विकास के सत्य को समझें

July 2001

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मानवीय विकास के मोटे तौर पर दो आयाम रहे हैं, बाह्य एवं आँतरिक। बाह्य विकास जहाँ भौतिक प्रगति, सुख-समृद्धि एवं साँसारिक अभ्युदय से जुड़ा रहा है, वहीं आँतरिक विकास चरित्र-चिंतन की उत्कृष्टता एवं आत्मिक परिष्कार से संबंधित रहा है। मनुष्य की प्रगति यात्रा इन्हीं दो चरणों से होकर आगे बढ़ी है। पश्चिम में यह प्रमुखतया मानवीय अस्तित्व के शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक आयामों को छूती हुई भौतिकता प्रधान रही, जिसके कारण उसके विकास की अवधारणा को एकाँगी एवं अधूरा ही कहा जा सकता है, जबकि भारत में इसने उपयुक्त आयामों के साथ आत्मिक विकास के भी चरमोत्कर्ष को पाया। इसी तथ्य में इसकी मौलिक समग्रता निहित है। वैदिक युग का स्वर्णिम अतीत इसका गौरवमयी अध्याय रहा है।

वैदिक संस्कृति के साथ हम मानवीय सभ्यता के इतिहास का शुभारंभ मान सकते हैं। इसका ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ माना गया है। इसमें जो उदात्त चिंतन धारा प्रवाहित होती है, वह सर्वथा आध्यात्मिक होते हुए भी जीवन के व्यावहारिक पक्षों से अछूती नहीं है। क्योंकि यह तपःपूत एवं सूक्ष्मदर्शी ऋषियों द्वारा मानव के समग्र विकास के लिए प्रकट की गई थी। यह ‘ऋत’ एवं ‘सत्य’ के ठोस आध्यात्मिक आधार पर प्रतिष्ठित थी। ‘ऋत’ जहाँ प्राकृतिक जगत् के अंदर कार्य करने वाले अटल व्यापक नियम हैं, वहीं ‘सत्य’ आध्यात्मिक जगत् के अंदर काम करने वाले नियम हैं। स्पष्ट रूप में वैदिक आदर्श ऋत और सत्य को एक ही मौलिक तथ्य के दो रूप मानता है। इसके अनुसार मनुष्य का कल्याण प्राकृतिक नियमों और आध्यात्मिक नियमों की परस्पर अभिन्नता को समझते हुए उसके साथ अपनी एकरूपता के अनुभव में ही है। वैदिक ऋषियों ने जीवन के इस मूलभूत रहस्य को अनुभूत कर मनुष्य के सर्वांगीण अभ्युदय का समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इसके मर्म को स्पष्ट करते हुए सत्यव्रत सिद्धाँतालंकार लिखते हैं, “प्रकृति है, परंतु प्रकृति ही सब कुछ नहीं है, प्रकृति के पीछे आत्मतत्त्व है, वही तत्त्व जिसे कुछ लोग परमात्मा कहते हैं। शरीर है, परंतु शरीर ही सब कुछ नहीं, शरीर के पीछे आत्मतत्त्व है, वही तत्त्व जिसे कुछ लोग जीवात्मा कहते हैं।” इसी के अंतर्गत ऋषियों ने “तेन त्यक्तेन भुँजीथा” का सारगर्भित संदेश दिया अर्थात् संसार को भोगो, परंतु त्यागपूर्वक। संसार में रहो, परंतु निस्संग होकर, निर्लिप्त होकर। भोग और त्याग का यह आदर्श ही वैदिक संस्कृति की विलक्षणता है, जो अन्य संस्कृतियों में दुर्लभ है। अन्य संस्कृतियाँ इन दोनों में सिर्फ एक सत्य को मानती हैं। कोई त्यागवाद को ले बैठी हैं, कोई भोगवाद को, किसी ने प्रकृतिवाद को, किसी ने भौतिकवाद को जन्म दिया है, तो किसी ने कोरे अध्यात्मवाद को। भोग और त्याग का समन्वय, भौतिकवाद और आत्मवाद का मेल सिर्फ वैदिक संस्कृति में पाया जाता है।

