गुरुपूर्णिमा संदर्भ-3 - सद्गुरु के सदकै करूं, दिल अपणी का साछ

July 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“गुरुदेव को तीन अभिभावकों के तीन अनुदान उपलब्ध होते रहे हैं। हिमालय पिता से प्रखर व्यक्तित्व, मार्गदर्शक गुरु से लोकमंगल के लिए अभीष्ट सामर्थ्य। गायत्री माता से देवत्व युक्त ब्रह्मवर्चस्। यह तीनों ही उनकी उधार ली हुई अनुदान में प्राप्त विभूतियाँ हैं। वे इस शर्त पर मिली हैं कि उनका एक-एक कण भी अपने लोभ-मोह के लिए स्वार्थ-साधन के लिए खरच न किया जाए एवं उन्होंने इस प्रतिबंध का सदा पूरा-पूरा ध्यान रखा है।” ये पंक्तियाँ हैं फरवरी 1972 की अखण्ड ज्योति की ‘अपनों से अपनी बात’ की। लेखिका हैं परमवंदनीया माताजी। एक सच्ची शिष्या, आराधिका के रूप में उन्होंने अपनी गुरुसत्ता के सौंपे हर दायित्व को सँभाला। यहाँ वे गुरुदेव के तीन संरक्षक-अभिभावक के बारे में लिख रही हैं कि जो भी कुछ वे कर पाए, इसी समर्पण के बल पर। मिले अनुदान का एक कण भी निज पर नहीं, परहितार्थाय खरच करना। यह कार्य उन्होंने जीवनभर किया, यह उनके जीवन वृत्त से जाना जा सकता है।

स्वयं परमपूज्य गुरुदेव अपनी उपलब्धियों का सारा श्रेय अपनी गुरुसत्ता को ही देते थे। अपने हाथ से अपनी आत्मकथा उन्होंने अप्रैल 1985 में लिखी थी व इसे उस माह के जीवन वृत्ताँत विशेषाँक के रूप में प्रकाशित किया। इसके कई उद्धरण पढ़ने-समझने योग्य हैं। किसी भी आदर्श शिष्य के अंदर गुरु के प्रति क्या भाव होना चाहिए, इसका संकेत इनसे मिलता है। बाद में ये सभी अंश थोड़े संपादित होकर ‘हमारी वसीयत और विरासत’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह पुस्तक जन-जन तक लोकप्रिय हुई है। इसमें वे लिखते हैं, “उस दिन (वसंत पर्व 1926) हमने सच्चे मन से उन्हें समर्पण किया। वाणी ने नहीं, आत्मा ने कहा, जो कुछ पास में है, आपके निमित्त ही अर्पण। भगवान् को हमने देखा नहीं, पर वह जो कल्याण कर सकता था, वही आप भी कर रहे हैं। इसलिए आप हमारे भगवान् हैं। जो आज सारे जीवन का ढाँचा आपने बताया है, उसमें राई-रत्ती प्रमाद न होगा।” (पृष्ठ 5, अप्रैल 1985 अखण्ड ज्योति) आगे वे लिखते हैं, “नंदन वन पहुँचते ही गुरुदेव का सूक्ष्मशरीर प्रत्यक्षतः सामने विद्यमान था। उनके प्रकट होते ही हमारी भावनाएँ उमड़ पड़ीं। आँखें बरस पड़ीं। होंठ काँपते रहे। नाक गीली होती रही। ऐसा लगता था मानो अपने ही शरीर का कोई खोया अंग फिर मिल गया हो और उसके अभाव में जो अपूर्णता रहती हो सो पूर्ण हो गई हो। उनका सिर पर हाथ रख देना हमारे प्रति अगाध प्रेम के प्रकटीकरण का प्रतीक था।” (पृष्ठ 34, अप्रैल 1985 अखण्ड ज्योति)

एक शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण क्या व कैसा होता है, इसकी बानगी देते हैं ये शब्द। जीवनभर परमपूज्य गुरुदेव अपनी इस परोक्ष सूक्ष्मशरीरधारी सत्ता से मिले अनुदानों की ही चर्चा करते रहे। चाहे साठ के दशक की अखण्ड ज्योति हो या सत्तर के दशक की। दो या तीन अंक छोड़कर स्थान-स्थान पर उनके समर्पण भाव की अभिव्यक्ति पाठक को दृष्टिगोचर होती है।

