गायत्री-गीता का सार-निष्कर्ष

July 2001

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गीता में गायत्री का रोचक वर्णन मिलता है। गायत्री के भूः भुवः स्वः तीन स्वरूपों की अभिव्यक्ति बड़े ही सहज रूप में की गई है। गीता के प्रथम अध्याय में विषाद योग की विवेचना हुई है। इस विषाद का कारण मोह है। मानव स्वभाव में मोह का होना ही भूः स्थिति है, जो उसे पृथ्वी तत्त्व यानि कि पार्थिवता से कसे-जकड़े हैं। भगवान् कृष्ण ने इससे मुक्ति का मार्ग भुवः और स्वः में बताया है। इस परिप्रेक्ष्य में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को गायत्री का भुवः रूप धारण करने के लिए प्रेरित करते हैं। तत्पश्चात् उन्हें रूप में प्रवेश कराते हैं।

स्वः ब्राह्मी स्थिति है। स्वः का विस्तार समस्त प्राणियों एवं जीवों में ‘स्वः’ के रूप में है। आत्मा के अनंत विस्तार में परमात्मा का दिव्य सौंदर्य झलकता है। इस सृष्टि में वस्तु−तत्त्व अनात्म तत्त्व के रूप में जगत् के सभी पिंडों में व्याप्त हुआ है। जीव माँ के गर्भ में बंदी बनकर रहता है। जन्म के पश्चात् उसे स्वतंत्रता तो मिलती है, परंतु वह स्व के निर्बाध शासन में नहीं आ पता। वह अपने प्रारब्ध कर्मों के कारण सुख-दुःख का अनुभव करता है। मर्त्यलोक में जीव अपने कर्म बंधन को लेकर आता है और कठपुतली की तरह अपने दायरे में नाचता रहता है। इस दायरे को तोड़ना अर्थात् सुख-दुःख, पाप-पुण्य के संसार चक्र से बाहर निकलना ही मुक्ति या निर्वाण कहलाता है। प्रखर एवं कठोर साधना ही इस हेतु एकमात्र उपाय है। भोग वृत्तियों पर विजय प्राप्त कर एवं अंतःकरण को पवित्र एवं निर्मल बनाकर ही प्रकृति से विजय प्राप्त की जा सकती है।

गीता के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में भूः भुवः स्वः तीनों स्थितियों को समझाते हुए उन्हें प्राप्त करने का मार्ग सुझाया गया है। तीसरे अध्याय में इसकी साधना का उपाय कर्मयोग के रूप में वर्णित है। निष्काम कर्म ही स्व की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। कर्मयोग का समस्त मर्म निष्काम कर्म पर ही निर्भर करता है। आसक्ति एवं फलरहित कर्म शरीर की तपस्या है। शरीर जब भगवत् आराधना करेगा, तो उसे निष्काम कर्म का पथ अनुसरण करना पड़ेगा। शरीर कर्म का आधार है। यही कर्म का साधन है। स्व की सिद्धि नैष्कर्म्य अवस्था लाने से प्राप्त होती है। कर्म त्याग इसका उपाय नहीं है वरन् कर्मफल की इच्छा के बिना कर्त्तव्य कर्म करने से वह प्राप्त होता है।

इंद्रिय सुख साँसारिक सुख है। इसे त्यागे बिना भूः से भुवः स्तर तक पहुँचना संभव नहीं है। यह कहा जा सकता है कि समस्त साँसारिक सुखोपभोग को त्याग कर भूः से भुवः स्तर तक पहुँचा जा सकता है। स्वः अवस्था की प्राप्ति हेतु भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, कर्मयोगी से कर्म स्वतः निसृत होता है। कर्मयोगी के लिए कर्म जीवन की सहज क्रिया के समान हो जाता है। जैसे पलकों का झपकना, श्वास का चलना आदि। कर्म के पीछे कर्त्तापन का होना अज्ञानता का द्योतक है। यही कर्त्तापन का अभाव ज्ञानातीत अवस्था की ओर संकेत करता है। कर्मयोगी दुःखी को देखकर द्रवित हो उठता है। द्वेषी के लिए उसमें स्वतः ही प्रेम उमड़ने लगता है। भूखे व्यक्ति को देखकर भोजन देने के लिए उसके हाथ अपने आप बढ़ ही जाते हैं। इस कार्य के लिए उसे कुछ सोचने की आवश्यकता नहीं होती ।

