पशुता से देवत्व की ओर मनुष्य की यात्रा

July 2001

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मनुष्य जब तक स्वयं बदलना न चाहे, तब तक उसे कोई शक्ति बदलने में समर्थ नहीं हो सकती है। जीवन के अनूठे आरंभ में मन को जो महारोग उत्पन्न हुआ, उसी ने कर्मों को शुभ और अशुभ का विकृत रूप दिया है। सच तो यही है कि हमारा जीवन पीड़ा और पुकार के साथ जन्मा है और इस विकसित कहे जाने वाले जीव में सत्य और मुक्ति लुप्त हो गए हैं और इसका स्वाभाविक सुख समाप्त हो गया है। जीव यहाँ पर काल का कर और देव का दावा चुकाने आया है। विभिन्न प्रकार के शोक हमारे शरीर को घेरे हुए हैं। ये भीषण यातनाओं का अनुभव कराते हैं और अंत में हमें मृत्यु के हवाले कर देते हैं।

हम स्वयं ही अपने अंदर अपने शत्रुओं और बैरियों को आमंत्रण करते हैं। वे आकर हमारी जीवन वीणा के तार को तोड़ जाते हैं और एक करुण चीत्कार के साथ हमारे स्वर्गीय सुखरूपी संगीत का अंत हो जाता है। हम अपनी बहुमूल्य जीवन-संपदा का अपव्यय करते हैं एवं इसके चमत्कारों व आश्चर्यों को गँवा बैठते हैं। मनुष्य को दिए गए ईश्वरीय वरदानों को ऊपर यह एक महाशाप है। भूलें, झूठ और पाप इसको सताते ही रहते हैं। ये हमें दिव्य आनंद से वंचित कर देते हैं।

इन सबके मूल में अज्ञान है। अनंत काल से मानव अपने अंदर भूलों और अपराधों को संचित करता चला आ रहा है। वह अपने इस प्रारब्धरूपी कर्मों के दुर्विपाक की खेती काटता ही रहता है। वह स्वयं का सबसे बड़ा एवं बुरा दुश्मन है। शत्रु अंदर ही विद्यमान है, कहीं बाहर नहीं है। इसी के वशीभूत वह अपने समस्त वरदानों को शाप बनाता रहता है। सुख से दुःख को, हर्ष से पीड़ा को, अमृत से विष को खरीदना जैसे इसकी नियति बन गई है। वह अपने और पराये सुख का हनन करता है। इसने काल और इतिहास से कुछ नहीं सीखा है। इसने आदिम पशुता और दुष्टता को अभी भी जीवंत बनाए रखा है। युद्ध, खून-खराबी, लूटमार और अत्याचार उसके विनोद हैं। अनंत काल के सुँदर और वैभवपूर्ण सृजन को इसकी मूर्खता एक क्षण में विनष्ट कर डालती है। मानव की इच्छाशक्ति मृत्यु, काल और दुर्भाग्य के साथ षड्यंत्र करने में लगी है। कल्पों के कालचक्र में इसका जीवन कैदी बना हुआ है।

प्रश्न खड़ा होता है कि यदि हमें जीवन जीना है, तो अज्ञान और आँसुओं की क्या आवश्यकता पड़ी? दुःख-शोक कहाँ से आए? इसका जवाब यही है कि अंतरात्मा की गहन गुहा में तो सनातन पुरुष का गुप्त निवास है। पर बीच में अज्ञानरूपी अंधकार का पर्दा है। अतः इस अद्भुत अतिथि का स्वर एवं संवेदन सुनाई नहीं पड़ता और परमानंद का प्रभाकर दिखाई नहीं पड़ता। मानवीय मन का द्वंद्व ही अज्ञान है। इसका झिलमिल पर्दा प्रभु का दर्शन करने नहीं देता। मन शाश्वत के संकल्प को छुपाता है। हृदय की आशाएँ सनातन इच्छा को दबा देती हैं। पार्थिव सुख में अमृतोपम आनंद धुँधला हो जाता है। सुप्त को जगाने के लिए दुःख की आवश्यकता है। जहाँ अज्ञान है वहाँ दुःख है। सुख और दुःख में प्रथम दुःख का जन्म हुआ है। दुःख है देवों का धन। यह हृदय की पाषाणी जड़ता को तोड़ता है और आत्मा को जगाता है। दुःख जाग्रत् चैतन्यता को प्रभु की ओर आरोहित करता है।

पृथ्वी अभी प्रसव पीड़ा में है। इस पीड़ा और मानवीय पुरुषार्थ में ही सृजन की कोपलें फूटनी हैं। इसी में दिव्य जीवन की संभावना सन्निहित है। हालाँकि पाप का बल उसका विरोध कर रहा है। अज्ञान का प्रतिरोध भी अड़ा है। मन की मूर्खता और हृदय की अनिच्छा रोड़े अटकाती हैं, परंतु फिर भी प्रभु का कार्य अधूरा रहने वाला नहीं है।

