प्रकृति माता की रहस्यों भरी पिटारी

July 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

माता प्रकृति अनेकानेक रहस्यों एवं आश्चर्यों की जन्मदात्री है। अगणित रहस्य एवं आश्चर्य इसके गर्भ से उपजते, बढ़ते एवं हमें चमत्कृत करते रहते हैं। अरोरा एवं व्हीशलर की बात भी कुछ ऐसी ही है। इन दोनों का ही संबंध मैग्नेटोस्फीयरिक प्लाज्मा से है। जो सूर्य के सहारे जन्मता और उफनता है।

सूर्य ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य की सक्रियावस्था में चुँबकीय तूफान उमड़ते हैं। इसमें अरबों किलोवाट ऊर्जा होती हैं इस ऊर्जा के कण आपसी प्रतिक्रिया करके अंतरिक्ष के वातावरण को गतिशील एवं सक्रिय बनाए रखते हैं। इसमें विद्युत् चुँबकीय क्षेत्र का योगदान भी बड़ा महत्वपूर्ण होता है। हमारी धरती एक विराट् प्लाज्मा की प्रयोगशाला है और यही विघातक एवं विषैले विकिरणों से हमारी रक्षा करती है। इसे सुरक्षा कवच माना जा सकता है।

चुँबकीय प्लाज्मा धरती के समस्त चुँबकीय क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। वैज्ञानिक इसका संबंध अरोरा एवं व्हीशलर से जोड़कर देखते हैं। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम 1745 में स्वीडन के सेल्सियस ने कार्य किया था। उन्होंने अरोरा को चुँबकीय व्यतिवम से संबंधित बताया।

अरोरा आसमान में घूमते हुए प्रकाश की भाँति है। प्राचीन कथाओं में इसे देवताओं के उदय एवं अवतरण के रूप में भी चित्रित किया गया है। संस्कृत में इसे उषा या प्रभात से संबोधित किया गया है। अरोरा ऐसा निकलता है जैसे कोई साड़ी वाला अपने अंदर से रंग-बिरंगी साड़ियों को आसमान में उछाल रहा हो। यह आर्कटिक अंतरिक्ष में किरणों की अद्भुत जादूगरी दिखाता है। पृथ्वी के दोनों ध्रुवीय चुँबकीय क्षेत्र में अरोरा को देखा गया है। उत्तरी अरोरा को अरोरा बोरेलिस (उत्तरी उषा) कहते हैं। सर्वप्रथम फ्राँसीसी अंतरिक्षविद् गैसेण्डी ने 12 सितंबर 1621 को दक्षिणी प्राँत में इस मनोरम दृश्य को देखा और इसका नामकरण किया। कैपटन कुक ने 19 फरवरी 1773 में भारतीय समुद्र के 5706’ह्य दक्षिणी अरोरा को देखा एवं इसका नाम अरोरा आस्ट्रेलीस रखा।

अरोरा अंतरिक्ष के अंदर 650 से 800 अक्षाँश में स्थित होता है। इसी वजह से संभवतः यह मैदानी क्षेत्र जैसे भारत में दृष्टिगोचर नहीं होता, परंतु इसका अपवाद भी है। 4 फरवरी 1872 में इसे मुँबई एवं अपने देश के कई स्थानों पर देखा गया। कभी-कभी अरोरा इलीप्ट एवं विश्व के अन्य देशों में भी अभूतपूर्व चुँबकीय तूफानों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है।

इस पर अनेकों किंवदंतियां भी प्रचलित हैं। अरस्तु ने इसे चैज्म (ष्टद्धड्डह्यद्व-ष्टद्धड्डह्यद्वड्डह्लड्ड) कहा है। इसका तात्पर्य है “आकाश फटने से उत्पन्न प्रकाश।” अरोरा को किसी बड़ी घटनाओं का जन्मदाता भी माना जाता है। इसके लाल रंग के कारण इसे तलवारबाजी से जोड़ा जाता है। सन् 1938 में तो यह उत्तर दिशा में भीषण दावानल के रूप में दिखा। इसी वजह से इंग्लैंड के फायर ब्रिगेड वाले इसकी खोज में निकल पड़े, ताकि इस अग्निकाँड को बुझा सकें। अरोरा कवियों के काव्यमय अलंकारों में भी झलका है। 1743 में एक रूसी विज्ञानी लोम्नोसोव इसे देख इतने भावुक हो गए थे कि इस पर उन्होंने कविता रच डाली थी। वे एक कवि भी थे। ग्रीक में टूटते तारों, भूकंप आदि से भी इसका संबंध जोड़ा गया है।

वैज्ञानिक मान्यतानुसार आयनमंडल के अणु-परमाणुओं के सूर्य से प्रभावित इलेक्ट्रॉनों से टकराने से अरोरारूपी रंग-बिरंगा प्रकाश उत्पन्न होता है। यह विचार 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में नार्वे के वैज्ञानिक बर्कलैंड एवं स्ट्रोमर ने दिया। आधुनिक शोध-निष्कर्ष इसे वायुमंडल के विक्षोभ से उत्पन्न नहीं मानता। आज इसके विद्युत् चुँबकीय दशा का परिणाम माना जा रहा है।