कर्मयोगी स्वः में लीन रहता है। लोक कल्याण हेतु वह नदी के समान सदा प्रवहमान् रहता है। वह अनासक्त रहकर कर्त्तव्य कर्म करता है। इसी कर्म में उसे आनंद मिलता है। दुनिया से वह कुछ भी इच्छा नहीं करता है। वह त्रिलोकी के समस्त वैभव को तिनके की तरह फेंक देता है। उसे नाम, यश, मान, प्रतिष्ठा आदि किसी भी चीज की इच्छा नहीं होती। वह भगवत् अर्पित कर्म करता है। न उसे पुण्य की इच्छा होती है और न पाप की । वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त रहता है। यही अवस्था सच्चे कर्मयोगी की द्योतक है। यही नैष्कर्म्य अवस्था कहलाती है। इस तरह स्व की साधना कर्मयोगी की साधना है।

गायत्री का द्वितीय चरण ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि’ का है। इस चरण में गायत्री विराट् कल्पवृक्ष का रूप धारण करती है। इसकी छाया में समस्त लोक विराजमान है।

‘तत्’ शब्द का अर्थ ‘वह’ है। ‘वह’ उस अनंत-अखण्डरूपी परमात्मा की ओर इंगित करता है। वह परमात्मा समस्त लोकों से परे है। तत् शब्द से दूसरे अन्य लोकों की उड़ान आरंभ हो जाती है। भू-लोक से मृत्युरूपी रहस्य को भेदकर जन्म और मोक्ष को समझने वाला ही तत् शब्द से तादात्म्य कर सकता है। परम सत्य सभी लोकों से परे है। अतः सभी लोकों से उस पार ही सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। कुरान में परमात्मा को सातवें आसमान पर स्थित माना गया है। वैदिक ज्ञान के अनुसार भी सात लोक हैं। ये हैं-भूः भुवः स्वः महः जनः तपः एवं सत्य लोक। परम सत्य का बोध इन सातों लोकों के ऊपर ही हो सकता है।

भूः लोक हमारी आवास स्थली है। यहाँ पर हम जीवनोपयोगी साधन पाते हैं। भुवः लोक भावनाओं का जगत् है। जहाँ पर मन अपनी अन्य कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है। इस लोक में कला, विद्या, संगीत की प्राप्ति होती है। प्रत्येक कामना के पीछे सुखप्राप्ति का उद्देश्य निहित होता है। भुवः लोक ऊपर स्वः लोक आता है। जिसमें सुख का वास है। वहीं स्वर्ग लोक है। जो सुख की पराकाष्ठा है। तन भूलोक का, अचेतन मन भुवः का और सचेतन मन स्वः लोक की रचनाएँ हैं।

महः ज्ञान का लोक है। इस लोक में बुद्धि की उत्पत्ति होती है। वहाँ पर सुख की समस्त आकाँक्षाएँ एवं इच्छा को परित्याग करके प्रवेश किया जा सकता है। इस लोक में ज्ञान के आनंद का साम्राज्य है। उसे प्रज्ञा लोक भी कहते हैं। जनः सृजनात्मक लोक है। इस लोक में मनुष्य प्रकृति पर अधिकार कर लेता है। इससे समस्त प्रकार के चमत्कार आसान एवं सहज हो जाते हैं योगी प्रकृति से अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त कर सकता है।