वैदिक संस्कृति का यही मौलिक तत्त्व मानवीय विकास को समग्रता प्रदान करता है। इसमें आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ भौतिक विकास भी उचित स्थान पाता है। इसी के तहत वैदिक ऋषि इंद्रियों के उपभोग को रखते हुए पूरे सौ वर्ष व इससे भी अधिक ही जीना चाहते थे। भौतिक सुख-समृद्धि के साधनों के साथ जीवनोपयोगी सब विद्याएँ इसमें विद्यमान हैं। गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, नौतिमानादिविद्या, सृष्टि विद्या, विविध प्रकार की कलाएँ, उद्योग धंधे, व्यापार, देशाटन, काव्य शैलियाँ, काव्यालंकार आदि तमाम विषय इसमें भरे हुए हैं। महर्षि दयानंद के अनुसार वेद में चार विषय हैं, क्योंकि परमेश्वर से लेकर तृणपर्यंत सभी पदार्थों का साक्षात् ज्ञान है।

मनुष्य एवं समाज के समग्र विकास को सुनिश्चित करने वाली वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक महर्षियों की एक अमूल्य देन है। आश्रम व्यवस्था वस्तुतः व्यक्ति के पूर्ण विकास का विधान है। इसके ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थाश्रम व्यक्ति के साँसारिक अभ्युदय को इंगित करते हैं तथा वानप्रस्थ एवं संन्यास आत्मिक उत्कर्ष के साधन हैं। इसी तरह वैदिक वर्ण व्यवस्था मानव के सामूहिक विकास को सुनिश्चित करती है। अथर्ववेद का भूमि सूक्त राष्ट्र भक्ति, वीरता के भाव एवं मातृभूमि के यशोगान से ओतप्रोत है। मानव साहित्य में पहली बार पृथ्वी को माता कहकर अपने आपको इसका पुत्र कहा गया है। वैदिक मंत्र अपने ही कल्याण तक सीमित नहीं हैं। वे विश्वकल्याण के भाव से ओतप्रोत हैं। जगह-जगह पर इनमें सबके हित की भद्र कामना तथा विश्व में शाँति की प्रार्थना की गई है। इसमें लौकिक प्रगति को संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित करने वाली शासन व्यवस्था का मौलिक प्रतिपादन हुआ है। पुरुष सूक्त में इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला गया है। कालाँतर में व्यास, मनु एवं याज्ञवल्क्य आदि द्वारा प्रस्तुत सशक्त शासन व्यवस्था भी इसी को अपना उद्गम स्रोत मानती है।

इसी तरह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सर्वविध विकास की योजना वैदिक संस्कृति में है। यह भौतिक एवं आध्यात्मिक संतुलन और सामंजस्य बिठाती हुई व्यक्ति के साथ समष्टि के कल्याण को सुनिश्चित करती है। यही वैदिक महर्षियों द्वारा प्रतिपादन विकास की मूल भारतीय अवधारणा है।

यह अवधारणा संस्कृति की प्रगति यात्रा के साथ बढ़ती है और साथ ही मनुष्य को ईश्वर की दिव्य प्रतिकृति मानते हुए उसके पूर्ण विकास एवं अभिव्यक्ति पर बल देती है। वृहदारण्यकोपनिषद् में ऋषियों की इसी उपलब्धि के वर्णन में कहा गया है, उन्होंने जब गहराई में प्रवेश किया, तो समय की परिधि में आबद्ध ससीम सत्ता के पीछे उन्हें एक असीम शाश्वत वास्तविकता की उपलब्धि हुई। इस प्रकार उन्होंने विशुद्ध चेतना के स्वरूप एवं जीवात्मा के विकास की चरम परिणति को जाना। यही तथ्य श्रीकृष्ण गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन को बताते हैं। बुद्ध ने इसी चरम उद्देश्य की प्राप्ति को आत्मबोध-ज्ञानोदय कहा है। वेदाँत के अनुसार ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है।

