अंगुलिमाल का जन्म और ‘शास्ता’ में प्रत्यावर्तन

July 2001

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तक्षशिला विश्वविद्यालय के प्रांगण में उस दिन उत्सव का-सा माहौल था। सभी छात्र हर्षातिरेक में उन्मत्त हो रहे थे। कई वर्षों की उनकी तपस्या पूरी हो गई। आज वे शिष्य से आचार्य बनने की योग्यता पा लेंगे।

प्राँगण में जगह-जगह शिष्य मंडलियाँ अपने-अपने आचार्यों के साथ हास-परिहास में निमग्न थीं। आज उनकी विदाई होने वाली है। कुछ में निस्तब्धता छाई हुई थी। शायद वर्षों का स्नेह-संग बिछुड़न की पीड़ा से आहत हो। लंबे सान्निध्य को जब उर्वर मृत्तिका मिल जाती है, तो वहाँ पारिवारिक संबंधों का हरा-भरा वृक्ष खड़ा हो जाता है, इतना मजबूत, इतना गहन, इतना विस्तृत कि उसे आसानी से मिटाया न जा सके।

आचार्य ‘कुल’ और उनके शिष्य परिकर का कुछ ऐसा ही हाल था। वे प्राँगण के एक कोने में सबसे अलग बैठे थे, लगभग मौन। देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानो वियोग की वेदना उनसे सही न जा रही हो, पर एक को छोड़कर शेष नौ के बारे में यह बात ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल था कि वे सचमुच ही विछोह की स्मृति से व्याकुल थे अथवा वह कोई अभिनय था। हाँ, अहिंसक की विह्वलता सुस्पष्ट थी। आँखों के कोरों तक छलक पड़ने वाली बूँदों को बार-बार रोकने की असफल चेष्टा उसकी मनोदशा को स्वयमेव उजागर कर रही थी। उसकी यह बेचैनी समझी जा सकती थी।

अहिंसक, आचार्य से पितृतुल्य स्नेह करता था। वह उनमें अपने पिता की छवि निहारता। उधर आचार्य भी उस पर पुत्रवत् वात्सल्य लुटाते। उसका सौम्य, तेजोद्दीप्त चेहरा, गौर वर्ण, सुँदर कद-काठी, प्रखर मेधा, विनीत व्यवहार, आज्ञापालन, नियमित दिनचर्या उन्हें मोह लेती, पर कभी-कभी वे उदास हो जाते, जैसे अंदर कुछ कचोट रहा हो। यह स्थिति उनकी अक्सर हो जाया करती, पर किसी से कुछ कहते नहीं थे।

आज जब विदाई की वेला उपस्थित हुई, तो उनके चेहरे पर असमंजस की स्पष्ट रेखाएँ बनती-बिगड़ती परिलक्षित हो रही थीं। ऐसा प्रतीत होता था, माने वे कुछ निश्चय न कर पा रहे हों, जबकि अहिंसक भावप्रवण हो रहा था। रुँधे गले से बोला, “देव! आपने जो ज्ञान अपने भंडार में से लुटाया है, उसकी कीमत तो हम कई जन्मों में भी नहीं चुका सकते, पर हम चाहते हैं कि आप उसका कुछ-न-कुछ मोल लेकर हमें उससे उऋण करेंगे।”

“हाँ, अवश्य।” आचार्य के स्वर में तनिक व्यंग्य था। “माणवक अहिंसक! मैं आज तुमसे गुरु-दक्षिणा जरूर लूँगा, दे सकोगे?”

“आपकी इच्छा पूरी करने में मुझे सर्वस्व भी खोना पड़ा, तो हिचकूँगा नहीं। तात् आप आज्ञा करें।” अहिंसक उत्साहित होकर बोला।

“तो सुनो, मुझे एक सहस्र नरबलियाँ चाहिए।”

टहिंसक अवाक् रह गया। उसे जैसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। उसकी आश्चर्यमिश्रित दृष्टि को भाँपते हुए आचार्य कुल ने पुनः दोहराया, “हाँ, एक सहस्र नरबलियाँ।”

टहिंसक को पैरों के नीचे की जमीन खिसकती प्रतीत हुई। ऐसा लगा, जैसे पृथ्वी तेजी से नाच रही हो और उसका अपना आपा उसमें विलीन हो गया हो। स्थूल सत्ता कहीं खो गई और सूक्ष्म का अनंत विस्तार धरती-आकाश तक हो गया हो। उस विस्तार में ही आचार्य ‘कुल’ दीख रहे हैं। मुखमंडल में प्रतिकार और पश्चात्ताप के दोहरे भाव हैं। हृदय क्षेत्र में एक काली प्रतिच्छाया विद्यमान है, जो थोड़ी देर पूर्व दिए गए आदेश के प्रति मन की शुचिता पर प्रश्न-चिह्न की तरह विराजमान है।

