहा करते थे कि महाकाल हमसे करा रहा है। जो कुछ भी हमारी उपलब्धियाँ हैं, वह हमारी गुरुसत्ता की ही देन हैं। हम गोस्वामी जी की चौपाई के भाव को समझने का प्रयास करें, जो भी कुछ गुण है, जो भी कुछ अच्छा है, हे प्रभु! वह तुम्हारा ही है, तुम्हारे ही कारण है। जो भी दोष हैं। उन्हें मैं अपना मानूँगा। जिनको भगवान् पर विश्वास है, वह इसी भाव को मन में रख सतत कर्म करते रहते हैं।
अकर्म में कर्म
श्री अरविंद के अकर्म को गाँधी जी भी नहीं समझ पाए थे। एक स्थान पर वह कह गए थे, “आजादी के इस संग्राम की वेला में वे भगोड़े बनकर पाँडिचेरी जाकर बैठ गए, जबकि उन्होंने जहाँ से शुरुआत की थी (क्राँतिकारी के रूप में) उसे आगे बढ़ाना चाहिए था।” उनके इस कथन की बड़ी प्रतिक्रिया हुई थी उन दिनों। लोगों ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया था। श्री अरविंद और श्री रमण के अकर्म को, मौन तप को, परोक्ष जगत् को प्रचंड आँदोलन से भर देने वाली ऊर्जा को प्रवाहित करने की प्रक्रिया को परमपूज्य गुरुदेव ने समझा था। वे स्वयं पाँडिचेरी जाकर उनसे मिले भी। (1937) एवं 1940 से सतत प्रकाशित अपनी पत्रिका ‘अखण्ड ज्योति’ में निरंतर वे लिखते रहे कि सूक्ष्मजगत् में तपकर रही इन दो सत्ताओं के द्वारा ही स्वतंत्रता संग्राम अपनी अंतिम परिणति को पहुँचेगा। भगतसिंह का बलिदान, गाँधी जी का सत्याग्रह आँदोलन अपनी जगह, पर परोक्ष जगत् से सक्रिय ऊर्जाप्रवाह को नकारा नहीं जा सकेगा, जिसने यह वातावरण बनाया। प्रत्यक्षतः यह अकर्म ही दिखाई देता है। किंतु इस अकर्म में ही सच्चा कर्म छिपा है।
भगिनी निवेदिता ने अपने गुरु (स्वामी विवेकानंद) के महाप्रयाण (1902) के बाद अपना कार्य जारी रखा। वे न केवल नारी जागरण के लिए संघर्ष कर रही थीं, राष्ट्र निर्माण हेतु भारतवर्ष की आजादी के समर्थन में भी वे सतत लिखती रहती थीं। कई क्राँतिकारी उनसे मिलने आते रहते थे। लॉर्ड कर्जन जो बंगभंग के लिए जिम्मेदार थे, तक शिकायत पहुँची कि बेलूरमठ के रामकृष्ण मिशन का क्राँतिकारियों से संबंध है। तब मठ की जमीन व कुछ भवन ही वहाँ पर थे। तत्कालीन संचालक मंडल ने निवेदिता से कहा कि हमारे पास बराबर लाटसाहब का संदेश आ रहा है। वे कह रहे हैं कि इस मठ को समाप्त कर देना है, ताकि क्राँतिकारियों का गढ़ ही समाप्त हो जाए। कई संन्यासियों पर भी उन्हें संदेह है कि ये कहीं क्राँतिकारी तो नहीं। तब निवेदिता ने कहा कि ऐसी बात है, तो हम अपने गुरु के सच्चे शिष्य हैं। हम जाकर उनसे मिलेंगे व समझाएँगे। लाटसाहब की पत्नी भगिनी निवेदिता की इंग्लैंड के समय से ही अच्छी मित्र थीं। उन्होंने जाकर उन्हें समझाया कि यह हमारे गुरु का एवं उनके गुरु का मंदिर है। यहाँ क्राँतिकारी कहाँ हैं? आप यह क्या कर रहे है।? यहाँ तो आदमी बनाने का तंत्र है। इसे नष्ट मत करिए। बात आई गई हो गई।
