निष्काम कर्म की साधना

July 2001

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कर्म जब तक साधन बना रहता है तब तक वह बंधन का पर्याय ही है। पर जैसे ही कर्म साधना बन जाता है, उससे मुक्ति प्रवाहित होने लगती है। निष्काम कर्म, कर्म की साधना ही है। इसलिए इसे सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा गया है। इस कर्म से अंतःकरण शुद्ध एवं पवित्र होता है। इसमें प्रसिद्धि, यश, मान-सम्मान की कोई इच्छा नहीं होती । इसमें अपने मनोरथों, इच्छाओं, लालसाओं या अभिरुचियों का कोई आग्रह नहीं होता। यह कर्म अहंकार पुष्टि हेतु नहीं किया जाता। यह केवल भगवान् के लिए और भगवान् की आज्ञा से किया जाता है। अहंकार युक्त कर्म जगत् के लिए चाहे जितना ही अच्छा हो, कर्मयोग के लिए उपयुक्त नहीं है।

गीता के अनुसार, साधना करने के लिए किसी कर्म को उसका क्षेत्र बनाया जा सकता है। जिस भाव और चेतना से कोई कर्म किया जाता है वही उसे उसका स्वरूप प्रदान करता है। कर्म स्वयं में कुछ विशेष नहीं होता। उसमें निहित भाव ही उसे विशेषता प्रदान करता है। भाव विशेष से कामनारहित या मुक्त कर्म भी संभव है। हमारी सत्ता पुरुष प्रकृति गुणों के कर्म के अंदर भी अनासक्त हो सकती है। बाह्य सत्ता भी अनासक्त हो जाती है। संपूर्ण सत्ता कामना या आसक्तिरहित जो जाती है और फिर भी कर्म करना संभव होता है। कामना के बिना कर्म किया जा सकता है। आसक्तिरहित भी कर्म हो सकता है। अहंकार के बिना भी कर्म करना संभव है।

श्री अरविंद कहते हैं, मनुष्य कर्म कर सकता है और आँतरिक रूप से वह शाँत-स्थिर रह सकता है। स्थिरता का अर्थ यह नहीं है कि मन शून्य हो जाए या कोई कार्य ही न किया जाए। वे आगे कहते हैं कि मनुष्य को सदैव अंदर से कार्य करना सीखना चाहिए। अपनी आँतरिक सत्ता से कार्य करना सीखना चाहिए। क्योंकि यह सत्ता भगवद् संपर्क एवं सान्निध्य में रहती है। बाह्य सत्ता महज एक यंत्र होनी चाहिए और उसे बिलकुल भी अपनी वाणी, विचार या क्रिया को विवश या अभिप्रेरित नहीं करने देना चाहिए। कर्म यथार्थ चेतना के अंग के रूप में अंदर ही किया जाना चाहिए। सामान्य चेतना की अस्तव्यस्तता और चंचल मन के द्वारा किया कर्म संभावित परिणाम नहीं देता।

श्री अरविंद कहते हैं कि व्यक्ति एक ही समय में अभीप्सा और कर्म दोनों कर सकता है। ऐसा करने वाले जीवन मुक्त व्यक्ति कोई बंधन अनुभव नहीं करते। सभी काम्य-कर्मों में वह स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र अनुभव करते हैं। क्योंकि कर्म वे स्वयं व्यक्तिगत रूप से नहीं करते। उनमें क्षुद्र अहंकार-बोध नहीं होता। बल्कि कर्म तो उनके द्वारा वैश्व शक्ति करती है। कर्म की सीमाएँ वे ही होती हैं, जिन्हें स्वयं वैश्व शक्ति अपने निजी कर्म में निर्धारित करती है।

