अपनों से अपनी बात - हो रहा है ज्ञानयज्ञ का शुभारंभ-मंगलाचरण

July 2001

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परमपूज्य गुरुदेव ने सितंबर 1969 का अखण्ड ज्योति अंक ‘ज्ञानयज्ञ अंक’ के रूप में लिखा। इसके संपादकीय में उन्होंने शीर्षक दिया, ‘अपना ज्ञानयज्ञ भी सफल और संपूर्ण होना चाहिए,। इसमें उन्होंने लिखा, “ अपने 1953 के शतकुँडी नरमेध तथा 1958 के सहस्रकुँडी महायज्ञ होमात्मक आयोजनों की परंपरा में बड़ी शान के साथ संपन्न हो गए। होमात्मक के साथ जपात्मक यज्ञ भी जुड़ा है। आहुतियों से भी कई गुनी संख्या जप की भी संपन्न होती रही है। यहाँ तक कि अपने परिवार द्वारा हर दिन एक चौबीस लक्ष का गायत्री पुरश्चरण संपादित किया जा रहा है। इन दोनों ही स्तर के यज्ञ के साथ हम दूसरा धर्मानुष्ठान ‘ज्ञानयज्ञ’ चलाते रहे हैं। हमारा जीवनक्रम होमात्मक-जपात्मक एवं ज्ञानयज्ञ के इन दोनों पहियों पर ही लुढ़कता आ रहा है। ज्ञान ही है, जो पशु को मनुष्य, मनुष्य को देवता और देवता को भगवान् बनाने में समर्थ होता है। ज्ञान से ही प्रसुप्त मनुष्यता जागती है और वही आत्मा को अज्ञान के अंधकार में भटकने से उबारकर कल्याणकारी प्रकाश की ओर उन्मुख करता है।........ जीवनभर हमने उपासना के समय के अतिरिक्त प्रतिदिन बारह घंटे इस ज्ञानयज्ञ में ही लगाए हैं। विगत 43 वर्षों से हो रही हमारी ज्ञान साधना, जिसमें हमारी दूनी रुचि रही है और दूना श्रम करते रहे हैं, कम ही लोगों की जानकारी में हैं।” (पृष्ठ 57,58)

क्राँतिकारी चिंतन

इसी लेख में पूज्यवर लिखते हैं, “क्राँतिकारी विचार ही मनोभूमियाँ बदलते हैं और बदली हुई मनोभूमि में ही महान् जीवन एवं समर्थ समाज की संभावनाएँ समाविष्ट रहती हैं।” (पृष्ठ 60)। जीवनभर गुरुदेव ने लिख एवं जो भी लिखा उसने लाखों व्यक्तियों के जीवन को बदल दिया। अखण्ड ज्योति पत्रिका (1937 से अभी तक), युगनिर्माण योजना पत्रिका एवं इनके सभी भाषाओं में अनुवादों ने जीवन की हर समस्या को स्पर्श किया एवं सभी के सरल समाधान दिए हैं। मनःस्थिति कैसे बदली जाए, कैसे अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत बनाया जाए, इस पत्रिका के प्रतिपादनों ने इस संबंध में जन-जन का उंगली पकड़ाकर, मार्गदर्शन किया है। यदि गुरुदेव ने लिखा है कि “रोते हुए आँसुओं की स्याही से, जलते हृदय ने इन्हें लिखा है, सो उनका प्रभाव होना ही चाहिए, हो रहा है और होकर रहेगा” (अखण्ड ज्योति अगस्त 1969) तो निश्चित रूप से यह सत्य है।