अप्रैल 1969 में मथुरा से अपनी विदाई की पूर्व वेला में परमपूज्य गुरुदेव संपादकीय द्वारा अपने शिष्यों-पाठकों की मनोभूमि तैयार कर रहे थे। ‘हमारी प्रेम साधना और उसकी परिणति’ शीर्षक से एक लेख में वे लिखते हैं, “अपने मार्गदर्शक के प्रति हमारी प्रेम साधना को यदि साँसारिक रिश्तों से तोला जाए, तो उसकी उपमा पतिव्रता स्त्री के अनन्य पतिप्रेम से दी जा सकती है। उनकी प्रसन्नता अपनी प्रसन्नता है। उनकी इच्छा अपनी इच्छा।” (पृष्ठ 62, अप्रैल 1969) “परमात्मा का प्रेम अपने विकसित रूप में एक कदम आगे बढ़ते हुए गुरुभक्ति के रूप में फलित हो सका। हमने अपने मार्गदर्शक पर उतनी ही निष्ठा आरोपित की, जितनी परमेश्वर पर की जा सकती है।” (पृष्ठ 61, अप्रैल 1969) “ ईश्वरभक्ति का अभ्यास हमने गुरुभक्ति की प्रयोगशाला में-व्यायामशाला में आरंभ किया और क्रमिक विकास करते हुए प्रभुप्रेम के दंगल में जा पहुँचे।” (पृष्ठ 64, मई 1969)

ये उद्धरण मात्र इसलिए दिए जा रहे हैं कि हम एक सच्चे शिष्य की तरह स्वयं को कसौटी पर कस सकें। समर्पण हो तो किस स्तर का, किस ऊँचाई का। संबंध हो तो कैसा। अति पावन आत्मा से आत्मा का रिश्ता है यह एवं सब कुछ खो देने की भावना से प्यार किया जाता है। बदले में मिलता ही चला जाता है-

कबीरदास जी कहते हैं-

गुरु गोविंद तो एक हैं, दूजा यहु आकार। आपा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार॥

यहाँ ‘आपा’ अर्थात् अहंकार, ‘जीवत मरै’ अर्थात् अपने सामने ही समाप्त कर देना एवं ‘करतार’ अर्थात् परमात्मा है। अर्थात् “गुरु साक्षात् भगवान् ही हैं। गुरु और परमात्मा दोनों मूलतः एक ही सत्ता के दो नाम हैं। केवल आकार या रूप की भिन्नता है। गुरुकृपा से जो जीवित मरता है अर्थात् अपने अहंकार-ममता को समाप्त कर देता है, वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।”

संत कबीर गुरु-शिष्य संबंधों पर अपनी व्याख्या बड़ी स्पष्ट व निराली देते हैं। वे लिखते हैं-

बूड़े थे परि उबरे, गुरु की लहरि चमंकि। भेरा देख्या जरजरा, उतरि पड़ै फरंकि॥

भेरा यानी एक प्रकार की नाव, जरजरा यानी जर्जर, फरंकि यानी फड़ककर-उछलकर।

अर्थात् “मैं पुरानी और जर्जर नाव अर्थात् परंपरागत रूढ़िवादी आचार-विचारों वाली संसार सागर की यात्रा में करीब-करीब डूब चुका था। किंतु सद्गुरु के अनुग्रह भरे वचनों की लहर ने चमक कर मुझे बचा लिया। बस, मैं उछलकर परंपराओं की, रूढ़ियों की नाव से अलग हो गया।”

कितनी सुँदर उलटबाँसी है एवं गुरु से जुड़ने की फलश्रुति है, जो बताती है कि समग्र कायाकल्प कर देती है गुरु से जुड़ने की प्रक्रिया। समर्पण पर ही कबीर की एक और बड़ी प्यारी साखी है।

सद्गुरु के सद्कै करूं, दिल अपणी का साछ। कलियुग हम स्यूँ लड़ि पड्या, मुहकम मेरा बाछ॥

