कबीर साहब की साखियों में गुरु की गरिमा का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन है। एक स्थान पर वे लिखते हैं-
कबीर सतगुरु नाँ मिल्या रही अधूरी सीख। स्वाँग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीख॥
अर्थात् “अगर सच्चा गुरु नहीं मिला और आध्यात्मिक शिक्षा अधूरी रही तो ऐसे में जती (संन्यासी) का वेश भीख माँगने का बनावटी आवरण मात्र है।” कितने ही व्यक्ति गुरु से जुड़ तो जाते हैं, पर अपना समुचित आध्यात्मिक शिक्षण पाने में असफल रह जाते हैं एवं ऐसी स्थिति में व्यक्ति यदि कहीं लौकिक जगत् भी छोड़ दे, तो न घर का रहता है, न घाट का। फिर तो वह भीख माँगते रहने वाला एक बाबाजी मात्र बन जाता है, जिसे वेश का सम्मान होने के नाते कुछ मिल जाता है, किंतु लक्ष्यप्राप्ति की मात्रा कभी पूरी नहीं हो पाती। आज यह विडंबना हमें चारों ओर दिखाई देती है। धर्म का व्यापारीकरण-सा हो गया है। लगभग एक करोड़ बाबाजी वाला यह देश इक्कीसवीं सदी में हमें एक भी विवेकानंद-दयानंद नहीं देता, तो इसका कारण संभवतः दोनों ही स्तर पर पात्रता की कमी है।
परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जीवन भर गुरुभक्ति-सच्चे गुरु की पहचान एवं सच्चे समर्पण की परिणति पर लिखा। जो भी कुछ उनकी जीवनभर की उपलब्धियाँ रहीं, जो कि किसी भी स्थिति में आश्चर्य से कम नहीं, वे अपनी गुरुसत्ता को ही उसका पूरा श्रेय देते हैं। वे अपने तीन अभिभावक मानते रहे हैं, हिमालय, गुरुसत्ता (स्वा. श्री सर्वेश्वरानंदजी महाराज) तथा गायत्री माता। ‘कृत्य किसी का श्रेय किसी को’ पुस्तिका में वे लिखते हैं, “जो भी कुछ हमसे बन पड़ा वह हमारे मास्टर-संरक्षक ने हमारे लिए किया, हम तो बस निमित्त मात्र बने रहे, श्रेय लूटते रहे।”
आज उसी गुरुसत्ता के लाखों-करोड़ों शिष्य हैं। उन्हीं के बल पर ‘गायत्री परिवार’ रूपी यह विशाल वृक्ष, एक अनूठा संगठन सभी के लिए आशा का केंद्र बना खड़ा है। कैसे पैदा किए उन्होंने वे शिष्य? कौन-सी घूटी पिलाई उन्हें, यह जानना हो तो हमें उनके स्नेहसिक्त पत्रों का अवलोकन करना चाहिए, जो एक निधि के रूप में हमारे पास सुरक्षित हैं। ये पत्र जीते-जागते अध्यात्म साधना के समर्पण का मर्म अपने में समाए लोकशिक्षण करने में समर्थ ग्रंथ हैं। इनकी एक-एक पंक्ति देखने योग्य है। 8/4/54 को श्री रामचरण सिंह बिजनौर को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं,
“गायत्री माता का आँचल यदि आप श्रद्धापूर्वक पकड़ेंगे, तो इसका परिणाम बहुत ही कल्याणकारक होगा। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
आप हमें गुरु मानते हैं। हम भी आपको पुत्र एवं शिष्य मानकर आपके कल्याण के लिए प्रयत्न करते रहेंगे। हमारा स्नेह, सहयोग, पथ-प्रदर्शन तथा आशीर्वाद आपको प्राप्त होता रहेगा।”
