इस दीपोत्सव पर्व पर हमारी आस्था का बुझा दीप जले

November 1999

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“तमसो मा ज्योतिर्गमय” इस पावन संदेश के साथ दीपावली फिर आ गई। गगनचुँबी अट्टालिकाओं से लेकर छोटी-छोटी झोपड़ियों में कहीं रंग-रोशनी की जगमग, तो कहीं टिमटिमाते दीप, लेकिन इतना तय है कि अमीरी-गरीबी की भावनाओं से ऊपर उठकर रोशनी पूरे भारतवर्ष में होगी। आखिर दीपावली है न। कहीं दीपों से सजी सैकड़ों पंक्तियाँ जैसे कतार में खड़े जुगनुओं का समूह चमक रहा है, तो कहीं आसमान से सितारों को जमीन पर बिछा देने वाली इंद्रधनुषी आभा। हर ओर जगमग-जगमग।

वाचिकतौर पर दीपावली दीप और अवली इन दो शब्दों के मेल से बना है, जिसका अर्थ होता है, दीपों की पंक्ति। महाकवि सूर ने इसे दीपमालिका कहा है। अपनी देवसंस्कृति में दीपक को ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक माना गया है। कृष्णभक्त कवियों ने दिवारी, दीवाली या दीपमालिका के अवसर पर दीपकों की उस पंक्ति का उल्लेख किया है, जिसके प्रकाशपुँज से अँधेरा मिट जाता है। दीपावली के दिये लोकजीवन के जागरूक पहरुए हैं। ये दिये सृष्टि के महासागर के अंतराल में चमकते-दमकते मुक्ता है। ये दीपक लोकजीवन के असंख्यों तनावों-निराशा को अपने तरल प्रकाश में विलीन कर देते हैं। निश्चित रूप से इस कथन में गहरी सार्थकता है कि दीपोत्सव आशा, उत्साह एवं उमंग को संचारित-संवाहित करने वाला ज्योतिपर्व है।

लक्ष्मीपूजन की अनवरत परंपरा को देखते हुए इसे वैदिककालीन पर्व कहा जा सकता है। भारत में निवास करने वाली द्रविड़ एवं अन्य सभ्यताएँ पहले से दीपावली मनाती थीं। “एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स” के अनुसार द्रविड़ जाति के लोग भू-प्रेतों से रक्षा के लिए दीपावली के अवसर पर दीप जलाते थे और मशाल लेकर नृत्य करते थे।

प्राचीन हड़प्पाकाल की खोज में देवी लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई थी, जो इस बात की पुष्टि करती है कि उस काल में भी दीपावली मनाई जाती थी। इसी प्रकार की मूर्ति ईसा से 4500 वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ों सभ्यता के पुरातत्वविदों को प्राप्त हुई है। इसमें लक्ष्मी की मूर्ति के दोनों ओर दीपक बने हुए हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए दीपदान किया जाता था। बौद्धधर्म एवं जन संप्रदाय में भी यह परंपरा ईसा पूर्व से चली आ रही है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् बुद्ध के स्वागत में दीप सजाए गए थे। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् महावीर ने इस दिन निर्वाण प्राप्त किया था। उन्होंने कहा था- जगत् से ज्ञान की ज्योति बुझ गई है, अतः दीप प्रज्वलित करें।

यह भी मान्यता है कि भगवान् श्रीराम चौदह वर्ष बाद रावण के अत्याचारों को समाप्त कर बन से अयोध्या लौटे तब अयोध्यावासियों ने प्रसन्नतापूर्वक घर-घर में दीप जलाए। उसी दिन की याद में दीपावली पर्व प्रारंभ हुआ। श्रीमद्भागवत् एवं विष्णु पुराण के मतानुसार जब भगवान् कृष्ण ने नरकासुर का संहार कर दिया, तब लोगों ने हर्षातिरेक में दीवाली मनाई। एक अन्य मान्यता है कि श्रीकृष्ण जब प्रथम बार गाय चराने के लिए ग्वाल−बालों के साथ गए थे, तब दीपोत्सव मनाया गया था।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णन मिलता है कि उन दिनों दीपावली के अवसर पर मंदिरों एवं घरों को दीपों से सजाया जाता था। वात्स्यायन ने अपने ग्रंथ “कामसूत्र” में दीपावली का यक्षरात्रि के रूप में वर्णन किया है। सम्राट् चंद्रगुप्त विक्रमादित्य दीपावली के दिन ही सिंहासनारूढ़ हुए थे। सम्राट् अशोक ने अपनी दिग्विजय दीपावली के शुभ अवसर पर पूर्ण की थी। सिखों के छठवें गुरु हरगोविंद सिंह जी कारागार से मुक्त होकर जब अमृतसर स्थित स्वर्णमंदिर पहुँचे तो सर्वत्र दीप जलाए गए। स्वर्ण मंदिर का निर्माणकार्य भी दीपावली को ही प्रारंभ किया था।

