एक समर्पित स्वयंसेविका

July 2001

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उन दिनों पूरे भारत में सुधारवादी आँदोलन और महिला जागरण का मंत्र फूँका जा रहा था। गाँधी जी का कहना था कि यदि हमें एक-दूसरे को समझना है, संगठित होना है, तो इस बात की परम आवश्यकता है कि सारे देश की भाषा एक हो। क्योंकि देश के अधिकतर लोग हिंदी भाषा को समझते हैं, अतः मैं चाहूँगा कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी व्यक्ति हिंदी पढ़ें और बोलें। उनका भाषण सुनने वालों में वह लड़की भी थी, जिसकी उम्र अभी सिर्फ 10 साल थी। वह आँध्र के काकीनाड़ा नामक स्थान पर रहती थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह महिलाओं और लड़कियों के लिए हिंदी स्कूल खोलेगी और उसने अपने माता-पिता के सहयोग से काकीनाड़ा में हिंदी पाठशाला खोल दी। वह एक ऐसा युग था, जबकि महिलाएँ शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ी हुई थीं। देखते-देखते विद्यार्थियों की संख्या 500 हो गई। उसे और भी कई शिक्षिकाएँ रखनी पड़ीं। आँध्र में खुलने वाली यह पहली हिंदी पाठशाला थी। गाँधी जी को इसकी सूचना भेजी गई। उन्होंने जमनालाल बजाज को इसका निरीक्षण करने के लिए भेजा।

न लाखों की संपत्ति, न विशाल भवन, न आधुनिक सुविधाएँ। गुरुकुल की भाँति पूर्ण भारतीय वातावरण में प्रगति करते हुए इस विद्यालय को देखकर वे दंग रह गए।

इस स्कूल का संस्थापक कौन है? उन्होंने प्रश्न किया। प्रधानाध्यापिका ने फ्राक पहने हुए 10 वर्षीय बालिका की ओर इशारा किया। जमनालाल बजाज कुछ समझ नहीं पाए, किंतु जब उन्हें पूरी बात बताई गई, तो वे चकित और हैरान रह गए।

श्री जमनालाल बजाज के द्वारा यह अविश्वसनीय बात गाँधी जी के कानों तक पहुँची। उस समय आँध्र और दक्षिण के अन्य राज्य बहुत ही पिछड़े हुए समझे जाते थे। काकीनाड़ा जैसे स्थान पर महिलाओं की पाठशाला, वह भी निजी स्तर पर, उसमें 500 विद्यार्थी, यह सब कुछ आश्चर्यचकित करने वाला था। उन्होंने 1921 में अपनी पत्नी श्रीमती कस्तूरबा गाँधी, संत सी.एफ. एंड्रयूज और जमनालाल बजाज के साथ पाठशाला का निरीक्षण किया। वहाँ आकर पता चला कि वह केवल पाठशाला मात्र नहीं थी, अपितु वह तो एक राष्ट्रीय कार्यशाला भी थी। दुर्गा देवी ने अपने आभूषण उतारकर गाँधी जी को भेंट कर दिए। उनकी देखा-देखी अनेक अन्य महिलाओं ने भी ऐसा किया और जली विदेशी वस्त्रों की होली, जिसमें उस छोटी बालिका ने अपने सभी विदेशी फ्राक अग्नि को समर्पित कर दिए।

यही नहीं उसने यह भी घोषणा कर दी कि वह पूर्णतया गाँधी जी को समर्पित है। स्कूल का पूरा काम अपने साथियों को सौंप कर वह गाँधी जी के आश्रम में जाकर रहने लगी। यौवन की दहलीज पर पाँव रखते-रखते न जाने कितनी बार जेल यात्रा की। सन् 1933 में जेल से छूटने के पश्चात् उन्होंने अनुभव किया कि बिना पढ़ाई के राष्ट्रीय कार्य भी सुचारु रूप से नहीं किया जा सकता। उनका जन्म 1909 में हुआ था और इस प्रकार 1933 में जबकि वे जेल से बाहर आईं, उनकी आयु माप 24 वर्ष थी।

इसके बाद वह पढ़ाई हेतु जुट पड़ीं। मैट्रिक, इंटर, बी.ए. तथा लॉ की परीक्षाएँ पास कीं। हिंदी, इंग्लिस, तेलमू तथा अन्य दक्षिणी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने आँध्र महिला सभा का गठन किया और पूरे आँध्र प्रदेश में स्त्री शिक्षा के कार्य को आगे बढ़ाया। इतना ही नहीं वे वकील के रूप में स्त्री अधिकारों के लिए भी लड़ने लगीं। पहले वह फेडरल कोर्ट में एडवोकेट बनीं और बाद में मद्रास लैजिस्लेटिव कौंसिल की सदस्या बनीं। स्वतंत्र भारत में उन्हें राज्यसभा की सदस्या मनोनीत किया गया। सन् 1953 में जब उनकी आयु 44 वर्ष थी, तब वे योजना आयोग की सदस्या थीं, उनका विवाह उस समय केंद्रीय वित्त मंत्री चिंतामणि देशमुख के साथ हुआ। यह दो प्रतिभाओं का अनूठा संगम था। स्वतंत्रता सेनानी और महिला नेता के रूप में तो वे पहले ही बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थीं। उनके दिए हुए इस नारे, “एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है, जबकि एक लड़की की शिक्षा एक पूरे परिवार की शिक्षा है” ने सारे संसार में लोकप्रियता प्राप्त की थी। इस नारी का नाम कितनी संस्थाओं से जुड़ा था, कहना कठिन है। 1956 से 1962 तक वे केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्षा रहीं। 1958 से 1961 तक राष्ट्रीय स्त्री शिक्षा समिति की अध्यक्षा। कौंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट, नारी संरक्षण गृह, आँध्र महिला सभा आदि से भी उनका नाम जुड़ा हुआ था।

सरकारी ढुल-मुल नीतियों और लालफीताशाही प्रशासन से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। बाल्यकाल से ही वे सिद्धाँतों के लिए लड़ती रहीं और जब भी उनकी सैद्धाँतिक निष्ठा पर प्रहार हुआ, उन्होंने बड़ी-से-बड़ी कुर्सी पर लात मार दी। दूसरी पंचवर्षीय योजना में समाज कल्याण के लिए शासन द्वारा पर्याप्त धन न दिए जाने पर उन्होंने बोर्ड के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। नारी शिक्षा के लिए बनी राष्ट्रीय कमेटी की चेयरमेनशिप पर लात मार दी। वह कार्य करने में विश्वास रखती थीं, शासन की जी-हजूरी में नहीं। शासन से अलग होकर वे आँध्र के ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्री व बच्चों के कल्याण कार्यों में जुटी रहीं। सन् 1973 में उन्हें नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया और 1974 में पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। अनथक सेवा करने के परिणामस्वरूप वृद्ध और जर्जर शरीर इतना भार न सँभाल सका और 9 मई 1981 को 72 वर्ष की आयु में उनका देहाँत हो गया।

उनके जीवन ने यह प्रमाणित कर दिया कि नारी यदि अपनी शक्तियों का समुचित सुनियोजन करे, तो वह क्या नहीं कर सकती?


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