इस पत्र में गुरुदेव श्री सिंह को अपना पुत्र एवं शिष्य संबोधित कर रहे हैं। पुत्रवत् स्नेह ही शिष्य को वह अनुदान देने की पात्रता देता है, जिसके लिए गुरु की गरिमा जानी जाती हैं अपनी प्राणशक्ति का आरोपण कर वह अपने सगे बेटे से भी अधिक प्यार अपनी मानस संतति से करता है एवं उसका सच्चा मार्गदर्शन भी करता है। इसीलिए तो वे 4 अक्टूबर 1952 को श्री बैजनाथ शोनकिया जी को लिखे एक पत्र में लिख देते हैं-
“तुम्हारा जीवन-लक्ष्य निश्चित है। (1) निश्चित प्रारब्ध एवं कर्म-बंधनों को इस जीवन में भुगत कर आगे का हिसाब पूरा करना (2) नित्य की साधारण साधना द्वारा अपनी आँतरिक भूमि शुद्ध करते रहना। यह दो कार्य आपको पूरे करने हैं। तीसरा कार्य आपको पूर्णता प्राप्त कराना हमारे जिम्मे है। आप अपना काम करते रहें। समय पर हम अपना काम कर देंगे। हमें हमारी जिम्मेदारी का पूरा-पूरा ध्यान है।”
कबीरदास जी कह गए हैं, कभी संशय नहीं रखना चाहिए।
संसै खाया सकल जगु, संसा किनहुँ न खद्ध। जो बेधे गुरु अष्षिराँ तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध॥
यहाँ पहले शब्दों का अर्थ समझ लें। संसै अर्थात् संशय। खद्ध यानी खाया-नष्ट किया। अष्षियाँ अक्षरों से। बेधे याने बिद्ध-बिंधे हुए प्रविष्ट। अब अर्थ हुआ “संशय (गुरु वचनों के प्रति श्रद्धा का अभाव) ने सारे संसार को नष्ट कर दिया। किंतु संशय को कोई समाप्त नहीं कर सका। संशय को केवल वही भक्त समाप्त कर पाता है, जिसका हृदय सद्गुरु के अविनाशी एवं साधनाप्रसूत उपदेशों से विद्ध है। उपदेश उसने हृदयंगम कर लिए हैं।”
यहाँ यह बात लिखी इसलिए कि हम सद्गुरु के वचनों का मोल समझ सकें। उनकी एक-एक सीख हृदयंगम करने योग्य है। मित्रवत् भाव से अपने एक अनन्य श्री बद्रीप्रसाद जी पहाड़िया को एक बहुत पुराने (4/8/1942) लिखे पत्र में लिखते हैं-
“आप ऐसा ख्याल कदापि न करें कि नाराजी की कोई बात है। हमारे निकट नाराजी जैसी किसी वस्तु की पहुँच नहीं है। तुम तो बहुत ऊँचे उठने वाले व्यक्ति हो। जो व्यक्ति सचमुच अपराधी होते हैं, उन पर भी हमें दया ही आती है। क्योंकि वे नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं। तुम कभी भी ऐसी बात मत सोचा करो। कार्य बहुत अधिक रहने के कारण पत्रों के उत्तर ही दे पाते हैं। अपनी ओर से पत्र भेजने में विलंब हो गया। तुम तो अपने ही हो। आत्मीयता के साथ द्वैत भाव नहीं रहता।
तुम्हें काम बहुत करना पड़ता है, पर खाने को कम मिलता है, यह जानकर चिंता हुई। ऐसे अवसरों पर मनुष्य भटक जाता है और अनुचित पैसे को भी ग्रहण करने लगता है। तुम ऐसा मत करना। हरिश्चंद्र की तरह कष्ट सहना, पर अपने पथ से विचलित मत होना। दुःखों को अपनाते हुए भी धर्म पर स्थिर रहना वीरों का काम है। हमारा विश्वास है कि तुम बहादुर ही प्रमाणित होगे।”
जरा पत्र की सिखावन देखिए। एक तो पत्र न मिलने की वजह से यदि नाराजी हो तो आप से आरंभ कर ‘तुम’ पर आकर आत्मीयता की, अद्वैत भाव की स्थापना। दूसरे जीवन व्यवहार में कहीं कोई भटकाव आता हो तो बालक की तरह समझाना कि खाने में रूखी-सूखी मिले, तो भी चलेगा, पर अनुचित पैसे को मत ग्रहण करना। तुम वीर पुरुष हो एवं तुम्हें दुखों में भी धर्म पर स्थिर बने रहना चाहिए। कितनी बड़ी शिक्षा है, कितना प्रेम है गुरु को अपने शिष्य से। कहाँ मिलती है आज ऐसी सिखावन देखने को। तरस जाते हैं हम ऐसे नरपुँगवों को देखने को, जो सामने आए प्रलोभनों को ठुकरा दें। उन्हें भटकाव से रोकने वाला कोई गुरुतत्त्व नहीं है न।