तपस्वियों का लोक तपः लोक कहलाता है। तप करके मनुष्य विदेह हो जाता है। तप द्वारा देह के कष्टों एवं कठिनाइयों से मुक्ति पाई जा सकती है। तपस्वी शरीरगत कष्टों से ऊपर उठ जाता है। प्रभु ईसा ने इस लोक की साधना कर ली तो विदेह हो गए। क्रूसारोहण के समय में भी वे मुसकराते रहे। माँडव्य ऋषि भी शूली पर चढ़ाए गए, परंतु वे तनिक भी नहीं घबराए। तपस्या के बाद ही यह स्थिति प्राप्त होती है। तप द्वार अंतःकरण निर्मल एवं पवित्र हो जाता है। तपस्वी का मन एवं हृदय प्रखर होता है। पूर्ण तपस्वी सत्य लोक का आरोहण करता है। इस लोक में पहुँचकर उपासना करने पर परम सत्य का भान होता है। परम सत्य ही कुरान का खुदा है।

ये सातों लोक और उनके आकार सभी मनुष्य के अंदर समाहित हैं। उन्हें जाग्रत् कर ही बाह्य जगत् में इनका विस्तार किया जा सकता है। तत्त्वद्रष्टा की दृष्टि स्थूल से सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम होकर सत्य, परम सत्य तक पहुँचती है। प्रत्येक लोक दूसरे सूक्ष्म लोक में समाहित होता है। कारण कार्य से अधिक सूक्ष्म होता है और कार्य के हर अंश में विद्यमान रहता है। प्रत्येक ऊपर का कारण लोक अपने उच्च लोक में प्रविष्ट होकर व्याप्त है। अतः परम सत्य सर्वव्यापक सूक्ष्म शक्ति है। इसे ही परम ब्रह्म कहा गया है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने ‘एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति’ कहा है। भगवान् बुद्ध ने इसे शून्य अवस्था के रूप में निरूपित किया है। इसी को प्रभु यीशु ने अपने शब्दों में इस तरह रूपायित किया है, “मैं अपने पिता की तरह हूँ।” महर्षि दयानंद ने उसे परमात्मा के रूप में स्वीकार किया और उसे संपूर्ण जगत् का कारण और आधार बताया है। गायत्री का सवितुः रूप यही है, जो समस्त लोकों को धारण करने वाली शक्ति है।

वरेण्यं, जो वरण करने योग्य अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। परमात्मा गायत्री के भूः भुवः स्वः के रूप में और फिर तत्सवितुः रूप में जन्मदात्री, पालनकर्ती, सुख देने वाली, अलौकिक, सभी लोकों को धारण करने वाली शक्ति है। अतः वह अद्वितीय, अनुकरणीय, सर्वश्रेष्ठ और वरेण्य है।

अलौकिक, सभी लोकों को धारण करने वाली शक्ति है। अतः वह अद्वितीय, अनुकरणीय, सर्वश्रेष्ठ और वरेण्य है।

भर्ग अर्थात् शुद्ध स्वरूप और पवित्र करने वाला चैतन्य ब्रह्मस्वरूप। वह निष्काम है। कामना से वह अपवित्र नहीं हो सकता। कामना से क्रोध का जन्म होता है। निष्काम कर्म में कामना की अपवित्रता एवं क्रोध की कालिमा नहीं होती। वह अनंत शक्ति है। लोभ उसे स्पर्श नहीं कर सकता। समस्त प्राणियों के प्रति समान रूप से करुणामयी है। अतः वह मोहरहित है। सर्वव्यापक होने के कारण वह निरहंकारी है। उसका निराकार स्वरूप मत्सर को दूर करता है। इस प्रकार वह काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर से रहित है। अतः वह शुद्ध स्वरूप है।