क्षणार्द्ध में ही अहिंसक का व्यापक विस्तार वाला अस्तित्व स्थूल देह में सिमट गया। वह सामान्य बना, तो देखा, सभी उसकी ओर निहार रहे हैं। उसने सकुचाते हुए हाथ जोड़कर आचार्य से निवेदन किया, “तात्! यह कैसी दक्षिणा है? दक्षिणा है या दंड? इससे तो हमारा संपूर्ण जीवन ही अंधकारमय हो जाएगा। आपने ज्ञानदान कर एक बार उसे आलोकित किया है। अब पुनः उसे गहन तमिस्रा में धकेल देना चाहते हैं? नहीं, देव! नहीं, बर्बरता का खेल आचार्य नहीं, असभ्य और अज्ञ सिखलाते हैं। वह विश्वविद्यालयों की विषयवस्तु नहीं, वन-प्राँतरों का अभ्यास है और फिर मेरा नाम माणवक अहिंसक है। हिंसा वृत्ति और मेरे इस नाम में कितना बड़ा विरोधाभास है, जरा सोचें आचार्य। क्या यह उचित होगा, कोई निर्धन व्यक्ति अमीरी का स्वाँग रचे? क्या यह आदर्श होगा कि अरण्य के एकाँत कुटीर में रहने वाला संन्यासी माया की छलना में पड़े? फिर मेरा यह नाम अकारण भी नहीं है। कोसल राजपुरोहित मेरे पिता भार्गव गार्ग्य ने इसे मेरी अहिंसाप्रिय अंतःवृत्ति को देखकर ही रखा था। इस घटना से उन्हें कैसा आघात लगेगा, सोचें। कोसल नरेश प्रसेनजित कितने, मर्माहत होंगे, तनिक कल्पना करें। कल्पना करें उस दृश्य की जहाँ लाशें-ही-लाशें पड़ी हों और मेरी खड्ग लहू की धार बहा रही हो। बर्दाश्त कर सकेंगे प्रत्यक्ष में इसे आप? नहीं, मूर्च्छित हो जाएँगे आचार्य। फिर मेरा अंतर तो बहुत ही कोमल है। मुझसे यह नृशंसता कैसे हो सकेगी? अस्तु अपनी आज्ञा पर पुनर्विचार करें देव। मुझे आपका कठोर-से-कठोर आदेश शिरोधार्य है, पर यह हिंसा........ओफ्फ! यह मुझसे न हो सकेगी।”

मस्तक पर उभर आए स्वेद बिंदुओं को पोंछते हुए उसने फिर कहना शुरू किया, “हत्याओं से स्वार्थ सधते हैं आर्य, आदर्श नहीं। आपकी उक्त आज्ञा से मेरा अंतःकरण काँप उठा है, मेरी आस्था डगमगा गई है और निष्ठा कमजोर पड़ रही है। तनिक विचार करें देव! क्या यह मानवता के प्रति गंभीर अपराध नहीं होगा? क्या इससे गुरु-शिष्य की पावन परंपरा कलंकित नहीं होगी? क्या इतिहास के पृष्ठों पर यह एक काले अध्याय के रूप में अंकित नहीं हो जाएगा? सोचें आर्य। एक सहस्र नरबलियों से जो चीत्कारें उठेंगी, वे जन्म-जन्माँतरों तक हमारा पीछा न करेंगी? आत्मा पर लदे उस बोझ को हम कैसे ढो सकेंगे?”

यह कहकर चेहरा हाथ से ढ़ककर वह फूट-फूटकर रोने लगा। थोड़ी देर पश्चात् भावुकता पर काबू पाया, तो आँखों को पोंछ आचार्य कुल की ओर देखा। उनका चेहरा निर्विकार था। समझा लिया, आदेश यथावत् है। वह धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ा, निकट पहुँचा, हाथ जोड़े और भर्राए गले से क्षीण स्वर में कहा, “जा रहा हूँ आर्य, पर स्मरण रखें, क्रूरता की माटी में कोमल किसलय नहीं खिलते। वहाँ रक्त बहाने वाले नागफनी ही सिर उठाते हैं।”

इतना कहकर वह झुका और आचार्य के चरण छुए। आँसुओं की दो बूँदें लुढ़क पड़ीं। इसके बाद वह मंथर गति से चलता हुआ आँखों से ओझल हो गया।

