गुरु-महिमा (kavita)

July 2001

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साध्य मेरे! सधना करते रहो तुम। सिद्धि की मैं कामना करती रहूँगी॥

जानती हूँ तुम कहाँ कितने विवश हो। किसलिए यह शूल्य पथ तुमने गहा है॥ है बड़ा परमार्थ-सीमित स्वार्थों से। विज्ञ, प्रज्ञों ने सदा ऐसा कहा है॥

अग्रगामी बन तुम्हारे ध्येय पथ की। मार्गव्यापी शूल, मैं हरती रहूँगी॥ सिद्धि की..........

लोकमंगल का सुखद नरमेध है यह। प्राण सूखेंगे, मगर समिधा बनेगी॥ माँग लूँगी मैं सहस्रों जन्म प्रभु से। हर जीम में आत्मा आहुति बनेगी॥

यज्ञ के ऋत्विज! सदा निःशंक रहना। मैं सरित हूँ, सिंधु को भरती रहूँगी॥ सिद्धि की.........

मानना मत तुम, कि एकाकी कहीं हो। प्राण में यह प्राण मेरा ही घुला है॥ घ्राण में जो गंध-सी आती कभी है। नाथ! श्रद्धा-सुमन मेरा ही खिला है॥

छल लिया पतझर ने भी यदि कभी तो। पात बन-बन डाल से झरती रहूँगी॥ सिद्धि की..........

पीर की क्या बात है होती रहेगी। नीर का क्या सोचना बहता रहेगा॥ प्राण ये करना प्रतीक्षा जानते हैं। दुःख दूरी का हृदय सहता रहेगा॥

भव्य मेरे! भावना करते रहो तुम। ‘मानता का दीप’ मैं धरती रहूँगी॥

सिद्धि की मैं कामना करती रहूँगी॥

-माया वर्मा


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