जब गुरु शिष्य को समझाते हैं, तो एक-एक शब्द में प्राण छिपे होते हैं। पत्र के माध्यम से भी मानो वे शक्तिपात करते हैं। एक पत्र श्री रामस्वरूप चायौदिया जी को 7 अगस्त 1950 को लिखा। देखें-
“आपका पत्र मिला। पढ़कर मिलने के समान प्रसन्नता हुई। चित्त का पूर्णतया वश में होना ‘समाधि’ कहलाता है। वह पूर्णावस्था तो अभी देर में प्राप्त होगी, पर जैसे-जैसे आपकी श्रद्धा और साधना आगे बढ़ती चलेगी, वैसे-ही-वैसे मन अपने आप स्थिर होता चलेगा। जप के समय मस्तिष्क के मध्य भाग में अँगूठे के बराबर दीपक की लौ के समान पीतवर्ण गायत्री तेज का ध्यान किया करें। इससे आपका चित्त शाँति और एकाग्रता की ओर अग्रसर होगा।
आपका हमारे प्रति गुरुभाव है। यह अच्छा ही है। पत्थर की मूर्ति को आधार बनाकर भगवान् को प्राप्त करने योग्य श्रद्धा उत्पन्न करने का अभ्यास किया जाता है। किसी गुरु को आधार मानकर अपने अंतःकरण में निवास करने वाले ‘सद्गुरु’ को प्राप्त करने का अभ्यास करना पड़ता है। कालाँतर में जब सद्गुरु जाग्रत हो जाता है, तब वह शिष्य को (अंतःकरण चतुष्टय कोद्ध आपने साथ ले चलता है। आपको वह वास्तविक दीक्षा प्राप्त होने में यह नकली गुरुदीक्षा भी सहायता करेगी। जैसे पहलवानों को लकड़ी के मुदगर उनकी बलवृद्धि में सहायक होते हैं हम मुद्गर मात्र हैं। साधारण मनुष्य। आप जैसे ब्राह्मण बंधुओं के अनन्य सेवक-चरण रज।”
जरा इस पत्र की भाषा तो देखिए। स्वयं की विनम्रता किस सीमा तक? अपने आपको अपने भक्त का अनन्य सेवक, यरण रज कह रहे हैं। यह भी लिख रहे हैं कि अभी अस्थायी रूप से यह भाव जो आपने पैदा किया है, बनाए रखें। सबसे ज्यादा जरूरी है अंदर के सद्गुरु को जगाना। अंदर के गुरु को जगाकर शिष्य की उपमा अंतःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहं) से देकर कितना बड़ा अध्यात्म का पाठ पढ़ाया है, यह वही जान सकते हैं, जिनने गुरुभक्ति के दंगल में थोड़ा-सा व्यायाम किया हो।
अंत में हिंगोली के माधव कौतिक ढाके को लिखा एक पत्र प्रस्तुत है। इससे ज्ञात होता है कि गुरु-शिष्य के अंतर्संबंध किस स्तर के होते हैं। यह पत्र 28-12-1955 को लिखा गया।
“तुम्हें स्वप्न में हम लोग दीखते हैं। हम लोग तुम्हें सदा अपने आस-पास घूमता देखते हैं। यह अपने पिछले जन्मों के संबंधों के कारण ही है।”
गायत्री परिवार की नींव कितनी गहरी है, यह इन पत्रों से समझा जा सकता है। इन्हीं पातियों ने, संबंध-सूत्रों की घोषणा करने वाले ऋषितंत्र ने स्वयं अवतरित हो यह संगठन खड़ा किया है। इस स्नेह-संवेदना की नींव पर खड़े तंत्र को कोई हिचकोला हिला भी नहीं सकता, यह विश्वास इस गुरुपूर्णिमा पर हम सभी सँजोकर उस गुरुतत्त्व के सच्चे अंग-अवयव बनने का प्रयास करें, यही उनके प्रति सच्ची पुष्पाँजलि होगी।