पिछले कुछ वर्षों में सूचना एवं संचार के क्षेत्र में हुई क्राँति ने आधुनिकीकरण एवं विकास के नए आयाम स्थापित किए हैं। इस क्राँति से दुनिया सिमट सी गई लगती है। अपने टी.वी. सेट पर विभिन्न सेटेलाइट्स चैनलों के माध्यम से दुनिया के तमाम देशों के बारे में सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इंटरनेट पर भी अपनी मनचाही जानकारी प्राप्त की जा सकती है, परंतु इस क्राँति के साथ कई अहम् राष्ट्रीय सवाल उठ खड़े हुए हैं। इनमें पहला यह है कि देश में कितने प्रतिशत लोगों को ये सुविधाएँ उपलब्ध हैं?
भारत में सरकारी आँकड़ों के अनुसार ही 40 प्रतिशत लोग गरीबी के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा से नीचे का मतलब है कि वे लोग बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि सरकार उनके विकास के लिए कौन-सी योजनाएँ चला रही है। जिनके लिए ये योजनाएँ बनाई जा रही हैं। वे ही इसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। लाभ उठा रहे हैं वे लोग, जिन तक तथाकथित सूचना एवं संचार क्राँति पहुँची हैं ऐसे समाज में जहाँ सिर्फ भरपेट खाना या पानी प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता गिरवी रख दी जाती हो, इस क्राँति का क्या महत्त्व रह जाता है।
यूरोपीय देशों में इस क्राँति से आर्थिक और साँस्कृतिक ही नहीं, राजनीतिक निकटता भी बढ़ रही है, परंतु हमारे दश में विभिन्न जातीय समूहों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान का प्रबल आग्रह नए नए तनावों एवं संघर्षों को जन्म दे रहा है। इसका कारण न सिर्फ बहुतांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इसे संचालित किया जाना है, अपितु संचारकर्त्ताओं की कल्पनाशून्यता और संचार-प्रक्रिया के प्रति अज्ञानशून्यता भी कम दोषी नहीं है।
तीसरे, विकसित देशों के लिए सूचना एवं संचार क्राँति कोई आकस्मिक घटना नहीं है। वहाँ इसके लिए पहले से ही वातावरण बना हुआ था। वहाँ का समाज भौतिक एवं मानसिक रूप से इसकी संभावनाओं का अपने पक्ष में उपभोग करने और चुनौतियों का मुकाबला कर सकने में सक्षम था, परंतु भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह एक आयातित 222 है, जिसके लिए यहाँ का समाज भौतिक एवं मानसिक 222 से तैयार नहीं है। इसकी कारण इसके विपरीत परिणाम सामने आ रहे हैं। यह सही है कि हम अपने आधुनिकीकरण एवं विकास को तेज करने के लिए सूचना एवं संचार क्राँति का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन यह काम उसके विवेकसम्मत नियमन के बिना संभव नहीं।
चौथा, सूचना एवं संचार के सभी साधन समाज में नैतिकता एवं ईमानदारी के सार्वजनिक रूप से मान्य प्रतीकों को तोड़कर अपने सामाजिक अपरिचय और रुचि को स्थापित करने की बचकानी उत्कंठा में निमग्न हैं। सामान्य मानवीय रिश्ते-नातों ही नहीं, संतों एवं राष्ट्र निर्माताओं पर चुहल भरे प्रहार या उनकी निंदा किसी स्व-अर्जित गहरे दार्शनिक अनुभव और चिंतन की कसौटी पर नहीं, अपितु सिर्फ फुरसती विलास के लिए किया जाने लगा है। आज हम संचार माध्यमों द्वारा ढाकर लाए जाने वाले साँस्कृतिक कचरे के कूड़ेदान बन जाने के लिए अभिशप्त हैं।
विश्वभर के शेयर बाजारों की जानकारी, उद्योगों की जानकारी, अश्लीलता का प्रदर्शन, तथ्यहीन राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक उथल-पुथल की जानकारी दिखाने मात्र से सूचना एवं संचार क्राँति नहीं हो सकती, न ही सर्वेक्षण करके गलत आँकड़े प्रस्तुत करने से गलत बात सच हो जाती है।
भारत जैसे वैविध्यपूर्ण संस्कृति वाले विशाल देश में जहाँ हर क्षेत्र की परंपराएँ, समस्याएँ एवं प्राथमिकताएँ हैं, असली सूचना एवं संचार क्राँति तभी होगी, जब हम उसके परिमार्जित, सकारात्मक स्वरूप के साथ जन जन के लाभ पहुँचाने में समर्थ हो सकेंगे।