गुरुपूर्णिमा संदर्भ-2 - ‘सद्गुरुणाँ आश्रय’ का दुर्लभ सुयोग

July 2001

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गुरुपूर्णिमा सद्गुरु के प्रति अपने ‘स्व’ के अर्पण और समर्पण का महापर्व है। बड़े ही बड़भागी होते हैं वे लोग, जिन्हें सद्गुरु के दर्शन मिलते हैं। उनमें भी धन्यभागी वे हैं, जिन्होंने अपने समूचे अस्तित्व को उनके लिए दे डाला। स्वयं को समूचे तौर पर उनके चरणों में निछावर कर दिया। सभी शास्त्रकार इस बारे में एक मत हैं कि मनुष्य घटना है।

परंतु यह दुर्लभ सुयोग व्यर्थ चला जाता है, यदि सद्गुरु न मिलें। सद्गुरु का मिल नहीं मनुष्य देह में मनुष्यत्व को अंकुरित करता है। यह अंकुरण उनके दर्शन मात्र से हो जाता है और यदि दर्शन करने के साथ उनकी पहचान भी हो गई, तब तो समझो कि मुमुक्षा जग पड़ी। मनुष्य में देवत्वप्राप्ति के कपाट खुल गए और यदि उन्होंने अपना लिया, अपने आश्रय में रख लिया, तब तो परम तत्त्व की प्राप्ति निश्चित ही हो गई।

ऊपर कही ये तीनों बातें मात्र कुछ शब्दों का हेर-फेर नहीं हैं। इनमें बड़े गहरे मायने-मतलब छुपे हैं। यदि ऐसा न होता तो महान् तपस्वी ऋषिगण यह न कहते, “दुर्लभ त्रयमेतत् दैवानुग्रह हेतुकम। मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं सद्गुरुणाँ संश्रयः।” अर्थात् तीन चीजें इस जीवन में अति दुर्लभ हैं और इनको प्राप्ति का कारण हमारा पुरुषार्थ नहीं, बल्कि देवकृपा है और ये तीनों चीजें हैं, (1) मनुष्यत्व, (2) मुमुक्षत्व एवं (3) सद्गुरु का आश्रय।

इस ऋषिवचन की गहराई समझने के लिए आवश्यक है कि दैवानुग्रह के निहितार्थ को जाना जाए। उसके तत्त्व को हृदयंगम किया जाए। दैवानुग्रह का अर्थ है, ईश्वर कृपा या फिर उसके प्रतीक-प्रतिनिधि-सद्गुरु की कृपा। सामान्य क्रम में जीवन में हम जो कुछ पाते हैं, उसके मूल में हमारा अपना पुरुषार्थ होता है। पुरुषार्थ के बल पर, दम पर ही हम इस संसार में बहुत कुछ पाने का स्वप्न देखते हैं और फिर उस स्वप्न को साकार करते हैं।

पुरुषार्थ की महानता और गरिमा असंदिग्ध है। किंतु इसकी सीमा लोक और लौकिकता तक ही है। सारे पुरुषार्थ अहं के दायरे में ही घूमते-मँडराते रहते हैं। इस अहं के विसर्जन के बाद ही अलौकिकता का द्वार खुलता है और ईश्वर कृपा जीवन में सक्रिय होती है। यह कृपा ही अध्यात्म का मूल तत्त्व है। आध्यात्मिक जीवन की निधि है। यही वह प्रारंभ है जहाँ से ‘तमसे मा ज्योतिर्गमय’ का महामंत्र सक्रिय एवं साकार रूप लेता है। मनुष्यत्व की अमूल्य निधि इसी बिंदु पर प्राप्त होती है।

सही मायने में यह सद्गुरु के दर्शन का सुफल है। सद्गुरु मनुष्य देह में रहते हुए भी ईश्वर ही होते हैं। इस तत्त्व को बताते हुए ही महात्मा कबीर ने कहा है कि उन्हें तो अंधा ही समझो, जो सद्गुरु को केवल मनुष्य समझते हैं। जब तक हम सद्गुरु को निरा और अपने जैसा इन्सान समझते रहे, तब तक समझो कि उनका दर्शन हमें हुआ ही नहीं।

उनके ईश्वरीय भाव का दर्शन ही यथार्थ में सद्गुरु का दर्शन है। यदि हम यह अनुभव कर सकें कि इस हाड़-माँस की देह में स्वयं सर्वेश्वर विराजमान हैं, तो समझो कि हमें सद्गुरु का दर्शन मिल सका। इस तरह दर्शन पाने के बाद फिर मानव देह में मनुष्यत्व का उदय हुए बिना नहीं रहता।