महाकाल की सहचर आग्नेय आत्माएँ तो दुःख में से आनंद का अर्क खींचती हैं। यही आत्माएँ जगत् का उद्धार करती हैं। इन्हें ही संसार के दुःख-कष्ट का भार उठाना पड़ता है। इन्हें ही समस्त मानवजाति के भाग्य के भार को अपने सिर पर उठाना है। इनको अपने प्राणों के बदले ज्ञानदान देना होता है। परमात्मा की यह संतानें विष की प्याला पीती हैं। ये उद्धारक ही प्रभु का ऋण चुकाते हैं। भले ही इसके लिए इन्हें दुःख और मृत्यु को वरण करना पड़े, सतत दुःख के प्रहार को झेलना इनकी नियति है। इनका तप ही मनुष्य के लिए स्वर्ग का मार्ग रचता है। अज्ञान को मिटाने में ये अपने प्राण और प्रकाश की कीमत चुकाते हैं। जगत् के लिए जीवन का बलिदान करते हैं। इन्हें ही क्रास उठाना पड़ता है। अज्ञानी इन पर शाप बरसाते हैं और इनका अपमान व उपहास उड़ाते हैं। प्रभु के लिए जीने वाली आत्माएँ असीम ज्योति के बदले देह की मृत्यु का दान करती हैं। इनके बलिदान द्वारा ही अमर ज्योति की विजय होती है।

महाकाल के दूत इस संसार से जिस दुःख को मिटाने के लिए आए हैं, उसी दुःख को उन्हें स्वयं सहन करना पड़ता है। विदीर्ण एवं टूटे हुए हृदयों को वह शाँति देते हैं। जगत् का दुःख इनका अपना दुःख बन जाता है। पृथ्वी के पुराने भार को यह अपनी आत्मा में वहन कर लेता है। इन्हें भीषण दुःख-कष्ट-यातनाओं के बीच रहना पड़ता है। दुनिया की दुष्टता इन पर वार करती है। इनका हृदय छलनी हो उठता है। जगत् का जहर इनको नीलकंठ बना देता है। जगत् को नया जन्म देने के लिए इन्हें मौत को आलिंगन करना पड़ता है।

महाकाल के दूत जिसका उद्धार करते हैं, वही उन पर कुदृष्टि रखता है। जिसको यह बचाते हैं वही उनका दुश्मन बन जाता है। जिनके लिए यह मंगलकामना करते हैं वही इनको क्रास पर चढ़ा देते हैं। इनके द्वारा कुछ ही लोगों का उद्धार होता है। जिनकी अंतरात्मा पवित्र है, वही इस प्रकाश पथ के अनुगामी होते हैं। वह तो बस एक प्रज्वलित सूर्य की भाँति चमककर चला जाता है। उसके जाते ही पुनः पृथ्वी पर कालिमा पसर जाती है।

महाकाल की चेतना को धारण करने वाले ये पुरुष दिव्य कवच धारण कर अवतरित होते हैं। इनसे कोई नहीं जीत सकता। जगत् के प्रहार से ये झुकते नहीं। ये तो विनाश में सृजन का बीज बोते चलते हैं। अंधकार में होते हुए ये आगे बढ़ते हैं। उनके सहायक स्वयं प्रभु होते हैं और वह किसी से याचना नहीं करते। सत्पथ से वे तिल मात्र भी नहीं डिगते। मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण उनका लक्ष्य है। अखिल पृथ्वी के कण-कण में वह प्रभु को बसा देना चाहते हैं। उनका परिचय परमात्मा के सूर्य से है, किंतु वे परमात्मा की रात्रि का भी परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। वे जगत् उद्धार के लिए नरक में भी प्रवेश करते हैं। वे दुःख को आनंद में, शोक को हर्ष में, अशुभ को शुभ में बदलने तथा कष्ट-पीड़ा का उन्मूलन करने आते हैं।

उनके इस कार्य के परिणामस्वरूप ही पृथ्वी प्रकाश का धाम बन सकेगी। मानव हृदय में परमात्मा के दर्शन होंगे। सत्य का प्रकाश पृथ्वी पर अवतरित होगा। जड़ तत्त्व चैतन्य हो उठेगा। मौत को अमर विचार मिलेगा। मूक हृदय जीवंत शब्द के प्रति जाग्रत् होगा। जीवन शाश्वत के सुख का सदन बन जाएगा। शरीर को अमृतत्त्व का स्वाद मिलेगा। यही उसकी पूर्णाहुति होगी।