काफी समय बीत गया। आज माणवक बहुत बेचैन था। अपने गुफा-द्वार के एक शिलाखंड से सिर टिकाए अधलेटे वह सोच रहा था, महीनों बीत गए, पर इस सघन प्राँतर में कोई मनुष्य नहीं दिखा। आस-पास के इलाके भी वीरान हैं, फिर मेरे व्रत की पूर्णाहुति कैसे होगी? तत्पश्चात् वह अपने गले से उँगलियों की माला निकालकर गिनने लगा, एक, दो, तीन........दस............पचास..........दो सौ, पाँच सौ........नौ सौ निन्यानवे। सिर्फ एक बलि और चाहिए। नौ सौ निन्यानवे वध की हवि तो गुरु दक्षिणा के इस यज्ञ में अर्पित हो चुकी है। अब शेष एक के लिए मुझे और कितना इंतजार करना पड़ेगा? ओफ्फ! कोसल का जालिनी व क्या अब नरविहीन हो गया? क्या वनवासी भी जंगल छोड़कर भाग गए या सबकी हमने हत्या कर दी? फिर उस एक हव्य की व्यवस्था कैसे होगी?

अभी माणवक यह सब सोच ही रहा था कि किसी आहट से उसकी विचार-शृंखला टूटी। वह सतर्क हुआ। नियमित अंतराल पर होने वाली यह क्षीण ध्वनि कोई पदचाप तो नहीं? उसने कर्णेंद्रियों पर जोर डाला। हाँ, यह पदचाप ही है, किसी मनुष्य की। कदाचित् कोई इधर ही आ रहा है। वह उठ बैठा। कान ध्वनि पर ही लगे रहे। वह धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट और तीव्र होती जा रही थी। उसने खड्ग सँभाली। उसकी धार देखी। किंचित् भोंथरी हो गई थी। पास पड़े चिकने पत्थर पर रगड़कर उसे दुरुस्त किया, तदुपराँत पार्श्व के वृक्ष की ओट में खड़ा होकर प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी ही देर में सामने की वृक्षावलियों के मध्य, पगडंडी पर एक मानवाकृति उभरी। वह कोई चीवरधारी भिक्षु प्रतीत हो रहा था। हाथ में मधुकरी पात्र लिए निर्भयतापूर्वक इसी ओर बढ़ा चला आ रहा था। और नजदीक आया, तो उसके संपूर्ण शरीर से निर्गत होती काँति को देख माणवक समझ गया, यह कोई साधारण मनुष्य नहीं। वह मन-ही-मन प्रसन्न था कि उसकी गुरु दक्षिणा एक असाधारण मानव की बलि से पूरी होगी। कुछ और समीप आया, तो वह उस पर झपट पड़ा। उसका रौबदार स्वर गूँजा, “सावधान, भिक्षु! ठहरो....., सावधान!”

बुद्ध वहीं रुक गए। उसने तलवार से आक्रमण कर दिया और अंधाधुँध वार करता रहा, पर यह क्या। तथागत की धूमिल छायाकृति वहाँ खड़ी थी और वे स्वयं दूर खड़े मुस्करा रहे थे। वह दौड़कर उस ओर लपका। इस बार सीधे गरदन पर प्रहार किया। खड्ग आर-पार निकल गई। एक बार फिर धोखा हुआ। बुद्ध कुछ पीछे खड़े थे। उनके चेहरे पर करुणा और हास्य का पुट था। माणवक की भृकुटियाँ तन गईं। उसकी आँखें अंगारे बरसा रही थीं। वह तुमुल गर्जना करते हुए दहाड़ा, “मायावी! छली!! तुम कोई भी हो, पर आज हमारी कटार तुम्हारा रक्त पीकर रहेगी। चाहे जो भी इंद्रजाल रचो, लेकिन अब बच न सकोगे।”

इतना कहकर उसने चीते की-सी फुर्ती से तथागत पर छलाँग लगा दी। वह धड़ाम से भूमि पर जा गिरा। ओष्ठ कट गए और खून की एक पतली धार बह निकली। पुनः विफलता हाथ लगी। बार-बार की असफलता से वह खूँखार हो उठा और रौद्र रूप धरकर बुद्ध के पीछे यहाँ-वहाँ भागता रहा, किंतु हर बार उसे उनकी सूक्ष्माकृति ही हाथ लगी। पंचभौतिक शरीर दूर बना रहा।

घंटों यह खेल चलता रहा। माणवक इस भागदौड़ में बुरी तरह थक गया और मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। अर्हत उसके निकट आए और करुणा विगलित आवाज लगाई, “वत्स अंगुलिमाल! उठो, देखो, मैं पास ही खड़ा हूँ। आँखें खोलो, वत्स!”

