अक्सर हमें अपने बुजुर्गों से कदम-कदम पर वर्जनाएँ मिलती रहती हैं, यह न करो, वह न करो, ऐसा करने से अशुभ होगा, ऐसा करोगे तो शुभ होगा, सफलता मिलेगी आदि-आदि। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही इन पारंपरिक बातों एवं रीति-रिवाजों से शायद ही किसी का दैनिक जीवन अछूता हो। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि हमारे जीवन के एक बड़े हिस्से पर इनका अंकुश लगा हुआ है।
यदि हम गहराई से विचार करें, तो यह पता चलता है कि ये परंपराएँ या रीति-रिवाज यों ही नहीं बना दिए गए हैं। इनके पीछे स्पष्ट कारण होते हैं। इनसे जुड़े कुछ मूल्य होते हैं। कुछ बातें अवश्य होती हैं, जिनकी मनाही के पीछे कोई समुचित कारण समझ में नहीं आता। परंतु कई बातें ऐसी हैं, जो तर्क की कसौटी पर पूर्णतः खरे उतरती हैं।
हमारे यहाँ की सामाजिक परंपराओं में ब्राह्मणों और ब्रह्मचारियों को संयमित जीवन जीने को कहा गया है। इसका मूल कारण यही है कि वे उत्तेजना से बचें। यहाँ ब्राह्मण का तात्पर्य जाति विशेष से नहीं, ज्ञान के उपासकों से है। समुचित आचार-विचार के अभाव में भव्य ज्ञान-साधना कैसे संभव हो सकती है?
इसी प्रकार सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण के समय घर में रखे भोजन को फेंक देने की परंपरा है। अब वैज्ञानिक शोधों से यह बात साबित हो चुकी है कि ग्रहण के दौरान निकलने वाली किरणें हानिकारक होती हैं एवं खाद्य पदार्थों को नुकसान पहुँचाती हैं।
इसी तरह आज हमारे चारों ओर हिंसा का जो वातावरण बना हुआ है, उसका एक प्रमुख कारण सात्विक भोजन का अभाव है। भारतीय परंपरा के अंतर्गत सदा से शुद्ध-सात्विक भोजन की रीति-नीति रही है। भोजन हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। यह बात वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी खरी उतर चुकी है। इतना ही नहीं इससे न सिर्फ हमारा तन अपितु मन भी प्रभावित होता है, यह भी प्रमाणित हो चुका हैं ऐसे में जो हिंसा से भरे तामसिक भोजन का त्याग नहीं कर सकते, वे तामसिक प्रवृत्तियों से कैसे बचे रह सकते हैं।
भारतीय संस्कृति में मंदिर में अथवा पूजा-उपासना में घंटा-नाद की प्रथा है। घंटा-नाद की प्रथा है। घंटा मंगल ध्वनि का प्रतीक है। घंटे के स्वर वातावरण में पवित्रता का भाव भरते हैं। मन में आध्यात्मिकता के भाव जगाते हैं। घंटा-ध्वनि अन्य ध्वनियों एवं विचारों को भूलकर मन को एकाग्र करने के लिए प्रेरित करती है। पूजा-उपासना, देवदर्शन यह सब शाँति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए ही तो किया जाता है, किंतु जब तक मन में अन्यान्य भाव एवं ध्वनियाँ भरी होंगी, तब तक शाँति एवं आनंद प्राप्त करना कैसे संभव हो सकेगा?
परंपराओं के इस क्रम में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान करते समय कलश स्थापना की परंपरा है। यह संपूर्णता एवं समृद्धि का प्रतीक है। कलश के मुख पर विष्णु, कंठ में रुद्र एवं मूल में ब्राह्मा का वास मानकर इसकी तुलना सृष्टिकर्त्ता विराट् पुरुष से की गई है। अतः पूर्णघट ब्रह्मांड के सृजन का प्रतीक है। आम्र पल्लवों से युक्त कलश ही परिपूर्ण होता है। आम एक सदाबहार वृक्ष है। यह सृजन के पश्चात् जीवन की निरंतरता का बोधक है। इसलिए धार्मिक अनुष्ठानों में सर्वप्रथम कलश की स्थापना होती है और मृत्यु हो जाने पर जीवन की समाप्ति के प्रतीकात्मक घट को फोड़ दिया जाता है। इसका वैज्ञानिक पक्ष यह भी है कि मंगल कलश ब्रह्मांडीय ऊर्जा को अपने में केंद्रित कर आसपास विकरित कर वातावरण को दिव्य बनाता है।
इस तरह यह बात स्वीकार करने योग्य है कि परंपराओं में भी विवेक छुपा हुआ है। हाँ, इसका मतलब यह नहीं है कि हम सभी परंपराएँ मानने ही लगें। परंतु इतना तो सच है ही कि अपने बड़े-बूढ़ों द्वारा कही हुई बातों को एकदम नकारें नहीं, बल्कि उन्हें ज्ञान-विज्ञान एवं तर्क की कसौटी पर कसें और यदि उसमें सार हो तो अपनाने में कतई न हिचकें।