यह अरोरा अंतरिक्ष में भँवर के समान उठता है। आधुनिक अन्वेषण के अनुसार जब सौर वायु के चुँबकीय क्षेत्र और चुँबकीय मंडल के बीच प्रतिक्रिया होती है, तो अरोरा का जन्म होता है। सौर वायु में दस लाख मेगावाट विद्युत् शक्ति होती है। 1859 में जब टेलीकम्युनीकेशन का प्रचलन प्रारंभ ही हुआ था, तभी यह घटना घटित हुई थी। उस समय हुआ यूँ कि अरोरा की शक्ति से टेलीकॉम बिना बैट्री के चलने लगा। इससे एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या अरोरारूपी प्राकृतिक विद्युत् भंडार का उपयोग किया जा सकता है। अभी तक तो यह परिकल्पना मात्र है। परंतु बर्कलैण्ड के टेरेला सिद्धाँत से इस परिकल्पना को बल मिलता है।

उत्तर एवं दक्षिण ध्रुवीय अरोरा एक समान होते हैं और एक ही समय में क्रियाशील व गतिशील होते हैं। वैज्ञानिक दोनों अरोरा को एक ही स्रोत से उत्पन्न मानते हैं। दोनों क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन एक समान व्यवहार करता है। इन दोनों को ‘मिरर इमेज’ माना जा सकता है।

अरोरा का रंग आखिर इतना चमकीला एवं इतना आकर्षक क्यों होता है? इस परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक मान्यता है कि आइनोस्फीयर में शून्य से इलेक्ट्रॉनों की भारी बौछार होती है। इससे आयन मंडल के अणु-परमाणु तेजी से गर्म होकर प्रकाश का विकिरण करते हैं। चूँकि इस क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के अणु-परमाणु में विभिन्न प्रकार की टकराहटें होती हैं। अतः भिन्न प्रकार के रंगों के प्रकाश उत्सर्जित होते हैं। यहाँ पर मुख्यतः ऑक्सीजन और नाइट्रोजन परमाणुओं की अधिकता होती है। जब यह परमाणु आयनीकृत होते हैं, तो विभिन्न प्रकार की प्रकाश तरंगों को उत्पन्न करते हैं।

रंग प्रकाश तरंग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ऑक्सीजन परमाणु से हरा दूधिया रंग निकलता है। इसका प्रभाव 110 से 250 किमी. अक्षाँश तक होता है। 300 से 400 किमी. अक्षाँश में जब कम ऊर्जा वाले कण ऑक्सीजन परमाणु से टकराते हैं, तो लालिमायुक्त प्रकाश निकलता है। नाइट्रोजन परमाणु से हरे रंग का प्रकाश निकलता है। उत्सर्जित करता है। आयनीकृत परमाणु से नीला रंग एवं उदासीन नाइट्रोजन से नील लोहित रंग निकलता है। इलेक्ट्रॉनों की इस बरसात से ही रंगों का समाँ बँधता है।

सौर वायु की तीव्रता से अरोरा प्रकाश भी प्रदीप्त हो उठते हैं। ये प्रकाश सामान्यतः पश्चिम से पूर्व की ओर गतिशील होते हैं। प्रातःकालीन वेला में ये विभिन्न रंगों से युक्त एवं बिखरे होते हैं। इस दौरान दो से तीन घंटों तक प्रकाश की ये चमत्कारिक अठखेलियाँ दृश्यमान होती हैं। अरोरा में 0.1 मिलियन मेगावाट ऊर्जा होती है। परंतु इसमें सौर वायु की तीव्रता के मिलते ही यह ऊर्जा 10 लाख मेगावाट तक पहुँच जाती है।

सौर क्रम की सक्रियावस्था में अरोरा की रंगीन छटा बड़ी मनोरम होती है। इस अवधि में रंगों का अद्भुत मिश्रण होता है। ऐसा लगता है मानो प्रकृति स्वयं तूलिका लिए आसमान के आसमानी परदे पर रंग उकेर रही हो। शाम सात से दस बजे तक यह प्रकाश गोलाई लिए हुए रहता है। इसकी गति एक क्षितिज से दूसरे क्षितिज तक बढ़ती है। देर शाम तक यह चार प्रकार की रेखाकृत संरचनाओं में परिवर्तित हो जाता है। इसे रेपीड आर्क कहते हैं। इनका विस्तार सैकड़ों किमी. के दायरे में विस्तृत होता है। मध्य रात्रि के आने तक सारे रंग विलुप्त हो जाते हैं। केवल दूधिया या हलका हरा रंग शेष बचा रह जाता है। फिर इनमें धुओं के बुलबुले उठते प्रतीत होते हैं। इन बुलबुलों का अस्तित्व एक सेकेंड से आधे मिनट तक होता है। इन्हें पल्सेटिंग अरोरा कहते हैं। रात के गुजरने के साथ ही अरोरा का प्रकाश कम होने लगता है। दिन के उजाले में ये दृष्टिगोचर नहीं होते तथा उत्तर की ओर जाते हुए प्रतीत होते हैं।

