प्रभु के विराट् स्वरूप का दिव्यदर्शन करने वाले वीरवर अर्जुन अब तो महाभारत के महासमर में विजयश्री पा चुके थे। धर्मराज युधिष्ठिर के धर्मराज्य की यशपताका दिग्दिगंत में अपना प्रभाव विकीर्णित कर रही थी। अभी हाल में संपन्न हुए अश्वमेध महायज्ञ से जहाँ युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा और भी अधिक प्रतिष्ठित हुई, वहीं महावीर अर्जुन के रणकौशल के सामने सभी को नतमस्तक होना पड़ा। अर्जुन समेत सभी पाँडव इसको कृष्णकृपा का चमत्कार मानते थे।
अपने आराध्य की कृपा को भक्त अपना अधिकार मानता है। भगवान् भी भक्तवत्सल हैं, वे भी हर पल-हर क्षण अपने भक्त पर भाँति-भाँति से कृपादृष्टि करते रहते हैं। हाँ उनकी इस कृपा के रंग-रूप अवश्य विविध-बहुविध होते हैं। उस दिन भी अश्वमेध यज्ञ की समाप्ति के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया, “प्रभो! महाभारत के महासागर के मैदान में मैंने आपके विराट् स्वरूप के दर्शन किए थे। प्रभु! उस दिव्यदर्शन ने मेरे जीवन को धन्य कर दिया है। मेरी एक आकाँक्षा और भी है।”
“कहो सखा!” अंतर्यामी भक्तवत्सल प्रभु मुसकराए।
“जन-जन आपको मायापति कहता है। मैं भी आपकी इस माया को देखना चाहता हूँ।” अर्जुन के स्वरों में उनकी उत्कट इच्छा झलक रही थी। वे बोले- “स्वयं आपने भी मुझे गीता का उपदेश करते हुए ‘मन माया दुरत्यया’ कहा था। आखिर वह दुरूह माया कैसी है? मैं उसे जानना चाहता हूँ।”
भगवान् इशत् मुसकराए और कहने लगे- “पार्थ! जब तुम कहते हो, तो मैं तुम्हारी इस इच्छा को भी पूरा करूंगा, किंतु समय आने दो।”
इस वार्ता को हुए काफी समय बीत गया। अर्जुन भी भूल ही गए कि मैंने भगवान् से उनकी माया के चमत्कारदर्शन की प्रार्थना की थी।
एक प्रातः भगवान् कृष्ण आए और आते ही कहने लगे- “हे अर्जुन! मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है। शीघ्रता से भोजन कराओ।”
महारानी द्रौपदी ने कहा- “आप थोड़े समय रुकें केशव! मैं अभी भोजन तैयार किए देती हूँ।”
द्रौपदी के इस आश्वासन के बावजूद भगवान् की अधीरता कम नहीं हुई। वह तो आज कुछ और ही सोचकर आए थे। भगवान् की अधीरता एवं व्यग्रता को कम करने के लिए अर्जुन ने उनसे कहा-”माधव! जब तक द्रौपदी भोजन तैयार करें, तब तक हम लोग नदी पर स्नान कर आएँ।”
कृष्ण को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। दोनों स्नान के लिए नदी की ओर चल दिए। अर्जुन चाहते थे कि स्नान करके लौटने में थोड़ा समय अधिक लगे, ताकि द्रौपदी वापस लौटने तक खाना बना लें। इसलिए वह धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। अंतर्यामी प्रभु सब कुछ जानते हुए नासमझ की तरह चले जा रहे थे। नदी के तट को आना ही था, सो वह आ गया। दोनों मित्र अधोवस्त्रों में नदीस्नान करने के उद्देश्य से घुस गए। उसी समय अर्जुन के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ, क्यों न कोई ऐसा खेल किया जाए, जिससे थोड़ा अधिक समय बीत जाए।
अर्जुन ने तत्काल कृष्ण से कहा- “आज हम लोग शर्त लगाकर देखते हैं कि पानी के अंदर कौन अधिक देर तक रह सकता है?”
