काल-मान, काल-गणना एवं काल-बोध

July 2001

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काल शब्द की निष्पत्ति कल् धातु से हुई है। इसका अर्थ है गणना। समय का वह निश्चित भाग, जो गणना के लिए व्यवहृत होता है, काल कहलाता है। सभी भूतों को अपने में कवलित करने के कारण भी इसे काल कहते हैं। काल में कलाओं का संयोग होता है। पाणिनि के अनुसार, जिसमें मूर्तियों की वृद्धि एवं ह्रास प्रतीत हो उसे काल कहते हैं। सुश्रुत में काल की सटीक परिभाषा मिलती है। यहाँ इसे आदि, मध्य, अंत से रहित, मधुरसादि छह रसों की विस्मृति, संपत्ति का कारण, अपनी सूक्ष्म कला तक भी न ठहरने वाला कहा गया है। प्राणियों को सुख-दुःख के साथ संयोग-वियोग कराने अथवा प्राणियों के संहार के कारण भी इसे काल कहते हैं।

काल के पर्याय हैं दृष्ट, अनेहा और समय। ऋग्वेद में सर्वप्रथम इसका उल्लेख समय-बोध के लिए प्रयुक्त एक अभिधान के रूप में हुआ है। अथर्ववेद में इसके दार्शनिक रूप से संबंधित दो सूक्त हैं। शतपथ ब्राह्मण में समय सूचक अर्थ में काल का निरूपण मिलता है। वैदिक वाङ्मय में काल के दो स्वरूप हैं, प्रथम दैवी या दार्शनिक रूप, जिसे अमूर्त काल कहा गया है। दूसरा लोकगणना के लिए प्रयुक्त होता है। अथर्ववेद के काल सूक्त में अमूर्त काल का विस्तृत वर्णन हुआ है। इस सूक्त में इसे अश्व के रूप में प्रतिपादित करते हुए विश्व का नियामक कहा गया है।

अथर्ववेद के अनुसार काल का रूप है अश्व। यह सप्तरश्मियों से युक्त, सहस्राक्ष, अजर एवं प्रचुर रेतस् वाला है। इसी ने भुवन बनाया है। यही संपूर्ण विश्व के चारों ओर घूमता है। यही सबका पिता है एवं यही पुत्र बनाता है। इसी द्युलोक और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। इसी में तीनों काल भूत, वर्तमान और भविष्यत् समाहित हैं। काल में सूर्य तपता है। यही दृग की दृष्टि है। इसी में मन, प्राण एवं नाम समाहित हैं। यही सबका ईश्वर और प्रजापति है। इस काल ने ही प्रजाओं का सृजन किया। प्रारंभ में इसने प्रजापति को बनाया। स्वयंभू कश्यप और तपस इससे उत्पन्न हुए। इसमें ही आपः तपस, दिशाएँ, सूर्य, वायु, पृथ्वी, ऋक् यजुष, यज्ञ, अप्सरा, गंधर्व एवं लोकादि प्रतिष्ठित हैं। काल में ही यम, अंगिरा, देव एवं अथर्वण सन्निहित हैं। लोक-परलोक, पुण्य लोक एवं सभी लोकों को जीतकर यह काल परम देवत्व को प्राप्त कर रहा है।

वैदिक युग में काल का समय-बोध के सामान्य पर्याय के रूप में प्रयोग मिलता है। इसके अतिरिक्त उस युग में काल का दार्शनिक रूप अधिक व्यापक हो गया था। उपनिषद् काल में इसका और भी विस्तार मिलता है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् में काल को जगत् का कारण बताया गया है। मैत्रायणी उपनिषद् की मान्यता है कि काल से ही भूतों का जन्म होता है। इसी से वृद्धि होती है एवं इसी में विलय हो जाता है। इसके अनुसार काल मूर्त एवं अमूर्त दोनों प्रकार का होता है।