विगत 64 वर्षों की ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिकाएँ अब उन्हें तो पढ़ने को नहीं मिल सकतीं, जो अभी जुड़े हैं, विगत एक या दो दशक में जुड़े हैं अथवा समय-समय पर संदर्भों को पत्रिका में पढ़ते रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे ग्रंथ भी आज पढ़ने को नहीं मिल सकते, जो पूज्यवर ने 1940 में ‘मैं क्या हूँ’ से आरंभ कर क्राँतिधर्मी साहित्य तक अनवरत जीवनभर लिखे। इनकी संख्या भी प्रायः तीन हजार के आसपास है, जिनमें छोटी पुस्तिकाएँ, ट्रैक्ट्स एवं गायत्री महाविज्ञान, प्रज्ञापुराण जैसे ग्रंथ भी शामिल हैं। कितना ही अच्छा हो कि यही सब एक स्थान पर पढ़ने को मिल जाए। मर्मस्पर्शी ‘अपनों से अपनी बात’ जो आज से पचास वर्ष पूर्व लिखी गई व आज पूर्णतः सत्य सिद्ध हो रही है, यदि आज पढ़ने को मिल जाए, तो कितना अच्छा रहे। यही सभी की इच्छा जानकर परमवंदनीया माताजी की आज्ञानुसार श्रद्धाँजलि समारोह 1990 में एक भागीरथी पुरुषार्थ की शुरुआत की गई, ‘पं. श्रीराम शर्मा आचार्य वाङ्मय’ के रूप में। 1995 की आँवलखेड़ा (आगरा) की प्रथम महापूर्णाहुति में इसका विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जी द्वारा किया गया। जिसने भी इन्हें पढ़ा है, आत्मसात किया है, उसने एक नहीं कई विश्वकोशों को पढ़ने जैसी अनुभूति की है। जहाँ-जहाँ ये पहुँचे हैं, शोधकर्त्ताओं के लिए अमूल्य बन गए हैं। इनके अंश उद्धृत कर सैकड़ों पत्रकारों ने आज के निषेधात्मक उपभोक्तावादी समाज में विधेयात्मक चिंतन को बढ़ावा दिया है।

जीवनभर का मर्म-वाङ्मय

प्राण संजीवनी के रूप में उपलब्ध यह वाङ्मय अब कुछ ही वर्षों में 38 खंड और जुड़कर एक सौ आठ खंडों का अपने समय की एक ऐतिहासिक स्थापना बनकर कीर्तिमान बन जाएगा। इसमें उनके जीवनभर के लिखे, बोले, पत्रों में अभिव्यक्त विचारों का भी संकलन है। एक आलमारी में सजा यह ज्ञानसागर सही अर्थों में परमपूज्य गुरुदेव के साकार विग्रह की, उनके ज्ञानशरीर की घर में स्थापना है। जहाँ यह स्थापित होगा, वहाँ गुरुदेव के अनुदान सहज ही बरसेंगे। लौकिक-परलौकिक दोनों ही दृष्टि से विद्या का यह भाँडागार घर-घर, हर विद्यालय, महाविद्यालय में स्थापित होना ही चाहिए।

ज्ञान केंद्र स्थापित हों

हीरक जयंती के इस वर्ष में इसे अब एक आँदोलन का रूप देकर ‘अखण्ड ज्योति ज्ञान केंद्रों’ की स्थान-स्थान पर स्थापना की बात सबसे कही जा रही है। चूँकि पूज्यवर के विचारों की धुरी ‘अखण्ड ज्योति’ ही रही है, इसीलिए इसे यह नाम दिया है। युग के नवनिर्माण की प्रक्रिया में इन ज्ञान केंद्रों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। परमपूज्य गुरुदेव ने शक्तिपीठों, प्रज्ञा-संस्थानों के निर्माण से भी अधिक महत्त्व इन ज्ञान मंदिरों को दिया है। अपने निज के या समान विचारधारा वाले परिजनों के समूहों की बचत के संग्रह द्वारा इन्हें स्थापित किया जा सकता है। इनकी विधिवत् बिक्री अपने केंद्र से की जा सकती है। इन्हें अस्पतालों, धार्मिक स्थलों, न्यायालयों, कारागारों, संग्रहालयों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, उच्चाधिकारियों, बुद्धिजीवियों के यहाँ एवं श्रीमंतों के प्रतिष्ठानों में स्थापित किया जा सकता है। सामाजिक संगठनों, पंचायतों, प्रशिक्षण संस्थान, लायन्स, रोटरी क्लबों तथा अन्य क्लबों, भारत विकास परिषद्, अन्य स्वैच्छिक संगठनों के ब्लॉक, जिला एवं प्राँतीय कार्यालयों तथा नगरपालिका के पुस्तकालयों में इसे रखा जा सकता है। आवश्यकतानुसार साँसद निधि/विधायक निधि का भी उपयोग किया जा सकता है। सभी से कहा जा सकता है कि किसी को भेंट, पुरस्कार, शील्ड के रूप में यदि वे इन प्राणवान् ग्रंथों को दें, तो वह ज्यादा लोकोपयोगी होगा। विवाहों में भेंट के रूप में वाङ्मय पूरा न सही, एक गंथ तो दिया जा सकता है। आज न जाने कितने दिन प्रचलित हैं, उन दिनों के नामों पर कार्ड्स बाजार में बिकते हैं, जिनका अरबों डालर का बाजार भारत है। यदि नववर्ष, दीपावली, रक्षाबंधन, विजयादशमी, गायत्री जयंती, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी जैसे पावन पर्वों पर कार्ड्स के स्थान पर अपने हितैषी, शुभेच्छुओं, उच्चाधिकारियों को ये भेंट में दिए जाएँ, तो वे दुआ भी देंगे एवं सतत आपको याद करते रहेंगे।