महमूद गजनबी के साथ अपने वाले इतिहासकार अलबेरुनी ने लिखा है कि भारत में दीपावली का त्योहार उस दिन मनाया जाता है, जब सूर्य तुला राशि में स्थित रहता है और नया चाँद निकलने वाला होता है। लोग उस दिन उत्सव मनाते थे और मंदिरों में दोपहर को पूजा-अर्चना करते थे। रात्रि के समय दीप जलाए जाते थे। मुगल सम्राट् भी दीपावली का पूर्व हर्षोल्लास से मनाया करते थे। हुमायूँ ने इस अवसर पर तुलादान प्रारंभ कराया था। तत्कालीन इतिहासकार अबुलफजल ने “आइने अकबरी” में उल्लेख किया है कि दीपावली के अवसर पर अकबर राजमहल, दुर्ग तथा नगर में दीपदान करता था और गोवर्धन पूजा में शामिल होता था। बाद के दिनों में मुगल सम्राट् जहाँगीर, शाहजहाँ तथा बहादुरशाह जफर ने भी इस परंपरा को बनाए रखा। शाहजहाँ के काल में लालकिला के पीछे स्थित मैदान में दीपावली मेला लगता था, जो बहादुरशाह जफर के समय तक जारी रहा।

यह दीप महोत्सव अति प्राचीनकाल से भारतवर्ष में मनाया जाता रहा है। रोशनी का यह पर्व केवल अपने देश में ही प्रचलित नहीं है, बल्कि विश्व के अनेक देशों में इसके मनाए जाने का प्रचलन है। प्राचीन आख्यान इसके प्रमाण रहे हैं। पेरु के माया मंदिर में दीपक की उत्पत्तिकथा उत्कीर्ण है। मिश्र में दीपदान का प्रचलन है। अफ्रीका में प्रतिवर्ष नवंबर के प्रथम सप्ताह में देवी-देवताओं व मृत्यु के देवता के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए दीप पर्व का आयोजन होता है।

अनेक एशियाई देशों में भारत के समान अक्टूबर या नवंबर माह में प्रकाश पर्व दीपावली मनाए जाने का प्रमाण मिलता है। सुमात्रा एवं जावा में भी दीपोत्सव मनाया जाता है। माँरीशस और नेपाल में तो इस पर्व को दीपावली के नाम से ही मनाया जाता है। वहाँ पर इस अवसर पर घरों को दीपों से सजाते हैं। नेपाल में तो दीपावली राष्ट्रीय तौर पर चार-पाँच दिनों तक मनाई जाती है। बड़े परंपरागत ढंग से किया जाता है। फरनो पर्वत पर स्थित एक मंदिर में इस अवसर पर लक्ष्मीपूजन का पत्री विधान रहा है।

श्रीलंका में दीपावली को एक राष्ट्रीय पर्व के पूर्व में मनाया जाता है। रात्रि में वहाँ के घर दिये और बिजली की रोशनी से जगमग कर उठते हैं। वहाँ के निवासी अपने खुशी आतिशबाजी छोड़कर प्रकट करते हैं। जापान में दीपावली के पर्व को “तोरा नागाची” कहते हैं, जिसे लालटेनों का पर्व कहा जाता है। जापानी इस पर्व को पूर्वजों को प्रकाश दिखाने के लिए मनाते हैं। चीन की दीपावली अपने ही देश के समान है। “नई महुआ” नाम से प्रसिद्ध इस पर्व के स्वागत में महीनों पहले मकानों को स्वच्छ कर लिया जाता है। चीनियों का विश्वास है कि दीपपर्व अरिष्टनाशाक होता है। भारत के समान चीनी व्यापारी भी इसी दिन धनलक्ष्मी का आहृन कर नए बही-खाते की शुरुआत करते हैं।