महाभारत में काल के संहारक स्वरूप का संकेत मिलता है। मनुस्मृति के अनुसार काल एवं कालखंड परमात्मा द्वारा उत्पन्न होते हैं। गीता में भगवान् कृष्ण ने स्वयं को लोकों को क्षय करने वाला काल बताया है। पुराणों में काल के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन मिलता है। वायुपुराण में इसे चतुमूर्ति, चार मुख एवं चार द्रष्टा वाला कहा गया है। यह लोकों के संरक्षण के लिए सबका अतिक्रमण कर सकता है। इसके लिए कोई वस्तु असाध्य नहीं है। यही भूतों का जन्मदाता एवं संहारकर्त्ता है। सभी भूत काल के वशीभूत हैं। काल किसी के वश में नहीं है। कूर्म एवं विष्णु धर्मोत्तर पुराणों में कालरूपी परमात्मा को अनादि, अनंत, अजर एवं अमर बताया गया है। यही महेश्वर है। वैशेषिक सूत्र, योग सूत्र, न्याय सूत्र एवं न्याय मंजरी के पदार्थ निरूपण प्रसंग में भी काल की विवेचना हुई है। बौद्ध मत में काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यदि काल आदि-अंत से रहित है, तो उसमें निकट और दूर का भेद संभव नहीं है। अतः बौद्ध मान्यता के अनुसार काल कोई वस्तु नहीं, बल्कि एक विचार है। जैन दर्शन में काल छह पदार्थों में से एक है।

मैत्रायणी उपनिषद् में ब्रह्म के दो रूप मिलते हैं, अकाल और काल। जो सूर्य से परे है उसे अकाल एवं जो सूर्य से संबंधित है, उसे काल की मान्यता प्रदान की गई है। काल से लोक व्यवहार परिचालित होता है। इसे सूक्ष्म एवं स्थूल अथवा मूर्त एवं अमूर्त में विभाजित किया गया है। यही भेद तैत्तिरीयारण्यक में अणु एवं महत् नाम से जाना जाता है। श्रीमद्भागवत् में भी यही स्वरूप मिलता है। काल का व्यवहृत प्राणस्वरूप मूर्त है एवं त्रुटि आदि अव्यवहार्य रूप अमूर्त काल कहे गए हैं।

जैन ग्रंथ जंबूद्वीप पण्णति में व्यवहार एवं परमार्थ के रूप में काल के दो भेद बताए गए हैं। व्यवहार काल मनुष्य लोक में, परमार्थ काल सर्वलोक में प्रचलित है। दूसरा भेद संख्येय एवं असंख्येय है। गणना के योग्य काल को संख्येय एवं गणना से रहित असंख्येय काल होता है। ये दोनों मूर्त एवं अमूर्त के समान ही हैं। इनकी उत्पत्ति सूर्य से हुई है। संख्येय और असंख्येय काल कर्मभूमि में सूर्य की गति से देखा जाता है। सूर्य की गति विशेष से ही निमेष, काष्ठा, कला, युग आदि की जानकारी मिलती है।

वैदिक काल में काल के विभिन्न सूक्ष्म अवयवों का प्रचलन प्रारंभ हो चुका था। उन दिनों मुहूर्तों से लेकर युगों तक के काल-मान प्रचलित थे। व्यावहारिक काल की सूक्ष्मतम एवं वृहत्तम सीमाएँ अणु, परमाणु एवं निमेष से लेकर द्विपरार्द्ध तक पहुँच गई थीं। इसे परम और महान् काल भी कहा गया है। निमेष से वत्सरपर्यंत यह काल की एक इकाई थी। इसका वर्णन वैदिक काल से लेकर कौटिल्य काल तक मिलता है। युगों की इकाई भी इस काल तक विकसित हो चुकी थी। परंतु इसका सुनिश्चित मान तय नहीं हुआ था। वाजसनेयी संहिता में निमेष नामक काल-मान का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में मुहूर्त, क्षिप्त, एतर्हि, इदानीम, नदानीम, उच्छ्वास, प्रश्वास, निमेष आदि का संकेत है। वृहदारण्यक में निमेष, मुहूर्त, अहोरात्र, अर्द्धमास, मास, ऋतु एवं संवत्सर नामक काल-मान उल्लिखित हैं। महाभारत में क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, अर्द्धमास, मास, ऋतु संवत्सर और युग का जिक्र मिलता है। कौटिल्य ने कालखंडों को त्रुट, लव, निमेष, काष्ठा, कला, नाडिका, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर एवं युग में विभाजित किया है।