कालप्रवाह के साथ वेदों से निस्सृत विकास की समग्र धारा क्रमशः क्षीण होती गई। बुद्ध एवं शंकर के समय तक यह अलग-अलग पड़ने लगी। साँसारिक और आध्यात्मिक जीवन अस्तित्व की प्रवहमान धारा के दो किनारे बन गए हैं। जगत् मिथ्या, संसार माया का भाव प्रबल हो उठा। आत्मिक विकास के लिए गृहत्याग, संन्यास एवं संसार विमुखता अनिवार्य माने जाने लगे। श्री अरविंद, लाइफ डिवाइन में इसे ‘असेटिक डिनाइल’ एवं ‘मेटेरिऐलिस्टिक रिफ्यूजल’ की संबा देकर संबोधित करते हैं। दूसरी ओर अध्यात्म से विहीन जीवन की धारा भोग-विलास एवं संकीर्ण स्वार्थपरता की नारकीय दलदल बन गई है। आज विकास की ये धाराएँ अपने विकृत रूप में जो दृश्य प्रस्तुत कर रही हैं, उसके अंतर्गत श्री-समृद्धि से हीन अध्यात्म दरिद्रता, पलायन या अंधविश्वास एवं मूढ़-मान्यताओं का प्रतीक बन गया है और बिना आध्यात्मिक आधार के भौतिक-समृद्धि अशाँति, आतंक एवं असंतोष की त्रासदी बन गई है।

पश्चिम में 1000 ई. तक यूरोपीय सभ्यता बहुत कुछ अर्द्ध सभ्य स्थिति में पड़ी हुई थी। यहाँ विकास का दौर अधिक स्फुट रूप से पुनर्जागरण के बाद ही उभरा। उसी के बाद मनुष्य के कल्याण हित, आशावादी चिंतनधारा, मानववाद (॥रु्नहृढ्ढस्रु) के रूप में प्रस्फुटित हुई, जो 14वीं एवं 15वीं शताब्दी में ग्रीक एवं रोमन संस्कृति व दर्शन की पुनर्जाग्रति के रूप में हुई। इसका मूल विचार सार्वभौमिक एक्य का प्रचार करने वाला नैतिक तत्त्व था। ई.पू. पूर्वी सदी में एफ्क्यूरस ने इसी दर्शन को विकसित किया था और एक नैतिक मानववादी आधार दिया था। 9वीं सदी के मध्य में काँट ने इसी के अंतर्गत ईश्वर के ध्यान के स्थान पर मनुष्य की पूजा का विधान किया। इंग्लैंड में जॉन स्टुअर्ट मिल ने उपयोगितावाद से मानववाद को पोषित किया। हर्बर्ट स्पेंसर, हक्सले, बट्रेंड रसेल इसके प्रबल समर्थक रहे। 20वीं सदी में प्रो. शिलर ने मानव अनुभव के आधार पर इसे नूतन परिभाषा दी। इस तरह आज यह साम्यवाद, समाजवाद, प्रगतिवाद तथा अन्य अनेकों रूप में मानवीय कल्याण एवं विकास को निर्धारित कर रहा है।

