अहिंसा : वीरों का भूषण, मोक्ष का सोपान

July 2001

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अहिंसा एक मनोभाव है। यह मन का धर्म है। यह वह वृत्ति है, जो पीड़ित व्यक्ति के पीड़ाजनित अनुभव से व्यक्त होती है। इसका भाव कल्पनीय है। यह बाहर प्रकट नहीं होता है, परंतु अत्यंत प्रभावशाली होता है। मन में अहिंसा का भाव सुदृढ़ हो जाने से व्यक्ति अजातशत्रु हो जाता है। कोई भी प्राणी उससे द्वेष नहीं करता। क्रूर भी उसके सामने विनम्र हो जाता है। इसी के साथ वह एक जीवन-मूल्य भी है।

मनोभाव होने के कारण यह मनोविज्ञान का भी विषय है। हिंसा और अहिंसा का स्थान मानव मस्तिष्क है। हिंसा के मूल में भय रहता है और वह उस भय की ही अभिव्यक्ति है और इसी के वशीभूत मनुष्य इसमें प्रवृत्त होता है। इसका एक अन्य कारण लोभ है। धन की वजह से भी लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। डाकू धन के लोभ में पथिक को मार डालता है। इसी कारण एक भाई दूसरे भाई पर तलवार खींच लेता है।

निर्भय और सबल व्यक्ति हिंसा नहीं करता। वह अहिंसा पर विश्वास करता है, क्योंकि इसके मूल में प्रेम की भावना कार्य करती है। प्रेम में हिंसा का स्थान कहाँ? अतः अहिंसक सदा निर्भय एवं निडर होता है। अहिंसा वीरों का भूषण है। यह कायरों का आचरण नहीं है। कायर कभी क्षमा नहीं करता और न उसकी क्षमा का कोई मूल्य होता है। रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, “उसका क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो।”

मनुष्य की जन्मजात प्रकृति हिंसा है या अहिंसा? इस विषय में मनोविज्ञानियों मताँतर है। हिंसा को सहज वृत्ति मानने वालों के अनुसार मनुष्य स्वभाव से दुष्ट है। अतः बुराई उसकी जन्मजात वृत्ति है। पर आगे वे यह भी कहते हैं कि यह प्रवृत्ति स्वाभाविक तो है, परंतु कल्याणकारी नहीं है। इससे मुक्ति पाई जा सकती है। स्वाभाविक हिंसावादियों की मान्यतानुसार हिंसा स्वाभाविक वृत्ति है। क्योंकि ऐसा न होता तो उसे रोकने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। इसके पक्षधर मानते हैं कि यदि मनुष्य को स्वच्छंद छोड़ दिया जाए, तो वह उच्छृंखल हो जाएगा। वह अहिंसा की अपेक्षा हिंसा का ही रास्ता वरण करेगा। साधुता की अपेक्षा दुष्टता की ओर मुड़ेगा।

मानव-स्वभाव को हिंसा मानने वालों में पाश्चात्य विद्वान् मैकडूगल, एडलर, फ्रायड, डार्विन आदि हैं। परंतु पूर्वी दृष्टिकोण अति उदात्त है एवं इससे भिन्न है। भारतीय विचार के अनुसार मानव स्वभाव से पवित्र एवं दोषमुक्त है, क्योंकि जीवात्मा से अभिन्न है। वह परमात्मा का एक दिव्य अंश है। जीवात्मा में परमात्मा के समस्त दिव्य गुण समाहित हैं, फिर जीवात्मा अपवित्र कैसे हो सकती है। उपनिषद् में जीव को स्वभाव से नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त माना गया है। छाँदोग्योपनिषद् में स्पष्ट संकेत है, जीव सत्यकाम, सत्य-संकल्प, अजर, अमर एवं शोकरहित है।

षड्दर्शनों में भी जीव को श्रेष्ठ एवं दोषरहित घोषित किया गया है। न्याय दर्शन के अनुसार बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं। जीवात्मा स्वभाव से ज्ञानवान् है। इसलिए इसका प्रत्येक कार्य विचारपूर्ण होना चाहिए। विवेकपूर्ण कर्म के द्वारा वह अवश्य ही साधुता का पथ अख़्तियार करेगा। अज्ञान, अधर्म, मोह, दुष्टता आदि जीव के आरोपित धर्म हैं।

साँख्य दर्शन में स्पष्ट किया गया है कि समस्त जीव सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हैं। बंधन का भाव स्वाभाविक नहीं है। यह तो जीव पर आरोपित किया गया है। बंधन और मुक्ति प्रकृति के धर्म हैं। जीवात्मा प्रकृति के संयोग में आकर बद्ध हो जाता है। वस्तुतः दोष संसार में आकर ही पनपता है। संसार के दोष से भला वह मुक्त कैसे हो सकता है। परंतु जीवात्मा नित्य, शुद्ध एवं बुद्ध है।