देवस्य “यो दीव्यति दिव्यते वा स देवः” जो सभी सुखों को देने वाली स्वयं प्रकाशित आनंदस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप है वही देवस्य रूप है। “यो दीव्यति क्रीउति स देवः” जो अपने स्वरूप में ही आनंद मग्न रहे तथा अपने सहज स्वभाव से सभी जगत् की निर्मार्ती शक्ति है वह देव है। “विजिगीषते स देवः” जो सबको जीतने वाला है वह देव है। “व्यवहारयति स देवः” जो न्याय और अन्याय रूप व्यवहारों को जानने वाला उपदेष्टा है वह देव है। “यश्चराचरम् जगत् द्योतयति” जो समस्त चर-अचर जगत् का प्रकाशक है वह देव है।

“यः स्वापयति स देवः”

जो प्रलय में अभिव्यक्त सभी जीवों को एक साथ सुलाता है वह देव है। “यः कामयते काम्यने वा देव” जिसके सब सत्य काम और जिसकी प्राप्ति की कामना करते हैं वह देव है। “यो गच्छति गम्यते वा स देवः” जो सभी में व्याप्त और जानने के योग्य है, वह देव है।

धीमहि अर्थात् धारण करना। गायत्री महाशक्ति के स्वरूप को तत्त्वदृष्टि से जाना जा सकता है और वह तत्त्वदृष्टि की प्राप्ति उसके गुणों के सतत अभ्यास से ही संभव है। अतः गायत्री के गुणों को धारण किए बिना उसके जगत् जननी स्वरूप को जान पाना दुष्कर कार्य है।

गायत्री के तीसरे चरण में मंत्रद्रष्टा ऋषि उस प्रयोज्य को स्पष्ट करते हैं कि परमात्मा के उपर्युक्त प्रथम एवं द्वितीय चरण में वर्णित गुणों को धारण करें, ताकि वह परमात्मा हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें। वह हमारी बुद्धि को अपनी ओर आकर्षित करे। यह एकमेव पथ है। अज्ञान, अभाव और अशक्ति से मुक्ति पाने का यही एक उपाय है।

गीता में गायत्री साधना का भी उल्लेख मिलता है। विषाद अथवा दुःख ही मानव मन को भुवः अवस्था में अर्थात् दुःख-निवारण के लिए गहरी भाव अवस्था में प्रवेश कराता है। वस्तुतः दुःख ही सच्चा सहायक एवं सहयोगी है। यही चिरस्थायी साथी हे। सुख तो बिजली की चमक के समान आता है और चला जाता है। दुःख ‘स्व’ आनंद की अवस्था में पहुँचा देता है।

परम पिता परमात्मा भूः स्वरूप में जन्मदाता है। इस तरह हम सदा व्यवहार में इस स्वरूप का अनुभव करते रहें। हमारा व्यवहार हर परिस्थिति में प्रेमपूर्ण रहे। प्रेम मुक्ति का कारण है, जबकि मोह बंधन का। भुवः स्वरूप की साधन है प्रेमपूर्ण व्यवहार। स्वः की साधना अपने आनंदस्वरूप में स्वयं स्थित होने की है। यही साधना समाधि तक पहुँचा देती है। इस प्रकार गायत्री के प्रथम चरण की साधना हमें अंतर्मुखी बना देती है। इसके प्रयोग से संसार में व्यवहार सहज एवं आनंदमय हो जाएगा।

‘स्वः’ जब समष्टि बनकर सबको अपने में देखता है, तो त्रिगुणात्मक प्रकृति के प्रीव से मुक्त हो जाता है। अपने अंदर में सवितारूपी उगते सूर्य का ध्यान करना चाहिए। योगी वही है जिसके अंतर में सूर्य सदैव प्रकाशमान् रहे और बाहर निष्काम कर्म का प्रवाह बहता रहे। अतः समस्त चराचर जगत् को जन्म देने वाले परमात्मा का उसके सविता रूप में ध्यान करते हुए सदा ही निष्काम कर्म में रित रहना चाहिए। इससे सभी कषाय-कल्मष भस्मीभूत हो जाते हैं। यही गायत्री एवं गीता का सार है। इसी साधना से बुद्धि निर्मल होती है एवं भगवान् की ओर प्रेरित होती है।


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