जीवन मुक्त पुरुषों का अनुभव है ही कर्म करते हुए भी सचेतन रहा जा सकता है। हालाँकि ध्यानावस्था में सचेतन रहना अपेक्षाकृत सहज है, परंतु कर्म की अवधि में यह कठिन होता है। भगवद् स्मरण होते रहना और कर्म में सचेतन रहना धीमी प्रक्रिया है। श्री अरविंद के अनुसार यह दो रूपों में होती है, (1) यदि कोई व्यक्ति प्रतिक्षण कार्य करते समय भगवद् स्मरण करता रहे और उन्हें कर्म अर्पित करने का अभ्यास करता रहे। इस प्रकार सतत अभ्यास द्वारा यह प्रकृति के लिए स्वाभाविक हो जाता है। (2) ध्यान करने से एक आँतरिक चेतना विकसित होती है और क्रमशः स्थायी होने लगती है। मनुष्य इसे कार्य करने वाली बाहरी चेतना से पृथक एक चेतना अनुभव करता है। प्रारंभ में जब मनुष्य कर्म करता रहता है तब इस पृथक चेतना को अनुभव नहीं करता, परंतु जैसे ही वह कर्म करना बंद कर देता है, वह अनुभव करता है कि वह प्रतिपल वहाँ विद्यमान थी और पीछे से निरीक्षण कर रही थी। कुछ दिन बाद स्वयं कर्म के समय भी इस चेतना को अनुभव करने लगता है। इस अवधि में ऐसा लगता है मानो सत्ता के दो भाग हों, एक तो निरीक्षण करना और पीछे से सहारा देना। भगवद् स्मरण करना एवं उन्हें अर्पित करना। जब ऐसा होता है तब यथार्थ चेतना से कर्म करना अधिकाधिक आसान हो जाता है।

यह महान् साधकों का अनुभव है कि कर्म करते हुए भी भगवान् की उपस्थिति का बोध किया जा सकता है। कर्म तो उस चेतना से एकाकार एवं तदाकार होकर भी निःसृत होता रहता है। वह कर्म करते हुए भी ध्यान की तल्लीनता में डूबा रह सकता है। श्री अरविंद स्वयं भी टहलते हुए ध्यान करते थे।

योगियों का अनुभव है कि कर्म की ओर स्वयं को खोलना चैतन्य में खोलने जैसा है। जो शक्ति ध्यान की अवस्था में चेतना में कार्य करती है और उसकी ओर उद्घाटित होने पर सभी अस्त-व्यस्तता दूर हो जाती है, वही शक्ति कर्म को भी अपने नियंत्रण में ले सकती है। यह न केवल उस कर्म का दोषों से परिचय करा सकती है वरन् भविष्य के लिए मार्गदर्शन भी कर सकती है। यह मार्गदर्शन सदैव साथ रह सकता है। यदि कर्म को भगवद् चेतना की ओर उन्मुख कर दिया जाए, तो इस निर्देश को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जा सकता है। यहाँ तक कि अपने सभी कर्मों के पीछे भगवद् शक्ति का भी सतत अनुभव किया जा सकता है।

साथ ही कर्मों की चेतना को प्राप्त करने के लिए सतत अभीप्सा बनाए रखने की आवश्यकता है। इसके और भी कई तरीके हैं, (1) अपनी गतिविधियों को इस रूप से देखने की आदत या क्षमता प्राप्त की जाए कि कर्म के प्रवेश के प्रवेग को आते हुए देखा जा सके और उसके स्वरूप को भी परखा जा सके। (2) एक ऐसी चेतना आ सकती है जिसमें कोई कुविचार या कर्म की प्रकृति का अनुभव होते ही बेचैनी हो। (3) जब अनुचित कर्म के लिए तत्पर हो तो अंदर की कोई चीज सावधान कर सकती है और रोक सकती है।

श्री अरविंद कहते हैं कर्म केवल तभी महत्त्वपूर्ण होते हैं जब वे प्रकृति के अंदर विद्यमान वस्तुओं को व्यक्त करते हैं। कर्म का एक महान् उपयोग यह है कि यह स्वभाव की परीक्षा करता है और साधक को उसकी बाहरी सत्ता के दोषों के सामने ला खड़ा करता है, जो उसकी दृष्टि से बच जाते हैं।