अपने उदात्त भावों एवं मानव कल्याणकारी उद्देश्यों के बावजूद यह विचारधारा, मानवीय अस्तित्व के समग्र आकलन में असमर्थ है। इसका भौतिक दृष्टिकोण अस्तित्व के आध्यात्मिक सत्य की गहराई में कैसे झाँक सकता है। फिर उसके विकास एवं अभिव्यक्ति की बात तो और दुर्गम बनी रहती है। इसी कारण डार्विन विशुद्ध जैविकीय आधार पर ही विकास प्रक्रिया को परिभाषित करते रहे वह उनके शिष्य जैविकीय हेर-फेर भर से नए मानव की रचना के हवाई किले बना रहे हैं। मार्क्स मनुष्य को आर्थिक प्रगति पर्याय मानकर समाज की आर्थिक नवरचना का प्रतिपादन करते रह गए। इसी तरह फ्रायड ने काम को ही अस्तित्व का मूल तत्त्व मानने की भूल की। वस्तुतः पश्चिम का भौतिकवादी दृष्टिकोण मनुष्य के आध्यात्मिक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहा है। इस तरह पश्चिम की विकास धारा भौतिक प्रगति की ही सीमा में गतिशील है। आध्यात्मिक धारा की शिथिलता के कारण इसी का वर्चस्व समूचे विश्व में दृष्टिगोचर हो रहा है।

इस तरह वर्तमान परिदृश्य में दो विकास धाराएँ विद्यमान हैं, एक है विज्ञान द्वारा पुष्ट भौतिक विकास अथवा विकास का पश्चिमी दृष्टिकोण और दूसरी है अध्यात्म की गुह्य धारा, जिसमें विकास की भारतीय अवधारणा का सार निहित है। बाहरी दृष्टि से दोनों का स्वरूप एक-दूसरे का विरोधी प्रतीत होता है और दोनों के आदर्श भी सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं। भौतिक अथवा पश्चिमी दृष्टिकोण में विकास का आदर्श है-विस्तार और आध्यात्मिक अथवा भारतीय दृष्टिकोण में विकास का आदर्श है-परिष्कार। विस्तार के नाम पर भौतिकवाद आक्राँता की भूमिका में रहा है। रोम, यूनान, अरब एवं अंग्रेजों के विजय अभियान इसकी गवाही हैं। इन्होंने हाथ में तलवार लेकर और खून की नदियाँ बहाकर अपनी विस्तारवादी आकाँक्षाओं को पूरा किया है। अपनी कुटिल एवं निंकुश नीतियों द्वारा ये ताकतें कैसी विषमताएँ पैदा कर रही हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

भौतिकवादी अथवा पश्चिमी मानसिकता वाला व्यक्ति विकास का मूल्याँकन, व्हाट यू हेव? (खद्धड्डह्ल ब्शह्व द्धड्डक्द्ग) के प्रश्न से करता है अर्थात् यदि कोई धन्य-धान्य से संपन्न, रौब-दौब वाला सफल व्यक्ति है, तो उसे सफल माना जाएगा, चाहे वह चरित्र, चिंतन की दृष्टि से चोर, लुटेरा, व्यभिचारी ही क्यों न हो? इसके विपरीत आध्यात्मिक अथवा भारतीय अवधारणा में विकास की कसौटी है, व्हाट यू आर? (खद्धड्डह्ल ब्शह्व ड्डह्द्ग) अर्थात् आप क्या हैं? यदि व्यक्ति फटेहाल ही क्यों न हो, यदि वह संयम, त्याग, करुणा भाव से संपन्न है, तो उसे विकसित माना जाएगा। युगनायक स्वामी विवेकानंद भारत के इसी महान् चरित्र का उद्घोष करते हुए कहते हैं कि वैदिक संस्कृति ने अपने साँस्कृतिक विस्तार के लिए कभी खून की नदियाँ नहीं बहाईं। उसने सदैव आशीर्वाद और शाँति के वचन कहे, सबको प्रेम और सहानुभूति की कथा सुनाई। यहाँ का साम्राज्य विस्तार विचारों के बल पर हुआ। भारतीय विचार का सबसे बड़ा लक्षण है, इसका शाँत स्वभाव और नीरवता। अशोक महान् की विजय गाथा में यही विचार जीवंत हुआ था।