कृष्ण सहर्ष तैयार हो गए। दोनों ने पानी में गोता लगाया। अर्जुन अपने प्रयास के बावजूद पानी के अंदर अधिक देर तक न ठहर सके। उन्होंने अपना मुँह पानी से बाहर निकाला। पानी से मुँह निकालते ही वह चकित रह गए। वहाँ न तो कृष्ण थे, न वह किनारा, न ही वह स्थान।
अब वह कर भी क्या सकते थे। तत्काल नदी से बाहर निकालकर किनारे-किनारे चल पड़े। अपनी उधेड़बुन में वह यह भी भूल गए कि वह स्नान करने भरी दुपहरी में आए थे, किंतु इस समय सूर्योदय होने वाला था। अपनी राह पर चलते हुए उन्हें एक विशाल नगर दिखाई देने लगा। वह शीघ्रता से उस ओर बढ़े। नगरद्वार पर पहुँचते ही उनकी भेंट उस नगर के प्रधानमंत्री एवं सेनापति से हुई। वे सब उन्हें बिना समय गँवाए राजदरबार में ले आए।
राजदरबार में पहुँचते ही प्रधान आमात्य ने निवेदन किया-”श्रीमन्! हमारे महाराज रात्रि में स्वर्गवासी हो गए हैं। उनका कोई वारिस नहीं है। इस राज्य का नियम है राजा की मृत्यु के बाद उसका वारिस न होने पर जो भी व्यक्ति प्रातःकाल सर्वप्रथम दिखाई दे, उसे ही राजा बना दिया जाएं अर्जुन कुछ कह न सके। उन्हें वहाँ का शासक बनना पड़ा। उन्हें अपने सखा कृष्ण एवं बंधुओं की याद बार-बार सताती रही। पर वे विवश थे। इसी विवशता में मंत्रियों के अत्यधिक आग्रह से उन्हें विवाह भी करना पड़ा।
अब उन्हें राजा बने काफी समय व्यतीत हो गया। उनकी पत्नी अनिंद्य सुँदरी थी। इस बीच उनके तीन पुत्र भी हो गए थे। उनका जीवन, परिवार तथा राज्य संतोषप्रद स्थिति में चल रहा था।
तभी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में महारानी की मृत्यु हो गई। महारानी का शव नदी किनारे श्मशान घाट पर लाया गया। अर्जुन भी साथ थे। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि श्मशान में दो चिताओं का निर्माण किया जा रहा है। वह अभी कुछ सोच पाते, उससे पूर्व ही महारानी के शव को नगरवासियों ने एक चिता पर रख दिया। दूसरी चिता पर वे अर्जुन को पकड़कर रखने लगे। अर्जुन द्वारा विरोध करने पर नगरवासियों ने उन्हें समझाया- हमारे राज्य का नियम है कि पत्नी की मृत्यु के बाद पति को पत्नी के साथ जिंदा जलकर ‘सती’ होना पड़ता है।
पहले तो अर्जुन ने उनसे काफी अनुनय-विनय की। किंतु कुछ परिणाम न निकलने पर उन्होंने कुछ सोचते हुए नगरवासियों से कहा-”आप लोगों की बात मानने में मुझे कोई हर्ज नहीं है, परंतु इसके पहले मुझे नदी में स्नान की अनुमति दें।” अपने इस प्रयास के साथ ही उन्हें कृष्ण पर क्रोध भी आ रहा था।
अर्जुन ने पानी में गोता लगाया और पानी के भीतर-भीतर बहने का प्रयास करने लगे। परंतु तभी समवेत आवाजें उन्हें सुनाई पड़ीं, “पकड़ो-पकड़ो भागने न पाए।” वे यह सब सुनकर भयभीत हो रहे थे। किंतु पानी में कितने समय वे अंदर रह सकते थे? रुककर उन्होंने अपना मुख बाहर निकाला, सोचा अब तो मरना ही है।
पर यह क्या? यहाँ तो पहले का कुछ नहीं था। यह तो उनका अपना नगर था। वह अभी कुछ सोच पाते, तभी श्रीकृष्ण ने भी पानी से अपना मुँह बाहर निकालकर हँसते हुए कहा- “अर्जुन तुम हार गए, मैं जीत गया।”
अर्जुन तो हैरत में थे। वर्षों तक राज्य, पत्नी, पुत्र-वह सब क्या था? कृष्ण उनकी परेशानी जानते हुए भी कह रहे थे,”अरे भाई! इस शर्त में तुम हार गए, तो क्या हुआ? आप घर चलो, मुझे जोरों की भूख लगी है।” अर्जुन जैसे-तैसे घर की ओर वापस चले। जाते समय वह सोच रहे थे कि इतने समय में द्रौपदी ने न जाने कितनी बार खाना बनाया होगा। पर घर पहुँचने पर तो वह हैरान रह गए, द्रौपदी तो अभी तक सब्जी छील रही थी। कृष्ण ने आते ही व्याकुलता दिखाते हुए कहा- “अभी तक खाना नहीं बना, मुझे जोरों से भूख लगी है।”
तब द्रौपदी ने कहा-”आप लोगों को नदी तक जाने-आने में कुछ क्षण ही तो हुए हैं।” यह सुनकर तो अर्जुन और हैरान रह गए। अर्जुन को चिंतित देख द्रौपदी ने पूछा-”भोजन तो मुझे बनाना है, आप क्यों चिंता कर रहे हैं?” तब श्रीकृष्ण ने विनोद में कहा-”हम दोनों ने शर्त लगाई और ये हार गए हैं। इसीलिए परेशान है।”
थोड़ी देर में भोजन तैयार हो गया। अर्जुन-श्रीकृष्ण दोनों ही भोजन करने लगे, पर अर्जुन अभी भी परेशान थे। द्रौपदी के आग्रह पर उन्होंने अपनी आपबीती कह सुनाई। सब कुछ सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसते हुए बोले-”पार्थ! वह मेरी माया का दर्शन था।” अब अर्जुन ने कहा-”प्रभो! अगर आपको माया दिखानी ही थी, तो मुझे कह देते। मैं कैसे मानूँ कि वह आपकी माया ही थी।”
श्रीकृष्ण मुसकराए- “पार्थ! कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद कर लो।” मेरी माया का भान तुम्हें पुनः हो जाएगा।” अर्जुन ने जैसे ही आँखें बंद कीं, वह पुनः श्मशानघाट पर पहुँच गए। वही पकड़ो-पकड़ो की आवाजें सुनाई देने लगीं। अर्जुन ने घबड़ाकर अपनी आँखें खोल दीं। वह पसीने से तरबतर हो गए। कृष्ण के मुख पर मंद स्मित था।
अर्जुन ने कृष्ण से निवेदन किया-”प्रभु! मैं सर्वतोभावेन आपकी शरण में हूँ। मुझे आपकी माया का चमत्कार नहीं देखना है। मुझे अपनी शरण में ले लो माधव।” कृष्ण का वरद्हस्त अर्जुन के सिर का स्पर्श करने लगा तथा उन्होंने अर्जुन को अपने हृदय से लगा लिया। यह भक्त और भगवान् का अलौकिक मिलन था।