पुराणों में ब्रह्मा द्वारा लव, काष्ठा, कला, मुहूर्त, रात-दिन, संधि, अर्द्धमास, अयन और युगों वाली युगावस्था का उल्लेख हुआ है। काल-गणना की दूसरी वृहत्तम इकाई पुराणों एवं ज्योतिष सिद्धाँतक ग्रंथों में और वृहत्संहिता के वैशेषिक सूत्र के प्रशस्तपाद भाष्य में युग, मन्वंतर, कल्प एवं प्रलय आदि रूपों में वर्णन वर्णित हुआ है। पुराणों एवं 222 ग्रंथों में युग का मान मिलता है। इसकी विशेषता है 222 और कल्प संबंधी व्यवस्था। इस व्यवस्था को 222 के सिद्धाँत ग्रंथों में भी अपनाया गया है।

पौराणिक युग में काल के दो भेद माने गए थे, सूक्ष्म और स्थूल। वायु और भागवत् पुराण में काल के दो अवयवों का चित्रण दो विशिष्ट परंपराओं में प्राप्त होता है। वायु पुराण के अनुसार निमेष काल की सबसे छोटी इकाई है, भागवत् पुराण में निमेष से भी सूक्ष्म काल के लव, वेद, त्रुटि, तसरेण, अणु और परमाणु आदि का उल्लेख है। 15 निमेष-1 काष्ठा, 30 काष्ठा-1 कला, 30 कला-1 मुहूर्त और 30 मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है। सुश्रुत के अनुसार 15 अहोरात्र-एक पक्ष, दो पक्ष-एक मास, 12 मास-एक संवत्सर, छह मास-एक अयन, 2 अयन-एक संवत्सर, 5 संवत्सर-एक युग का होता है।

मानव काल-गणना का एक माह पितरों के एक अहोरात्र के बराबर होता है। तीस मानव मासों का एक पितृमास एवं 360 मानस मासों का एक पितृ संवत्सर होता है। मनुष्य के 100 वर्ष पितरों के लगभग साढ़े तीन वर्ष के बराबर होते हैं। मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात कहा गया है। उत्तरायण देवों का दिन और दक्षिणायन उनकी रात्रि होती है। 360 मानव वर्षों का एक दिव्य संवत्सर (देव वर्ष) माना गया है। 3030 वर्षों का एक सप्तर्षिवत्सर कहा गया है। 9090 वर्षों का एक क्रौंचवत्सर होता है।

भारतीय संस्कृति में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग चार युगों की मान्यता है। 12 हजार दिव्य वर्षों या 4320000 का एक चतुर्युग बताया गया है। मार्कंडेय एवं विष्णु पुराण के अनुसार काल की एक इकाई होती है, जिसका मान 71 चतुर्युगों के बराबर होता है। मत्स्य पुराण में 14 मन्वंतरों कल्प का उल्लेख है। विष्णु पुराण में 14 मनुओं की विवेचना है, स्वायंभु, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णिक, दक्षसावर्णिक, ब्रह्मसावर्णिक, रुचि एवं भौम। प्रथम छह मनु व्यतीत हो चुके हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु चल रहा है। आठवें से 14वें तक भविष्य के मनु हैं। एक ब्रह्म कल्प में 14 मन्वंतर होते हैं। विभिन्न पुराणों में इसके वर्षों में अंतर मिलता है।

