चट्टान रास्ते में बैठी थी। नदी का प्रवाह रोकर बोली, “बहन! थोड़ी देर सुस्ता लो, यह दुनिया कृतघ्नों से भरी है। तुम्हारी उदार तत्परता की कोई सराहना तक नहीं करेगा।”
नदी ने चट्टान की सद्भावना को सराहा तो, पर रुकी नहीं। बोली, “इस कार्य में जो आत्मसंतोष मिलता है, वही क्या कम है, जो लोगों की कृतज्ञता-कृतघ्नता को देखने का प्रयत्न करूं?”
ठीक ही है, प्रतिदान की अपेक्षा सामान्य जन करते हैं, तत्पुरुषों को केवल अपने लक्ष्य पर बढ़ना आता है। दुःख उठाकर भी सुख देने में उन्हें रस आता है।
टंकारा, गुजरात में जन्मे मूलशंकर अधिक विद्या प्राप्त करने की दृष्टि से घर छोड़कर मथुरा चल दिए। यहाँ स्वामी विरजानंद की पाठशाला में उन्होंने संस्कृत भाषा तथा वेदों का गहन अध्ययन किया।
अन्य विद्यार्थी तो पढ़-लिखकर अपना पेट पालने चल देते हैं, गुरु को एक प्रकार से भूल ही जाते हैं। मूलशंकर उनमें से न थे। उन्होंने विरजानंद से गुरुदक्षिणा के लिए निवेदन किया। गुरु ने उनसे वेद-धर्म का प्रसार करने में, प्रचलित पाखंड के उन्मूलन में जीवन लगा देने की याचना की। सच्चे शिष्य ने तत्काल संन्यास ले लिया और उनका नाम स्वामी दयानंद रखा गया। वे गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए देशव्यापी भ्रमण पर निकल पड़े। कुछ समय उन्होंने हिमालय गंगा तट पर तप किया और नया आत्मबल संचित करके अपने काम में जुट गए।
उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नाम का प्रख्यात ग्रंथ लिखा। वेद भाष्य किया और अनवरत प्रव्रज्या में जुटे रहे। उनके प्रयास से एक बड़ा आँदोलन खड़ा हो गया, जिसने हिंदू धर्म के पुरातन स्वरूप से जन-जन को अवगत कराया। आर्य समाज की खदान में से बहुमूल्य मणि-माणिक्य निकले, जिनकी कृतियों को कभी भुलाया न जा सकेगा।