थाइलैंड में यह आलोकपर्व “कायंग” नाम से प्रसिद्ध है। अक्टूबर माह में केले के प्रत्येक पत्र पर मोमबत्ती या दीप जलाकर एक सिक्का तथा धूपबत्ती भी छोड़ा जाता है। म्यांमार में दीपों का यह पर्व “थार्दिग्यत” के रूप में मनाया जाता है। गुयाना में दीपावली का आयोजन राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है। इस अवसर पर याना सरकार ने 1976 में चार डाक टिकटों की श्रृंखला जारी की थी। ईरान में दीपोत्सव का आयोजन मार्च महीने में होता है। वहाँ पर दीपक को मुँह से फूँककर बुझाना अशुभ माना जाता है। नवंबर में जर्मनी में मनाया जाने वाला एक कैथोलिक पर्व ठीक दीपावली की ही भाँति होता है। इंग्लैंड में यह पर्व “गार्ड फाक्स डे” के रूप में जाना जाता है। इस दौरान वहाँ पर आतिशबाजी की धूम मचती है। मलेशिया में भी पूर्णतया भारतीय तौरतरीकों के अनुसार बड़े उल्लासपूर्ण माहौल में दीपावली मनाई जाती है।

वैसे अन्य देशों की अपेक्षा अपने भारतवर्ष में दीपावली का कुछ खास ही महत्व है। यहाँ इसका सामाजिक-साँस्कृतिक ही नहीं, आध्यात्मिक महत्व भी है। मनीषियों के अनुसार, यह पर्व मूलतः अँधेरे के विरुद्ध संघर्ष एवं ऋतु-परिवर्तन का प्रतीक है। जब वर्षाकाल बीतता है और धरती हरी-भरी होती है, नई फसल की शुरुआत सारे दुख-दारिद्र्य को दूर फटकारने लगती है। लोग इसी खुशी में बड़े ही आनंद-उमंगपूर्वक दीपोत्सव मनाते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से दीपावली बंधनमुक्ति का दिन है। व्यक्ति के अंदर अज्ञान रूपी अंधकार का साम्राज्य है। दीपक को आत्मज्योति का प्रतीक भी माना जाता है। अतः दीप जलाने का तात्पर्य है- अपने अंतर को ज्ञान के प्रकाश से भर लेना, जिससे हृदय और मन जगमगा उठें। इस दिन चतुर्दिक तमस् में ज्योति की आभा फैलती एवं बिखरती हैं। अंधकार से सतत् प्रकाश की ओर बढ़ते रहना ही इस महापर्व की प्रेरणा है। हमारी संस्कृति आलोक संस्कृति रही है। अपना अतीत दीपावली की ही भाँति ज्योतिर्मय रहा है।

परंतु सब कुछ के बावजूद न जाने क्यों उल्लास एवं उमंग का यह ज्योतिपर्व अचानक इतना अंधकारमय हो गया है। इस पर्व में पुष्पित, पल्लवित एवं फलित आस्था, अनुराग और विश्वसनीयता से पूर्ण मानवीय गुण पता नहीं कैसे वैचारिक और आचरणगत कलुषता से ढँक-छिप गए है। प्रेम-स्नेह-सद्भावना के आलोक के बदले घृणा, द्वेष एवं वैमनस्यता के गुब्बारे में मानस एवं समाज ढकते जा रहे हैं। जैसे दूसरों को प्रकाश देने के निमित्त जलने वाला दीप अपने आप को ही जलाए डाल रहा हो। फटाखों की अनुगूँजों से हर्षविभोर हरने वाला जनसमूह आज बमों के धमाकों के बीच चिथड़े-चिथड़े होकर कराहटों एवं चीखों से घिरकर रह गया है।