मनुष्यत्व का उदय हुआ, इसका मतलब यह है कि हमने मनुष्य में निहित सारी संभावनाएँ जान लीं। जब तक हमको यह पता नहीं कि मनुष्य का निहितार्थ क्या है? मनुष्य क्या कर सकता है और क्या पा सकता है? मनुष्य का सर्वोच्च प्राप्य एवं उसकी परमोच्च ऊँचाई क्या है? तब तक हम मानव देह में रहते हुए भी मनुष्यत्व से वंचित हैं। सद्गुरु के दर्शनों से ही मनुष्य में निहित संभावनाओं का सही-सही पता चलता है और तभी शास्त्रकारों ने कहा है कि मनुष्यत्व की प्राप्ति सद्गुरु के दर्शन का सुफल है।

इन संभावनाओं को जानने के बाद जो अगला तत्त्व अंकुरित होता है, वह है मुमुक्षा। मुमुक्षा का अर्थ है-स्वयं में निहित दैवी संभावनाओं को साकार करने की दिव्य इच्छा। मुमुक्षु दिव्य इच्छा इसलिए है, क्योंकि इसके उदय होते ही अन्य सभी लौकिक इच्छाएँ स्वयं ही तिरोहित हो जाती हैं। जिस तरह सूर्य एवं अंधकार दोनों एक स्थान पर एक साथ नहीं रह सकते। उसी प्रकार मुमुक्षा एवं लौकिक कामनाएँ एक साथ नहीं रह सकते। उसी प्रकार मुमुक्षा एवं लौकिक कामनाएँ एक साथ नहीं रह सकतीं। मुमुक्षा के उदय होते ही मन-प्राण एक साथ दिव्यत्व एवं देवत्व के लिए मचल उठते हैं। ऐसे में भला क्षुद्र कामनाएँ व गर्हित वासनाएँ कहाँ टिकी रह सकती हैं।

मुमुक्षा के प्रबल होते ही परम कृपालु सद्गुरु स्वयं ही अपने आश्रय में ले लेते हैं। लोकभाषा में जिन्हें हम सद्गुरु द्वारा ली जाने वाली परीक्षाएँ कहते हैं, वह भी प्रकाराँतर से सद्गुरु की कृपा के क्रमिक सोपान ही हैं। ये न हों तो, न तो हमारे मनुष्यत्व का निखार होगा और न ही मुमुक्षा अपने प्रबलतम रूप में प्रदीप्त होगी।

मुमुक्षा के जगते ही स्वयं की क्षुद्रताएँ अपने आप ही सद्गुरु के विराट् में विलीन होने लगती हैं। अपनी अहंता हर पल-हर क्षण नष्ट होती है और सद्गुरु की महानता प्रतिपल-प्रतिक्षण प्रकट होती है। क्षुद्रता के महानता में परिवर्तन की धन्य घड़ी यही है। यही वह पल है, जिसके लिए गोस्वामी जी महाराज ने कहा है-

सन्मुख होहि जीव मोहिं जबहीं। कोटि जन्म अघ नासहिं तबहीं॥

माँ की गोद में भला उसके प्राणों से प्यारे शिशु को क्या भय? ठीक इसी तरह अपने प्यारे सद्गुरु के परम पावन आश्रय में उसकी शिष्य-संतान को क्या भय? सद्गुरु का आश्रित शिष्य स्वयं अपने गुरु का ही प्रतिरूप होता है। क्योंकि सद्गुरुणाँ आश्रय का मतलब ही है कि वह समर्पण, विसर्जन एवं विलय की सारी प्रक्रियाएँ पूर्ण कर चुका। अब तो बस उसका जीवन ‘सोऽहं’ की अखंड वृत्ति ही है।

सद्गुरु के आश्रय में शिष्य का जीवन एक ऐसी पवित्र ज्योति बन जाता है, जिसको कभी बुझना ही नहीं है। सच्चे शिष्य में सद्गुरु स्वयं ही प्रकाशित-ज्योतित होते हैं। शिष्य तो बस यंत्र रह जाता है, यथार्थ कर्त्ता तो बस सद्गुरु ही होते हैं। गुरु पूर्णिमा पर (5 जुलाई, 2001) प्रतिवर्ष हमें ऐसे ही सच्चे शिष्यत्व का बोध कराने आता है। हमें हमारी उन कमियों-कमजोरियों के प्रति आगाह करने आता है, जिसकी वजह से अभी हमारा अर्पण एवं समर्पण अधूरा है। यदि इस तत्त्वबोध को हम अनुभव कर सकें, तो निश्चित रूप से यह गुरुपूर्णिमा हमारे लिए ‘सद्गुरुणाँ आश्रय’ का दुर्लभ सुयोग सिद्ध हो सकेगी।


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