सदकै यानी निछावर, साछ यानी साक्ष्य, मुहकम यानी दृढ़, बाछ यानी आकाँक्षा-वाँछा।

अब अर्थ हुआ, “शिष्य कहता है कि मैं हृदय को साक्षी बनाकर (सच्चे हृदय से) सद्गुरु के प्रति अपने को निछावर करता हूँ। सद्गुरु की कृपा और उनके प्रति मेरा समर्पण देखकर कलियुग (साँसारिक विषय-वासनाएँ) मुझ से लड़ने लगा। वह मुझे गुरु के प्रति समर्पण से विचलित करना चाहता है। किंतु मैं दृढ़ इच्छा वाला हूँ। कलियुग मुझे विचलित नहीं कर सकता।”

आज के इस युग में, कलियुग की पराकाष्ठा के इस जमाने में कितना अद्भुत शिक्षण है। इच्छा दृढ़ हो तो विषय-वासनाओं से लड़ा जा सकता है, समर्पण सच्चा हो तो फिर तारणहार के रूप में गुरु इस घोर कलियुग में भी हमें जरा भी विचलित न होने देकर तार देता है।”

वस्तुतः गुरु कितना भी योग्य हो, समर्थ हो, यदि साधक के, व्यक्ति के अंतराल में शिष्यत्व नहीं है, तो गुरु की योग्यता कारगर न हो सकेगी। गुरु बीज बोता है, खाद-पानी की व्यवस्था करता है, लेकिन भूमि भी तो उर्वर होनी चाहिए, अन्यथा बीजों का ढेर ऊसर बंजर जमीन में यों ही व्यर्थ चला जाता है। हम सभी को बार-बार अपनी पात्रता को परखना चाहिए। परमवंदनीया माताजी ने गुरुसत्ता के प्रति पूर्ण समर्पण किया। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्मशरीरधारी सत्ता को सब कुछ समर्पित कर दिया। बदले में दोनों ने जो पाया, वह हम सबके सामने है। हमें तो पहचानने के लिए, खोजने के लिए पुरुषार्थ करने की भी जरूरत नहीं। सहज ही हमें इस कलियुग में तारणहार के रूप में गुरुसत्ता मिल गई है। संकल्प, धैर्य और श्रद्धा का त्रिविध सुयोग यदि अपनाया जाए, तो मनोभूमि ऐसी बनती है कि अध्यात्म के दिव्य अवतरण को धारण किया जा सके। यह पात्रता ही शिष्यत्व है। समय पात्रता विकसित करने में लगता है, गुरु प्राप्ति में नहीं। जितने भी अनुदानों-लौकिक, पारलौकिक लाभों की चर्चा ग्रंथों में आती है, वह मिथ्या नहीं सत्य है। सही श्रद्धा हो, अपना उद्देश्य पावन हो तो लोकमंगल के लिए ये अनुदान मिलते भी हैं और सदुपयोग किए जाने पर इनको बहुगुणित होते भी देखा जा सकता है। गुरु तो पत्थरों में से हीरे तराशता है, जैसे स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस ने खोज निकाला था। समस्त सिद्धियाँ मिलने का प्रस्ताव सामने होते हुए भी नरेंद्रनाथ (स्वामी विवेकानंद) ने ईश्वरीय प्रेम की ही माँग की थी और वही उन्हें मिली।

कभी-कभी लगता है गुरु बड़े कठोर होते हैं। जिस किसी ने महर्षि दयानंद के गुरु विरजानंद जी के, सद्गुरु श्री विजयकृष्ण गोस्वामी जी के एवं गुरजिएफ के बारे में पढ़ा होगा, वह अवश्य जानता होगा कि वे अपने शिष्यों के प्रति कितने कठोर थे। परंतु वास्तविकता इससे विपरीत थी। इनसे बड़ा प्रेमी तीनों लोकों में भी नहीं मिलेगा। गुरु तो सर्जन है, शल्य-चिकित्सक है। इसे जन्म-जन्माँतरों के कषाय-कल्मष निकाल देने हैं, अपने शिष्य को धो देना है। सद्गुरुदेव के शब्दों में, “मेरे गुरु ने मुझे धोबी की तरह पीट-पीटकर धुला है, धुनिये की तरह धुनाई की है।” कठोरता व इस धुनाई के पीछे भी अनन्य प्रेमभाव है। आज भी सूक्ष्म व कारणशरीर से दानों ही सत्ताएँ शिव और शक्ति के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं। हम अपना प्रेम-समर्पण उनके प्रति और अधिक बढ़ाएँ, उनके बताए मार्ग पर चलकर लोकमंगल में स्वयं को नियोजित कर दें, गुरुपर्व पर यही हमारी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118