साँख्यदर्शन सत्कार्यवादी है। गीता की मान्यता है, ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’। मानव की सहज वृत्ति हिंसक नहीं है। यदि ऐसा हो तो उसकी परिष्कार की संपूर्ण प्रक्रिया और समस्त प्रयास का कोई मूल्य नहीं होगा। मनुष्य की वृत्ति मूलतः दिव्यता से ओतप्रोत है। अगर ऐसा नहीं होता, तो वह सन्मार्गगामी नहीं हो सकता और इसी वजह से ही वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है। मुक्ति इसका स्वरूप है। वह स्वभाव से मुक्त है। विषय-वासनाओं को कुचक्रों में फँसकर वह हिंसाग्रस्त हो गया है। जीव के ऊपर कर्म-प्रारब्ध का मैल जम गया है। जैसे लैंप के काँच में धुआँ की परत चढ़ी हुई रहती है और इसमें लौ दिखाई नहीं देती। काँच को साफ करते ही लौ फिर से चमकने लगती है। जीवात्मा लैंप की लौ के सदृश है।

स्वभाव तो वह है जो नित्य और अपवादरहित है, इसका निराकरण संभव नहीं होता। यदि मानव स्वभाव मूलतः हिंसक, कलहप्रिय, दुश्चरित्र आदि होता, तो जन्म-जन्माँतरों तक यम-नियमों का पालन करने पर भी अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि गुणों का समावेश नहीं हो सकता। मानवीय वृत्ति यदि बुराइयों का गढ़ रही होती, तो फिर निराकरण का प्रयास क्यों किया जाता? प्रयास और पुरुषार्थ करने का तात्पर्य है, अपने भूले हुए स्वरूप की ओर लौट आना चाहते हैं। अपने अंदर में सारी छटपटाहट, अकुलाहट एवं आतुरता इसलिए है, क्योंकि हमारी दिव्य संपदा खो गई है। यदि श्रेष्ठता एवं दिव्यता हमारा स्वभाव न होता, तो अहिंसा जैसे कठोर तप की आवश्यकता क्यों?

दिव्य आत्मा परमात्मा का अंश है। दिव्यता इसका स्वरूप है। हिंसक कर्मों से यह अपना पीछा छुड़ाना चाहती है। जब हम हिंसक कार्य करने जाते हैं, तो हमारा अंतःकरण कांप उठता है। यह उस कार्य के विरुद्ध विद्रोह करता है। मन अस्वाभाविक हो जाता है। समस्त शरीर काँपने-थर्राने लगता है, क्योंकि आत्मा ऐसे कार्य के लिए प्रश्रय नहीं देती। परंतु अंतःकरण की इस आवाज को क्रमशः अनसुनी करते-करते मानव अत्यंत क्रूर एवं निष्ठुर हो जाता है। आत्मा की संवेदना एवं करुणारूपी अहिंसा निष्ठुरता के पद तले कुचल ही जाती है और वह पाषाणी जड़ता के नीचे दबी-कुचली पड़ी रहती है। अंत में अहिंसा की उर्वर भूमि में हिंसा का नग्न नर्तन होता है। परंतु यह स्वाभाविक नहीं है। व्यक्ति चाहे तो आत्मा की उस मधुर अनुगूँज को भी प्राप्त कर सकता है, जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः मानव मूलतः अहिंसा का पुजारी है। वह उसी का पक्षधर है।

इस संदर्भ में प्रख्यात चिंतक डॉ. राम जी सिंह का मत बड़ा सारगर्भित लगता है। इनके अनुसार हिंसा, दुर्भाव आदि मानव स्वभाव के अंग नहीं हैं, वह आरोपित हैं। वास्तविक अर्थ में यह उसका जन्मजात स्वभाव नहीं है, अपितु वातावरण से अर्जित विभाव मात्र है। ऋषि एवं संत मानवी स्वभाव के बड़े गंभीर द्रष्टा हैं। इसलिए वे हिंसक अपराध को भी क्षमादान कर देते हैं। परिवर्तन, विमुख स्थिति-स्थापन जैसे विधि-शास्त्रों में भी दोषी के प्रति उदारता का परिचय दिया गया है। यह मानव स्वभाव की साधुता में आस्था की अभिव्यक्ति है। मनुष्य के अंतर्निहित सद् में विश्वास ही मानवीय संस्कृति के विकास की इतिहास की कहानी है।