‘मठ की डायरी’ के उन दिनों के पृष्ठों को जिनने पढ़ा है, वे बताते हैं कि ऐसी स्थिति आ गई थी कि भगिनी निवेदिता को मठ से निकालने की तैयारी हो गई थी, ताकि उनसे मिलने वाले क्राँतिकारियों के कारण मठ की बदनामी न हो। पर गुरु-निष्ठा तो देखिए, मिशन के खातिर समर्पण तो देखिए कि उन्हीं ने रामकृष्ण मिशन की, अपने गुरु के मंदिर की रक्षा की। इनके इस प्रत्यक्ष अकर्म में जो महान् कर्म दिखाई देता है, क्या उसने आजादी की दिशा में भारत को नहीं बढ़ाया? 19022 से 1911 तक प्रत्यक्षतः एक संन्यासिनी, परंतु परोक्ष रूप से एक योद्धा, भारतप्रेमी एवं भारत की स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्ष करने वाली महिला थीं वे। 1911 में उन्होंने मात्र चौवालीस वर्ष की उम्र में शरीर अवश्य छोड़ दिया, पर वे इतिहास में गुरु-शिष्य परंपरा में अमर हो गईं, एक कीर्तिमान समर्पण का बना गईं।
प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष को समझें
हम अक्सर महापुरुषों को पलायनवादी मान लेते हैं। हमारी वामपंथी विचारधारा हमें धार्मिक-आध्यात्मिक कार्यों में समय नष्ट करना, राष्ट्रीय संपदा से खिलवाड़ करना बताती है। परंतु क्या वे कभी समझ पाएँगे कि इस अकर्म को कर्म का कितना बड़ा मर्म छिपा पड़ा है। प्रत्यक्षतः परमपूज्य गुरुदेव 1930 के दशक के बाद लेखन करते रहे, साधना करते व कराते रहे, संगठन खड़ा करते रहे। परंतु उनके इस कर्म में छिपे अकर्म एवं अकर्म दिखाई देने वाले पुरुषार्थ में निहित कर्म में वह सत्य छिपा पड़ा है, जिसने ‘युगनिर्माण योजना’ को मूर्त रूप दिया, एक विराट् तंत्र खड़ा कर दिया।
परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे, “हमारा सूक्ष्मशरीरी दिन रात काम करता रहता है। जब तुम लोग सोते रहते हो, तो तुम्हारे अंतःकरण में जाकर उनकी धुलाई-सफाई करता है। प्रत्यक्ष में लोगों को हमारा प्यार, हमारी लेखनी व हमारा संगठन दिखाई देता है, पर इससे भी बड़ा और अधिक महत्त्वपूर्ण है हमारा परोक्ष।” गायत्री परिवार की अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना सहित आठ भाषाओं में प्रकाशित पत्रिकाएँ, साढ़े पाँच हजार प्रज्ञा संस्थान-गुरुसत्ता के प्रत्यक्ष कर्म की परिणतियाँ हैं, तो उनका अकर्म उनकी सूक्ष्मीकरण साधना, महाप्रयाण के बाद सूक्ष्म व कारण सत्ता से सक्रिय उनका अस्तित्व, उनके द्वारा ब्राह्मीचेतना से एकाकार होकर किया गया अकर्म है, जिसका महत्त्व सर्वाधिक है। जिसे हम नहीं जानते, जिसे हमने नहीं देखा, अकर्म की स्थिति में किए गए उस कर्म के एक पल में किए गए कार्यों से इतिहास बदल जाता है।
इसीलिए भगवान् कहते हैं कि जो कर्म में अकर्म को और अकर्म में कर्म को देखता है, मनुष्यों में वह सर्वाधिक बुद्धिमान है, प्रज्ञासंपन्न मनीषी है। इस अकर्म को पहचानना व उसको अकर्मण्यता से पृथक समझना बहुत जरूरी है। श्री शिवप्रसाद सिंह ने एक पुस्तक लिखी है, ‘ अनुत्तर योगी’। श्री अरविंद के ऊपर लिखी इस पुस्तक में वे कहते हैं, “ इतिहास को मोड़ने-मरोड़ने वाली घटनाएँ हमेशा आत्मा की नीरवता में घटित होती हैं।” अर्थात् अकर्म की स्थिति में ऐसा कुछ घट जाता है, जो क्राँतिकारी बन जाता है। परमपूज्य गुरुदेव भी कहते थे, “मैंने कुछ नहीं किया। गुरु रूप में मेरे भगवान् ने किया है। मैं तो निमित्त मात्र रहा हूँ।” यथार्थ दृष्टि उसी के पास होती है, जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है। अब ‘गहना कर्मणो गतिः’ एवं उपर्युक्त प्रतिपादन की और भी व्याख्या अगले अंक में।