किसान और उसकी पत्नी साथ-साथ खेत पर जा रहे थे। पत्नी राजमहल की शोभा देखती पीछे रह गई।
किसान ने पुकार, “व्यर्थ क्यों समय खराब करती हो? इस महल से तो हमारा महल सौ गुना अच्छा है।” राजा ऊपर बैठा यह वार्त्तालाप सुन रहा था। उसने बुलाकर पूछा, “भला तुम्हारा महल कहाँ है?”
किसान ने कहा, “हरे-भरे खेतों का फला-फूला क्षेत्र ही हमारा महल है, जिससे असंख्यों का पेट भरता है, आपके महल में वह विशेषता कहाँ है?” राजा नतमस्तक हो गया।
तथागत उन दिनों श्रावस्ती विहार में थे। जैतवन की व्यवस्था अनाथ पिंडक सँभालते थे। दक्षिण क्षेत्र की प्रव्रज्या से दास चीरित्र वापस लौटे और बड़े विहार जैतवन में जा पहुँचे।
दास चीरित्र की भाव-भंगिमा और विधि-व्यवस्था वैसी नहीं रह गई थी, जैसी कि जाते समय उन्हें अभ्यास कराया गया था। वे जहाँ भी गए बुद्ध की गरिमा और उनकी प्रतिभा का सम्मिश्रण चमत्कार दिखाता रहा। सम्मान बरसा, धन बरसा, प्रशंसा हुई, आतिथ्य की कमी न रही।
अनाथ पिंडक ने पहले दिन तो आतिथ्य किया और दूसरे दिन हाथ में कुल्हाड़ी थमा दी, जंगल से ईंधन काट लाने के लिए। सभी आश्रमवासियों के दैनिक जीवन को कठोर श्रम से सँजोना पड़ता था। अपवाद मात्र रोगी या असमर्थ ही हो सकते थे।
दास चीरित्र इतना सम्मान पाकर लौटे थे कि वे अपने को दूसरे अर्हत के रूप में प्रसिद्ध करते थे। कुल्हाड़ी उन्होंने एक कोने में रख दी। मुँह लटकाकर बैठ गए। श्रमिकों जैसा काम करना अब उन्हें भारी पड़ रहा था। यों आरंभ के साधनाकाल में यह अनुशासन उन्हें कूट-कूटकर सिखाया गया था।
अनाथ पिंडक उस दिन तो चुप रहे। दूसरे दिन कहा, “अर्हत को तथागत के पास रहना चाहिए। यहाँ तो हम सभी श्रावक मात्र हैं।”
दास चीरित्र चल पड़े और श्रावस्ती पहुँचे। विहार में तथागत उपस्थित न थे। वे भिक्षाटन के लिए स्वयं गए हुए थे। तीसरे प्रहर लौटने की बात सुनकर उनको अधीरता भी हुई और आश्चर्य भी। इतने बड़े संघ के अधिपति द्वार-द्वार पर भटकें और भिक्षाटन से मान घटाएँ, यह उचित कैसे समझा जाए?
बेचैनी ने उन्हें प्रतीक्षा न करने दी और वहाँ पहुँचे जहाँ तथागत भिक्षाटन कर रहे थे, साथ ही मार्ग में पड़े उपले भी दूसरी झोली में रख रहे थे, ताकि आश्रम के चूल्हे में उनका उपयोग हो सके।
अभिवादन उपचार पूरा भी न हो पाया था कि मन को जानने वाले बुद्ध ने दास चीरित्र से कहा, “अर्हत ही बनना हो तो अहंता गलानी और छोटे श्रम को भी गरिमा प्रदान करनी चाहिए। इसके बिना 222 बढ़ेगा और सत्य पाने का मध्याँतर बढ़ेगा।” समाधान हो गया। अहंता गली और श्रावक-व्रत फिर से निखर आया।