अंगुलिमाल की मूर्च्छा तंद्रा की-सी स्थिति में परिवर्तित हो गई। उसे लगा जैसे कोई अत्यंत मधुर बाँसुरी की ध्वनि उसके कर्णकुहरों से टकरा रही है और एक संदेश दे रही है। उस संदेश में एक परिचय है। कोई कह रहा है, “मैं दिव्य प्रकाश हूँ, मुक्त हूँ, शास्ता हूँ और तुम्हें शास्ता बनाने आया हूँ।”

तदुपराँत ध्वनि समाप्त हो गई। उसके कानों में देर तक ‘शास्ता’ शब्द गूँजता रहा। थोड़ी देर पश्चात् तंद्रा टूटी, आँखें खुलीं। वह फटे-फटे नेत्रों से तथागत को देखने लगा।

बोधिसत्व कहने लगे, “अंगुलिमाल। तुम जिस संकल्प को पूरा करने में लगे हो, उसकी भयंकरता के बारे में भी कभी सोचा है? गुरु दक्षिणा लोगों की कराहों से पूरी नहीं होती वत्स। उसका लक्ष्य ऊँचा होना चाहिए, पतन की राह पर ले जाना नहीं। तुम्हारे साथ धोखा हुआ है, आचार्य ने पाखंड किया है, देखो.....।”

इतना कहकर भगवान् ने उसके सिर का स्पर्श किया। एक बार फिर उसे तंद्रा ने आ घेरा। वह देखता है, आचार्य ‘कुल’ चिंतामग्न बैठे हैं, सोच रहे हैं, “नहीं.......नहीं.... ऐसा नहीं हो सकता। माणवक इतना हेय नहीं है। क्या वह अपवित्र है। गुरु पत्नी के प्रति ऐसा भाव.... यह कैसे संभव है? पर छात्र तो यही कहते हैं। हो सकता है यह सत्य हो। आखिर वे मिथ्या भाषण क्यों करेंगे? अवश्य ही वह दोषी है। अब मैं उसे छोड़ूंगा नहीं। आने दो समय, ऐसी गुरु दक्षिणा माँगूँगा कि जन्मांतरों तक वह उसके पातक को भोगेगा।”

बुद्ध के स्पर्श के साथ ही उसका सम्मोहन भंग हो गया, स्थिति पूर्ववत् हुई। एक पल के लिए वह स्तब्ध हो गया, फिर तथागत के चरणों में गिरकर बिलख-बिलखकर रोने लगा। बोधिसत्व उसे साँत्वना देने लगे। बड़ी मुश्किल से थोड़े समय बाद वह कुछ सहज हुआ, तो भरे गले से भगवान् बुद्ध से कहने लगा, “भंते! बहुत देर कर दी। अब तो इस जीवन में कुछ बचा नहीं। आगे एक ही इच्छा है कि उस संकल्प यज्ञ में अपना जीवन भी होम दें और गुरु दक्षिणा पूरी करें।”

यह कहकर उसने खड्ग उठाई और अपनी गरदन पर प्रहार करना चाहा, लेकिन हाथ स्तंभित हो गया। वह बुद्ध की ओर देखने लगा। भगवान् उसे करुणार्द्र दृष्टि से देख रहे थे, बोले, “तुम अंतिम आहुति अपने जीवन की देना चाहते हो? ठीक है, पर तुम्हारी मौत तो हो चुकी। रक्त निकले और प्राण छूटे, तभी मृत्यु होती है, ऐसा तो नहीं? तुम तो पहले ही मर चुके हो। जिस दिन तुमने पहली हत्या की, उसी रोज तुम्हारी मौत हो गई। यह तुम्हारा नवीन जन्म है। अब तुम शास्ता हो, बुद्ध हो। हममें तुममें कोई फर्क नहीं। दोनों एक हैं। आओ, दोनों मिलकर दूसरों को ऊँचा उठाएँ। उठो, वत्स! चले।”

दोनों श्रावस्ती की ओर चल पड़े, तथागत आगे-आगे और अंगुलिमाल पीछे-पीछे, पर अब वह दुर्दांत दस्यु नहीं था। उँगलियों की माला भी उसकी ग्रीवा में नहीं थी। अब वह एक शाँत-सौम्य चीवरधारी भिक्षु था, बुद्ध का शिष्य।


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