ऋग्वेद में कल्प शब्द का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों में भी इसका जिक्र हुआ है। अशोक के चतुर्थ (गिरनार एवं काल सी) एवं पंचम (शाहबाज गढ़ी एवं मनसेरा) शिलालेखों में कल्प प्रतिसर्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दी में कल्प का प्रचलन हो चुका था। बौद्धों में भी इसका संकेत मिलता है।

वायु पुराण के अनुसार एक कल्प में एक हजार चतुर्युग होता है। सूर्य के सिद्धाँत में कल्प को ब्रह्मा का दिन माना गया है। एक सहस्र कल्पों का ब्रह्मा का एक वर्ष होता है। वायु पुराण में ब्रह्मा के बीते हुए 28 कल्पों का वर्णन मिलता है। वर्तमान में श्वेतवाराहकल्प चल रहा है। ब्रह्मवैवर्त में 3, मत्स्य पुराण में 31 और ब्रह्माँड पुराण में 35 कल्पों का उल्लेख हुआ है।

ब्रह्मा की आयु दो परार्द्ध होती है। ब्रह्माँड पुराण परार्द्ध की संख्या का निरूपण करता है। एक, दश, शत्, सहस्र, अयुत (दश सहस्र), नियुत् (एक शत सहस्र), प्रयुत (दश शत सहस्र), कोटि (दश सहस्र अयुत), अर्बुद (दश कोटि), अब्ज (एक सौ कोटि), खर्ब (एक सहस्र कोटि), निखर्ब (दस कोटि सहस्र), 222 (एक सहस्र कोटि), पद्म (सहस्र सहस्र कोटि), समुद्र (सहस्र सहस्र दश कोटि), अन्त्य (कोटि सहस्र नियुत्), मध्य (कोटि सहस्र प्रयुत्), परार्द्ध (कोटि सहस्र कोटि)। परार्द्ध का दुगना ‘पर’ कहा गया है। परार्द्ध की यह संख्या यजुर्वेद में भी मिलती है।

ज्योतिष संहिताओं एवं सिद्धाँत ग्रंथों के अनुसार नौ प्रकार के काल-मान होते हैं। कहीं-कहीं चार और पाँच प्रकार के काल-मानों का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मा से संबंधी काल-मान को ब्रह्म-मान कहा जाता है। बारह मासों का एक देव मान होता है। 30 तिथियों का एक चंद्र-मान होता है। यह पितरों के एक दिन के बराबर है। इसमें कृष्णपक्ष का दिन भाग एवं शुक्ल पक्ष का राशि भाग होता है। मन्वंतर व्यवस्था संबंधी काल-मान ही प्राजापत्यमान है। जो चारों युगों का 71 गुना कहा गया है। मध्यम गति से एक राशि में गुरु को जितना समय लगता है, उसे गौर वर्ष कहते हैं। सूर्य द्वारा एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश काल को एक सौर मास कहा जाता है। यह सामान्यतया 365 दिन का होता है।

भास्कराचार्य के अनुसार वर्ष, अयन, ऋतु, युग आदि का सौर से, मास एवं तिथियों का चंद्र-मान से, कृच्छ, सूतक, चिकित्सा, वासर आदि का विचार सावन-मान से और दिनों का घटिकादिक दिन मान नक्षत्र-मान से किया जाता है। इस प्रकार उक्त नौ प्रकार के मानों में मुख्यतः सौर, सावन, चंद्र और नक्षत्र आदि चार मानों का व्यवहार मिलता है। वेदाँग ज्योतिष एवं कौटिल्य ने भी इन मानों का उल्लेख किया है। इन्हीं से जीवन की गति-प्रगति होती रही है। ठीक भी है, यदि काल-गणना ही न हो तो भला जीवन को कौन गतिशील बनाए?


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