देवताओं और दनुजों में घमासान युद्ध हुआ। विलासी देवताओं को हारकर भागना पड़ा। पराक्रम में निरत दनुज जीत गए। देवता प्रजापति के पास पहुँचे। उन्होंने संयम के अभाव को पराजय का कारण बताया और कहा, “मनुष्यों में एक तप, तेज का धनी मुचकुँद है। अपना सेनापति उसे बनाओ और विजय पाओ।” ऐसा ही किया गया। देवताओं की सेना जीत गई और विजयी मुचकुँद को स्वर्ग ले गई।
देव समुदाय के बीच वह अपने पराक्रम की डींग हाँकने लगा और पग-पग पर अपने अहंकार का परिचय देने लगा।
दनुजों का दूसरा आक्रमण हुआ। मुचकुँद दर्प और अहंकार के वशीभूत होकर अपनी वरिष्ठता गँवा चुका था। अब उससे पहले जैसा पराक्रम नहीं बन पड़ रहा था, तब कार्तिकेय को बुलाया गया। उसने विजय पाई। इंद्र ने मुचकुँद को वापस धरती पर भेज दिया और कहा, “अहंकार दोष से मुक्ति पाने का तप करो। उसके बिना समस्त वैभव अधूरे हैं।”
शिवजी ने संस्कारित व्यक्तियों की ही भस्म खोजकर लाने के लिए एक स्नेह पात्र गण को नियुक्त किया। वह निष्ठापूर्वक अपना कार्य समय पर पूरा करने लगा।
एक बार उसने कहा, “प्रभु आपके भक्त अधिकाँश आप जैसे अलमस्त फक्कड़ होते हैं। कई बार उनके दाह की भी व्यवस्था नहीं जुट पाती। उनका दाह करने के लिए ईंधन जुटाने, भस्म प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है।” शिवजी ने उसकी निष्ठा से प्रसन्न होकर वरदान दिया। कहा, “परेशान मत हुआ करो। अबसे उसके ऊपर अपना दाहिना हाथ कर दिया करो, वह भस्म हो जाया करेगा।”
वरदान ने काम को सुगम बना दिया। एक बार आत्मरक्षार्थ उस शक्ति का प्रयोग किया, तो वह क्रम चल पड़ा। शक्ति का घमंड उभरा और वासनापूर्ति के लिए भी उसका प्रयोग होने लगा। निर्धारित कर्त्तव्य के लिए दी गई शक्ति अकर्त्तव्य में लगाने से वह असुर कहलाया और स्वयं अपने सिर पर हाथ रखने के कारण भस्मीभूत हो गया। यदि कर्त्तव्य की मर्यादा में ही वह वरदान का उपयोग करता, तो शिव के स्नेह और संस्कार के यश का भागीदार बनता।
बंधुवर पुष्प! लो सवेरा हुआ, माली इधर ही आ रहा है, अपनी सज्जनता, सौम्यता तथा उपकार की सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। तात् ! यदि मेरी सीख मानते और कठोरता व कुटिलता का आश्रय ग्रहण किए रहते, तो आज यह नौबत नहीं आती।
फूल कुछ बोला नहीं, उसकी स्मित और भी मोहक हो उठी। माली आया, उसने फूल को तोड़ा और डलिया में रखा। काँटा दर्प से हँसा, माली की वृद्ध उँगलियों में चुभा और अहंकार में ऐंठ गया। माली उसे गालियाँ बकता हुआ वापस लौट गया।
समय बीता। एक दिन देवमंदिर में चढ़ाए उस फूल की सूखी काया को उठाकर कोई उसी वृक्ष की जड़ों के पास डाल गया। काँटे ने म्लान मुख सुमन को देखा, तो हँसा और बोला, “कहो तात् ! अब तो समझ गए कि परोपकारी होना अपनी ही दुर्गति कराना है।”
फूल की आत्मा बोली, “बंधु यह तुम्हारा अपना विश्वास है। शरीरों में चुभकर दूसरों की आत्मा को कष्ट पहुँचाने के पाप के अतिरिक्त तुम अपयश के भी भागी बने। अंत तो सभी का सुनिश्चित है, किंतु अपने प्राणों को देवत्व में परिणत करने और संसार को प्रसन्नता प्रदान करने का जो श्रेय मुझे मिला, तुम उससे सदैव के लिए वंचित रह गए। मैं हर दृष्टि से फायदे में हूँ और तुम घाटे में।”