महाकाल के इस अनोखे कार्य के लिए दुःख झेलना ही पड़ेगा। उनका अपनी संतानों से यही कहना है, “हे पुत्र! परमात्मा की महाशक्ति को अपनी आत्मा का आश्रय बना। परम सत्य की ओर अभिमुख हो। प्रेम के लिए प्रार्थना कर। शाँति का आह्वान कर, परंतु सावधान! शैतान के लिए कभी अपना द्वार मत खोलना। भूल से भी आसुरी मार्ग को मत अपनाना। क्योंकि ये सब धर्म विरोधी हैं। इसका अहम् समस्त संसार को निगल जाना चाहता है। अपने और दूसरे के दुःखों को यह अपना साधन बनाना चाहता है। यह सत्य और पीड़ा पर अपना सिंहासन स्थापित करना चाहता है। यह स्वयं को भगवान् घोषित करता है। हे पुत्र! प्रहार को निमंत्रण मत देना। अनंतता तेरी आत्मा का लक्ष्य है। तेरे अंदर दिव्य शक्ति का वास है। तू इससे अज्ञात है। यह अज्ञान ही तेरी पीड़ा है। दुःख अज्ञान का स्वहस्ताक्षर है। यह देवों का प्रमाण पत्र है।” जीवन में प्रभु के मिलन से ही दुःख का अंत होगा। शाँति प्रारब्ध के ऊपर मिली हुई आत्मा की विजय है। भाग्य की किताब में शेष रकम है प्रारब्ध। भाग्य का अर्थ है, अविद्या में संसिद्ध होने के लिए कार्यरत सत्य। प्रकृति और चैत्यात्मा के बीच व्यवहार ही भाग्य है। यहाँ पर भगवान् मध्यस्थ निर्णायक हैं। दुःख का कोई अंत नहीं। जीवन का सर्वनाश, देह की यंत्रणा और मरण से आत्मा बलवती होती है और तभी विजय का द्वार खुलता है।

जीवन का गुप्त सार है आनंद। यह दुःख की पुकार के पीछे छुपा रहता है। हे पुत्र। तू अपने क्षुद्र स्वरूप को त्याग दे। देहाभिमान ही दुःख का कारण है। तेरा लक्ष्य है प्रभुमय हो जाना। बाहर की ओर मत झाँक, अंदर की ओर मुड़। वहीं तेरे मिलन का मर्म छिपा है।

मेरे बच्चे! तू मृत्यु और देव के सामने याचना मत कर। तेरी आत्मा अनंत और शाश्वत है। परम सत्य में तेरा निवास है। तू इसे पहचान। अविद्या के झाँसे में तू गर्त में गिर गया है और अमृत से विमुख हो गया है। भावावेश में तेरा भीषण पतन हुआ है। इस प्रकार तेरे अंदर दुःख का धाम बन गया है और तू कामनाओं के तंबू में खड़ा हुआ है। एक विराट् छद्मवेश ने सनातन के आनंद को छिपा दिया है।

देवों के हाथ में मार्गदर्शक डोरी होती है। परम धाम का प्रेम मानव प्रार्थना को कभी नहीं नकारता है। ऐसा मानव कामना के दंभ से अंधा नहीं बनता। उसको भय और आशा का कोहरा आच्छादित नहीं कर सकता। आत्मा एक अलौकिक महिमा का मंदिर है। इसे पाने के लिए दुःख ही एक अनिवार्य शर्त है।

मनुष्य का मन शब्दों से परिचालित है। दृष्टि विचार के पर्दे के पीछे होती है और मनुष्य कुछ भी स्पष्ट नहीं देख पाता। अल्पाँश ही इसकी दृष्टि में आता है। परंतु इसी को वह पूर्ण मान लेता है। फिर इसको सर्वज्ञ शक्ति अर्थहीन लगती है। सत्य असत्य जैसा जान पड़ता है। यह उस जादूगर का जादुई नियम है। यह जादूगर चाहे तो सब कुछ बदल सकता है। मनुष्य अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा के साथ तदाकार कर सके, तो मनुष्य भी सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान बन सकता है। यदि इसका मन प्रभु के प्रकाश को धारण कर सके, तो मनुष्य भी उसके जैसा चमत्कार कर सकता है। वह प्रकृति का भी नियंता बन सकता है।

जीवन का सुख-दुःख भाग्य नहीं हैं। ये तो आते-जाते रहते हैं। मृत्यु आत्मा की यात्रा का अंत नहीं है। जीवन देवों का महायज्ञ है। प्रभु से एकाकार होने तक यह चलता रहता है। जीव का दैव अदृश्य विरोधी शक्तियों के साथ संघर्षरत रहता है। आत्मा अनेकानेक जन्मों में से होकर गिरती-पड़ती है और फिर उठती हुई आगे बढ़ती है। यह आरोहण करती हुई अंत में प्रभु के दैदीप्यमान शिखरों पर जाकर खड़ी हो जाती है। जो आत्मस्वरूप में ही निवास करता है, उसको प्रभु का दर्शन अवश्य होता है।


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