जनसहयोग (Kahani)

November 1999

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काशीनरेश की धर्मपत्नी बड़ी प्रतिभावान् और सुँदरी थी। एक दिन दासियों समेत प्रातःकाल गंगास्नान को गईं। अभ्यास न होने के कारण ठंड से काँपने लगीं। सो उन्होंने गंगातट पर बनी झोपड़ियों को जलाकर ठंडक छुड़ाने का प्रयत्न किया।

यह सूचना काशीनरेश तक पहुँची। उन्होंने रानी को दरबार में अपराधी की तरह बुलाया और कहा कि वे सारे कीमती कपड़े उतारकर भिखारियों जैसे वस्त्र पहनें और अज्ञात रूप में भिखारियों के साथ रहकर उसी तरह भिक्षा माँगे और उपलब्ध धन से जली हुई झोपड़ियों को नई बनवाएँ। रानी अपनी सजा पूरी करके लौटी, तो काशीनरेश ने उनका सम्मान किया और कहा-” देवि, राज्य हमारा परिवार है। हम इस परिवार के प्रमुख हैं। हम जिन आदर्शों का स्वयं पालन करेंगे, वही राज्य में पनपेंगे। तुम से भूल हुई, उसका प्रायश्चित सहर्ष करके तुमने प्रजा का विश्वास ही नहीं जीता, श्रेष्ठ परंपराओं को भी पोषण दिया है।”

अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट अपनी सफलता का रहस्य बताते हुए कहा करते थे-”मैंने अपने को सदा सौभाग्यशाली समझा है, समय-समय पर ऐसा ही दूसरों पर प्रकट भी किया है। इस दुनिया में सहयोग उन्हीं को मिलता है, जिन्हें समर्थ, सुयोग्य और सफलता तक पहुँचने वाला समझा जाता है। असमर्थों और अभागों को सस्ती सहानुभूति भर मिल सकती है, पर उन्हें कहीं से कोई कहने लायक सहायता नहीं मिलती।”

संसार में जिन्होंने भी महत्वपूर्ण सफलताएँ पाईं हैं, उन सबने जनसहयोग अर्जित करने का प्रयत्न किया है। एकाकी मनुष्य कितना ही सुयोग्य क्यों न हो, बड़े काम करने और बड़े उत्तरदायित्व वहन करने में सफल नहीं हो सकता।


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