राष्ट्र समाज एवं परिवार को समृद्ध करने वाली लक्ष्मीपूजन की परंपरा के स्थान पर झूठ,, फरेब और शोषण की जालसाजी में समाज का एक बड़ा संभ्राँत वर्ग लिप्त है। अब सर्वजनहिताय-सर्वजन सुखाय की नहीं, बल्कि अपना के बैलेंस बनाने-बढ़ाने की होड़ लगी है। जिसके लिए भ्रष्टाचार की सारी सीमाएँ लांघी जा चुकी है। सामाजिक मानदंड बदल गए हैं। चारों ओर वैभव-विलासिता का उच्छृंखल प्रदर्शन हो रहा है, उसे आधुनिक दीपावली की प्रतिष्ठा प्राप्त है।

पहले कभी अपनी इस देवभूमि-अलोकभूमि में आस्था की धधकती आग से पवित्रता, उदारता, संयम, सज्जनता, नीति-निष्ठा और सामूहिकता जैसे सद्गुण जगमगाते रहते थे, आज उसी भूमि में अनीति, अत्याचार, आतंकवाद, अलगाववाद जैसे तत्वों का बोलबाला दिखाई पड़ रहा है। राष्ट्र की सीमाएँ ही नहीं, स्वयं राष्ट्र का केंद्र भी अँधेरे की लपेट एवं चपेट में आ गया है। समाज, परिवार वं व्यक्ति भी इस दुर्दशा से कम नहीं व्याकुल है। इसके मूल में देखा जाए, तो दीप की वह स्नेहसंवेदना चुक गई है। इसी अंतर संवेदना के सूख जाने से इनसान इतना निष्ठुर, निर्दयी हो चला है। वह अपने संकीर्ण दायरों से बाहर नहीं आ पा रहा है, जबकि दीपक इन्हीं संकीर्ण सीमाओं को तोड़ देने की प्रेरणा देता है। दीपावली की उज्ज्वल रोशनी में यह सारा तमस तिरोहित हो जाता है।

आज जरूरत है, दीपावली की मल प्रेरणा को फिर से पुररुज्जीवित करने की। दीपोत्सव पर्व की सार्थकता इसी में निहित है कि दीपोत्सव के साथ अपने अंदर बुझे आत्मदीप को भी प्रज्वलित किया जाए। इसके ऊपर जन्म-जन्माँतरों से जमे कषाय-कल्मषों को धो दिया जाए। जिससे चिरज्योतित आत्मा का प्रकाश बाहर आ सके। यही आत्मदीपोभवः का मूलमंत्र है। इसी आदर्श के प्रति गहरी आस्था ही दीपावली का मर्म है। इस आस्था के बुझे दीप को जलाना हममें से हर एक जन का पुनीत कर्त्तव्य होना चाहिए।

दीपोत्सव प्रकाश को अपने प्राणों में बसाकर अंधकार को अलविदा करने का अनवरत अनुष्ठान आरंभ करने का पवित्र, प्रेरक और प्राणवंत अवसर है। यह भारत की भाग्यलक्ष्मी का साक्षात्कार करके भारतमाता के आँगन में अपने प्राणों और पौरुष को बिदा देने, स्वयं बिछ जाने और स्वयं को न्योछावर कर देने का पर्व है। यह न भूलें कि माँ, भारत माँ की प्रसन्नता उसकी सुरक्षा उसकी प्रसन्नता एवं उसकी समृद्धि में ही हम अपनी सौभाग्यलक्ष्मी के दर्शन पा सकेंगे। यदि हम केवल अपने-अपने घर के दीपों की चिंता में लगें रहे तो किसी के दिये नहीं बचेंगे, किसी के घर भी उजाला नहीं बचेगा। सबका सब कुछ बचा रहे, बढ़ता रहे, इसलिए सभी को सबकी चिंता और सबका चिंतन करना ही होगा। दीवाली के दिनों की तरह सवेरा होने और उज्ज्वल भविष्य का सूर्य उदित होने तक अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी जना होगा। यह केवल दीये और दिवाली की बात नहीं, भारतमाता के दिलवाली बात भी यही है।


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