कर्म की प्रकृति के बारे में श्री अरविंद कहते हैं, प्रकृति वह शक्ति है, जो कर्म करती है। शक्ति क्रियाशील एवं निष्क्रिय दोनों रूपों में हो सकती है। परंतु जब वह निश्चल होती है, तब वह उतनी ही अधिक एक शक्ति होती है, जितनी कि वह कर्म करते समय होती है। त्रिगुण शक्ति का यह कार्य है। सात्विक कर्म प्रभावशाली होता है। रजस् कर्म के आधीन तब तक कर्म करता है, जब तक कि तमस् विश्राम एवं विराम नहीं ले लेता। तमस् निषेधात्मक स्थिति है। तमस् कर्म ही नहीं करना चाहता। वह जड़वत् बना रहता है। राजसिक कर्म में महत्त्वाकाँक्षा का ज्वार होता है। सात्विक कर्म अनासक्त भाव से अपने चरम बिंदु में होता रहता है। प्रकृति मुक्त होने पर वह स्वयं को दो भागों में विभक्त कर देती है, (1) आँतरिक शक्ति, जो अपने कर्म (रजस्, मतस् आदि) से मुक्त होती है। (2) बाह्य प्रकृति, जिसे वह व्यवहृत करती और बदलती रहती है।

महायोगी श्री अरविंद कर्म की त्रुटियों पर महत्त्व न देते हुए कहते हैं, काम में होने वाली त्रुटियों एवं भूलों के विषय में दुश्चिंतन नहीं करना चाहिए। भूलें करना मन का स्वभाव है। अतः इसका कोई ज्यादा महत्त्व नहीं है और न ही इससे व्यथित व परेशान होना चाहिए। एकमात्र उच्चतर चेतना ही इन सबको सुधार सकती है। सदैव अपने विशिष्ट प्रयासों एवं पुरुषार्थ पर ही विश्वास रखना चाहिए। जब काम हो रहा हो तब केवल अपने काम की बात ही सोचना बुद्धिमानी है। उससे पहले और उसके बाद नहीं। अपने मन को उस काम पर वापस मत ले जाओ, जो समाप्त हो चुका है। वह भूतकाल की चीज है और दुबारा उसमें संलग्न होना शक्ति का अपव्यय है। जो कार्य आगे करना है, उसकी आशा में अपने मन को मत लगने दो। जो शक्ति तुम्हारे अंदर कार्य कर रही है, वह अपने समय पर उसकी चिंता करेगी।

कर्म की कुशलता उस कर्म के प्रति तन और मन का नियोजन है। अपनी समस्त शक्ति और योग्यता भर काम करना चाहिए। अत्यधिक परिश्रम करते जाना समझदारी नहीं है, क्योंकि बाद में उसकी प्रतिक्रिया होती है। अत्यधिक परिश्रम जड़ता को ऊपर ले आता है। यदि बहुत अधिक कार्य किया जाता है, तो कर्मी की दिलचस्पी के बावजूद कर्म का स्तर गिर जाता है।

कर्म की इस साधना का आध्यात्मिक फल आँतरिक मनोभाव पर निर्भर करता है। इसके लिए महत्त्वपूर्ण तथ्य है कर्म में प्रयुक्त पूजा का भाव। यदि कोई कर्म के साथ-साथ भगवान् को स्मरण कर सके एवं कर्म को सहारा देने वाली व इसे संपादित करने वाली शक्ति को अनुभव कर सके, तो वह कर्म की साधना से मिलने वाले आध्यात्मिक परिणाम को द्विगुणित कर देती है। प्रेम एवं भक्ति कर्म की मूल प्रेरक शक्ति है। अतः कर्म की साधना को आनंदपूर्वक करते जाना चाहिए। हालांकि इस साधना में आनंद तब आता है, जब दिव्य शक्ति का सक्रिय भाव में अवतरण होता है। जिस कर्म को करने के लिए मनुष्य की आत्मा स्वीकृति प्रदान करे, वही उसके लिए सर्वोत्तम है। कर्म की यह साधना अपने विधि-विधान में संपूर्ण एवं समग्र है।


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