मुनि नथमल का मत है कि अहिंसा में मैत्री, सद्भावना, एकता और सुख-शाँति का समावेश है। अहिंसा का स्वरूप है-उपशम, मृदुता, सरलता, संतोष, अनासक्ति और अद्वेष। हमारे मन, वाणी और समस्त कार्य को अहिंसारूपी स्नेहिल स्पर्श प्राप्त है। ऐसा व्यक्ति न तो औरों को कष्ट देता है और न स्वयं को। अहिंसा में परम संतोष है। हिंसा स्वभाव के प्रतिकूल है।

अहिंसा का भाव जब मन में दृढ़तापूर्वक स्थित हो जाता है, तो उसके संपर्क में आने वाले हिंसक एवं कुटिल स्वभाव वालों का भी बैर-भाव शाँत हो जाता है। अहिंसा में प्रतिष्ठित योगी के अंतःकरण का सान्निध्य हिंसक प्राणियों का मनोविकार शाँत कर सकता है। अहिंसक योगी का व्यवहार मधुर, सौम्य एवं सात्विक होता है। उसके शत्रु भी उसका सम्मान करते हैं। उसका कोई बैरी होता ही नहीं है। वह अजातशत्रु हो जाता है। सभी उस पर विश्वास कर लेते हैं। केवल पशु-पक्षी ही नहीं वरन् साँप, बिच्छू आदि जहरीले प्राणी भी उसको हानि नहीं पहुँचाते।

अहिंसा दिव्य गुण है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व को सुँदर एवं समुन्नत बनाता है। अहिंसक व्यक्तित्व का वातावरण शुद्ध एवं प्रभावपूर्ण होता है। संपर्क में आने वालों पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। ऋषियों के सम्मुख हिंसक प्राणी भी बैर-भाव को छोड़कर साधु वृत्ति वाले जो जाते हैं। यह अहिंसा की विशिष्टता ही है। अहिंसा प्रिय व्यक्ति के मुख-मंडल पर समुद्र के समान गंभीरता एवं महानता होती है। इनके अंदर दुष्ट मनोभाव प्रवेश नहीं कर पाता है। उनके चेहरे पर हित श्वेत-सौम्यता होती है। आँखों में पवित्रता की गहराई होती है। उनकी चेष्टाएँ निताँत सौम्य स्नेहिल और करुणामयी होती हैं। द्वेष एवं विकार का वहाँ द्वंद्व तक नहीं होता। क्रूरता एवं आक्रामकता भी उनके समक्ष नतमस्तक हो जाती हैं। उनके पास कुटिलता एवं दुष्टता हावी नहीं हो पाती वरन् अपना समर्पण कर बैठती हैं। इनका निवास सर्वसुलभ होता है। जिस समाज में ऐसे अहिंसा के पुजारी रहते हैं वहाँ सुख, शाँति, समृद्धि की सनातन वर्षा होती है।

अहिंसा मनोभाव के साथ एक जीवन-मूल्य भी है। जीवन-मूल्यों का तात्पर्य उन व्यवहारों, कर्त्तव्यों और मानदंडों से है, जिन पर किसी व्यक्ति के महत्त्व का आकलन एवं मूल्याँकन किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन-मूल्य कुछ व्यक्तिगत एवं कुछ सामाजिक होता है। उसके जीने का ढंग एवं स्वरूप होता है। यह उसके व्यक्तिगत विचारों से संबंधित है। इस परिप्रेक्ष्य में अहिंसा एक ऐसा जीवन मूल्य है, जिसको धनवान और निर्धन, राजा और रंक, प्रजा और शासक, बालक और वृद्ध, दुर्बल व बलवान तथा स्त्री और पुरुष सभी समान रूप से अर्जित कर सकते हैं। मूल्यों के अर्जन से ही व्यक्ति मूल्यवान् बनता है। इस मूल्य की अलौकिकता एवं दिव्यता व्यक्ति को अनमोल बना देती है। इस तरह निश्चित रूप से अहिंसा भी अनमोल वस्तु है। किसी भी ऐश्वर्य से अहिंसा का ऐश्वर्य कम नहीं है। यह दुर्लभ संपदा है।

इतना ही नहीं अहिंसा मोक्ष का सोपान भी है और जगत् में व्यवहृत दिव्य रसायन भी। यह प्रतिक्षण जीवन को पुष्ट, उन्नत, उत्कृष्ट एवं पावन बनाती है। यह अपनी उत्कृष्टता से सर्वातिशायी और सद्यः प्रभावकारी है। अहिंसा में प्रतिष्ठित व्यक्ति देवों के लिए भी स्पृहणीय एवं वंदनीय होता है। अहिंसा का व्रत पालन कर स्वयं में सुख-शाँति का अनुभव किया जा सकता है एवं समाज को भी समुन्नत बनाया जा सकता है।


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