आज भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दोनों धाराएँ विपरीत ध्रुवों पर खड़ी है। यही मनुष्य की वर्तमान दुर्दशा की त्रासदी है। भौतिक विकास के एकाकी महत्त्व ने भौतिक समृद्धि-संपन्नता तो बढ़ाई है, परंतु धर्म के अभाव में आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र बनते गए। पर करें क्या? अध्यात्म के पास दिशा तो है, किंतु गति नहीं, जबकि विज्ञान के पास गति है, किंतु दिशा नहीं, हालाँकि मनुष्य के विकास के लिए दोनों का सहयोग-समन्वय अनिवार्य है। इस आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है, “धर्म के बिना विज्ञान अंधा है और विज्ञान के बिना धर्म लँगड़ा है।” दोनों के मिलन से ही अंधे-लंगड़े की जोड़ी बनकर संकट से उबरने का सुयोग बन सकता है।

इस संदर्भ में अध्यात्म को ही अपनी प्रमुख भूमिका निभानी होगी, क्योंकि इसकी स्थिति नियंत्रक एवं नियोजन की है। विज्ञान एवं भौतिक विकास पदार्थ जगत् का प्रतिनिधित्व करता है और अध्यात्म चेतन जगत् का। भौतिक जगत् के मूल में सक्रिय चेतन तत्त्व के अस्तित्व एवं उसकी वरिष्ठता रसेल वैलेस अपनी कृति ‘सोशल इन्वायरमेंट एण्ड मॉरल प्रोगेस’ में लिखते हैं, यह विश्वास कर लेने के पर्याप्त आधार मिल गए हैं कि चेतना द्वारा ही इस जगत् का संचालन किया जा रहा है। इसी तथ्य पर इंग्लैंड की रॉयल सोसायटी के प्रमुख एवं वैज्ञानिक-दार्शनिक जेम्स जीनस ने अपनी सुप्रसिद्ध रचनाओं में इसी तथ्य पर व्यापक प्रकाश डाला है। विश्वभर के 14 वरिष्ठ वैज्ञानिकों द्वारा मिल-जुलकर लिखी गई पुस्तक ‘द ग्रेट डिजाइन’ में इसी सत्य को स्पष्ट किया गया है। आइन्स्टाइन ने इसी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि भगवान् पासे नहीं फेंकता अर्थात् यहाँ सब चेतन सत्ता द्वारा संचालित एवं नियंत्रित है।

विकास की विरोधी धाराओं को जोड़ने से पूर्व मनुष्य को विकास के आध्यात्मिक पक्ष को समझना होगा। इसका मार्गदर्शन वैदिक संस्कृति के उपनिषदीय चिंतन में मिलता है। इसके सूत्रों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विकास का यथार्थ तात्पर्य दिव्यता, आत्मज्योति व अतिमानस में प्रतिष्ठित होना है। श्री अरविंद ने ‘द सिंथेसिस ऑफ योग’ में इसका समुचित विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने मनुष्य को वर्तमान मनःस्थिति से ऊपर उठने को प्रेरित करते हुए आगामी आधारों की भी चर्चा की है। इन स्तरों को उन्होंने उच्च मन, प्रकाशित मन, अधिमानस तथा अतिमानस कहा है। मन से ऊपर उठकर अमिन में प्रतिष्ठित होना ही वास्तविक अर्थों में विकास है तथा जो इसके लिए प्रयत्नशील है, वही विकासशील।

वस्तुतः यह वेदों में प्रतिपादित ‘ऋत एवं सत्य’ के शाश्वत आधार पर प्रतिष्ठित होकर किए गए विकास का ही नूतन प्रतिपादन है। इसी तरह वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद एवं परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जैसी युग की महानतम विभूतियों ने इसी सत्य को अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित किया है।

आज की विषम स्थिति में विकास के इस सत्य को समझा जाना चाहिए। इसे समझकर ही वह संभव हो सकेगा, जिससे कि विनाश पर उतारु अनियंत्रित भौतिक विकास की उच्छृंखल धारा को सही दिशा में नियोजित कर, समग्र विकास की राह प्रशस्त की जा सके।


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