इस हीरक जयंती वर्ष में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका अपने पाठकों को एक उपहार देने जा रही है। यदि वे ‘ज्ञान केंद्र’ स्थापित करेंगे, तो उन्हें पुण्य-परमार्थ का लाभ तो प्राप्त होगा ही, इस विद्या-विस्तार योजना के द्वारा सातों आँदोलनों को गति देने हेतु पर्याप्त व्यवस्था भी जुटा सकेंगे। इसके लिए निम्न नियम व व्यवस्थाएँ बनाई गई हैं।

ज्ञान केंद्रों के नियम-व्यवस्थाएँ

(1) ज्ञान केंद्र संचालन में दैनंदिन व्यय, पूर्णकालिक / आँशिकालिक कार्यकर्त्ताओं के ब्राह्मणोचित जीवन निर्वाह, स्थान का किराया, बिजली, परिवहन, प्रचार−कार्य में जाने के मार्ग व्यय आदि में धन व्यय होगा। विशिष्ट प्रतिभाओं को साहित्य भेंट करने होंगे, आयोजनों में पुरस्कार वितरण भी होंगे। ज्ञानरथ, होर्डिंग, दीवाल लेखन आदि की भी आवश्यकता पड़ेगी। किसी भी प्रकार घाटा उठाते हुए संस्थान इन व्ययों को वहन करने के लिए विशेष प्रावधान कर रहा है, जिससे इन ज्ञान केंद्रों का संचालन सफलतापूर्वक हो सके, इसके अंतर्गत वाङ्मय के प्रत्येक 10,000 (100 खंड) रुपये के ऑर्डर पर बीस वाङ्मय के खंड अतिरिक्त अथवा 2500 रुपये के बराबर (मुद्रित) मूल्य का अखण्ड ज्योति संस्थान द्वारा प्रकाशित/प्रचारित साहित्य या सामग्री दी जाएगी। यह सुविधा तभी संभव होगी, जब ऑर्डर के साथ पूरी राशि अग्रिम ड्राफ्ट द्वारा भेजी जाए।

(2) प्रत्येक केंद्र को पंजीकरण कराना आवश्यक होगा। इसका शुल्क (धरोहर राशि) 1000 रुपये है, जो कभी भी वापस लिया जा सकता है। इसका नवीनीकरण प्रति दो वर्षों में कराना होगा।

(3) ऑर्डर्स 10,000 रुपये से कम के न हों।

(4) ट्राँसपोर्ट/रेलवे भाड़ा अखण्ड ज्योति संस्थान वहन करेगा।

(5) पूरे 70 खंड के वाङ्मय का एक सेट सभी ज्ञान केंद्र 7000/ मूल्य में बेचेंगे। अलग-अलग खंडों की बिक्री करनी हो तो उन्हें 125 रुपये प्रति खंड बेचा जा सकता है। समय-समय पर विक्रयनीति घोषित की जाती रहेगी। सरकारी एवं अन्य संस्थानों के लिए निर्धारित रीति-नीति का पालन सभी को करना होगा।

(6) केंद्र की स्थापना, संचालन या पूँजी जुटाने हेतु किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष दान नहीं लेंगे, न ही ज्ञान केंद्र के नाम पर दान/सहयोग की रसीद छपाएँगे। ज्ञान केंद्र के सदस्य ही पूँजी मिल-जुलकर इकट्ठी करेंगे।

(7) यह योजना ‘अखण्ड ज्योति’ एवं ‘वाङ्मय’ के घर-घर प्रचार-प्रसार की दृष्टि से आरंभ की गई है एवं घाटा उठाकर इसे हाथ में लिया गया है। इसे मिशनरी भाव से ही संपन्न किया जाना है।

(8) ‘ज्ञान केंद्र’ केवल अखण्ड ज्योति संस्थान, युग निर्माण योजना, मथुरा एवं शाँतिकुँज, हरिद्वार से प्रकाशित सामग्री के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री नहीं रखेंगे।

(9) अनियमितता होने पर पंजीकरण समाप्त कर दिया जाएगा, तब अखण्ड ज्योति से उनका कोई संबंध न रहेगा।

(10) मिशन की मान्यताओं, आदर्शों के विपरीत आचरण करने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं से कोई संपर्क नहीं रखेंगे। ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे, न ही ऐसी गतिविधियों में संलग्न होंगे, जिससे अखण्ड ज्योति संस्थान, युगनिर्माण योजना, शाँतिकुँज हरिद्वार की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचे।