अरोरा के निर्माण में तीन तत्त्वों का होना आवश्यक है, सौर वायु, चुँबकीय क्षेत्र एवं ग्रह या उपग्रह का वायुमंडल। बुध ग्रह में पृथ्वी के समान चुँबकीय क्षेत्र होता है, परंतु वायुमंडल क्षेत्र के अभाव में वहाँ ध्रुवीय प्रकाश नहीं होता है। शुक्र एवं मंगल में चुँबकीय क्षेत्र का पता नहीं लगाया जा सका है। अतः वहाँ भी यह रंगीन प्रकाश नहीं है। चंद्रमा में चुँबकीय क्षेत्र एवं वायुमंडल की उपस्थिति में अरोरा नहीं दिखता। बृहस्पति में चुँबकीय क्षेत्र विद्यमान होता है और उसके वायुमंडल में हाइड्रोजन गैस होती है। अतः उसके ध्रुवीय प्रकाश को नोवियन अरोरा कहते हैं। हाइड्रोजन के कारण अरोरा का रंग गुलाबी होता है। शनि ग्रह में अरोरा दिखाई नहीं देता। यूरेनस और नेपच्यून में भी अरोरा का अस्तित्व नहीं होता।

मैग्नेटिक प्लाज्मा की एक और अद्भुत सुपर नेचुरल क्रिया है, व्हीशलर। श्रव्य रेडियो संकेत की आवृत्ति को व्हीशलर कहा जाता है। इसे कढ्ढद्ध (कद्गह्ब् द्यशख् स्नह्द्गह्नह्वद्गठ्ठष्ब्) कहते हैं। बिजली के तेज चमकने से इसकी आवृत्ति 300-30000 हर्ट्ज होती है। यह आवाज सुपर नेचुरल जैसी है, जो बिजली के तड़कने से आँधी एवं बरसात से आती है। सबसे पहले इस संकेत को 1859 में जार्ज बी. प्रेस्कोट ने रिकॉर्ड किया। प्रेस्कोट बोस्टन के टेलीग्राफ आपरेटर थे। यह आवाज बड़ी विचित्र थी एवं सबसे जुदा थी। वह किसी मशीन की आवाज नहीं थी। इस पर सूक्ष्म विवेचन एवं अनुसंधान सन् 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध के दोरान हैनरिक बार्क हेसन ने किया। ये भी इस आवाज की विशिष्टता एवं विचित्रता से हैरान थे। अंततः अमेरिका के लॉस ऐन्जिल्स टाइम्स नामक पत्रिका में प्रथम बार किसी सुपर नेचुरल ध्वनि के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी।

इस आवाज की फ्रीक्वेन्सी काफी कम होती है, परंतु इसे रेडियो सैट में सुना जा सकता है। इस आवाज को कमजोर विद्युत् धारा की तरंगों में परिवर्तित किया जा सकता है। इसका अध्ययन करने के लिए अंटार्कटिका पेनीनसुल में 100 किलोवाट का एक शक्तिशाली ट्राँसमीटर स्थापित किया गया है। यह ट्राँसमीटर प्लाज्मा पाँज (स्थिति) पर स्थापित है, जो कि मैग्नेटोस्फीयर का महत्त्वपूर्ण गोलार्द्ध है। इसके लिए एक स्टेशन का भी निर्माण किया गया है। इसका संबंध गिराडेवीले, ला टेक लेक मिस्टासिनी, क्यूबेक, कनाडा, पिट्सवर्ग, डरहम, न्यूहैम्पशायर तथा अमेरिका से है।

धरती के उस स्थान पर जहाँ तीव्र विद्युत् आँधी आती है एवं तेज बिजली तड़कती है, वहाँ पर यह संकेत अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट जल्दी-जल्दी आता है। रात्रि में आयनोस्फियर की सक्रियता बढ़ जाने पर भी इसे साफ सुना जा सकता है। दिन में यह कम सुनाई देती है। इसकी सर्वाधिक तीव्रता 50 भू-चुँबकीय अक्षाँश में होती है। ध्रुवीय प्रदेश में इसका संकेत नहीं उतरता है। अपने देश में गुलमर्ग एवं नैनीताल में इस सुपर नेचुरल आवाज को रिकॉर्ड किया गया है। इसे जानने के लिए बैंगुआई-द्बद्बद्ब उपग्रह (1962) द्वारा आयनमंडल में परिष्कृत किया गया। उपग्रह वायोजन द्ब एवं द्बद्ब के रिकॉर्ड से पता चलता है कि यह सुपर नेचुरल तरंग बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेपच्यून के मैग्नेसेस्फीयर में भी विद्यमान है।

इस प्रकार अरोरा की प्रकाशमय छटा तथा व्हीशलर रूपी विचित्र आवाज प्रकृति की अद्भुत रचना है। ऐसे ही न जाने कितने रहस्य इसकी पिटारी में छुपे पड़े हैं। प्रकृति को माता मानकर ही इसके आँचल में समाए अगणित रहस्यों एवं आश्चर्यों को निहारा जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118