जो परिजन अखण्ड ज्योति पत्रिका बड़ी तादाद में मँगा रहे हैं, वे निश्चित ही ज्ञान केंद्रों के रूप में अपना पंजीयन करा सकते हैं एवं इस वाङ्मय-गुरुचेतना के विचारों के विस्तार की योजना में भागीदारी कर सकते हैं।

पतन निवारण सर्वश्रेष्ठ सेवा

गुरुसत्ता के विचारों को घर-घर पहुँचाने से बड़ा कोई पुण्य कार्य नहीं है। आज की सबसे बड़ी समस्या है, बुद्धि का दुर्भिज्ञ। सद्बुद्धि के अभाव में, सद्ज्ञान का सान्निध्य न मिल पाने के कारण न जाने कितने सगरपुत्र शापित स्थिति में, विक्षुब्धता की स्थिति में जीवन जी रहे हैं। युग-भगीरथ के रूप में परिजनों को ही उन्हें उस अवस्था से त्राण दिलाने हेतु ज्ञान गंगा धरती पर अवतरित करनी होगी। तभी वे शाप से उबर सकेंगे। सेवाओं में सबसे बड़ी सेवा है, ‘पतन निवारण’। वैचारिक पतन से यदि उबारा जा सके, तो मानव मात्र को ऊँचा उठाया जा सकता है। पीड़ा निवारण की सेवा सामयिक होती है। सुविधा-संवर्द्धन की सेवा से अकर्मण्यता और परावलंबन बढ़ता है। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा कार्य है, लोगों के गिरते विचारों को उठाकर ऊर्ध्वगामी चिंतन विकसित करना, साँस्कृतिक प्रदूषण से भरे इस समाज में श्रेष्ठता के विस्तार की साधना संपन्न करना।

परमपूज्य गुरुदेव ने अपने ज्ञानयज्ञ विशेषाँक (अखण्ड ज्योति सितंबर 1969) में लिखा है, “अगले दिनों संसार का समग्र परिवर्तन कर देने वाला एक भयंकर तूफान विद्युत् गति से आगे बढ़ता चला आ रहा है, जो इस सड़ी दुनिया को समर्थ, प्रबुद्ध, स्वस्थ और समुन्नत बनाकर ही शाँत होगा।” आगे वे लिखते हैं, “अगले क्षणों जिस स्वर्णिम उषा का उदय होने वाला है, उसके स्वागत की तैयारी में हमें जुट जाना चाहिए। अपना ज्ञानयज्ञ इसी प्रकार का शुभारंभ-मंगलाचरण है। असुरता का पददलन और मानवता की पुण्य प्रतिष्ठापना का अपना व्रत-संकल्प इसी ईश्वरीय प्रेरणा का प्रति है।”

जून 2001 की अखण्ड ज्योति में विस्तार से ‘पूज्यवर के ज्ञानशरीर को जन-जन तक पहुँचाएँ, शीर्षक से एक लेख दिया गया था। उसके साथ पंजीयन पत्रक भी थे। जो भी ज्ञान केंद्र की स्थापना करना चाहते हों, वे तुरंत उन्हें भरकर धरोहर राशि एवं क्रयादेश के साथ अखण्ड ज्योति संस्थान, घीयामंडी मथुरा’ भेज दें। ज्ञान केंद्र संबंधी सारा पत्राचार इसी पते पर करें।

परमपूज्य गुरुदेव के अदम्य आकाँक्षा एवं मिशनरी भावना से कार्य करने की ललक पैदा करने वाले इन शब्दों के प्रभाव को समझा जा सकता है। ‘अखण्ड ज्योति’ की प्राणचेतना-जीवनमूरि ने ही गायत्री परिवार जैसा विराट् संगठन खड़ा किया है। वे इसी अंक में, इसी लेख में आगे लिखते हैं, “हम भाग्यशाली हैं, जो सस्ते में निपट रहे हैं। असली काम और बढ़े-चढ़े त्याग-बलिदान अगले लोगों को करने पड़ेंगे। अपने जिम्मे ज्ञानयज्ञ का समिधादान और आज्याहुति होम मात्र प्रथम चरण आया है। आकाश छूने वाली लपटों में आहुतियाँ अगले लोग देंगे।” आज बत्तीस वर्ष बाद इस विराट् ज्ञानयज्ञ को भारत व विश्वभर में संपन्न होना है। आइए हम सभी इस हीरक जयंती को ऐतिहासिक बना दें एवं इस ज्ञानयज्ञ में बढ़-चढ़कर आहुतियाँ दें।


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