पंद्रह साल बाद सही होता लग रहा उपन्यास

November 1999

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सन् 1984 का वर्ष दूसरे और वर्षों की तरह सामान्य ही था। प्रमुख घटनाओं के तौर पर उस साल अंतरिक्ष शटल चैलेंजर में सवार यात्रियों ने अपना उपग्रह ‘सोलर मैक्स’ अंतरिक्ष में ही सुधारा, उसकी पूरी मरम्मत की और उसे फिर जीवित कर दिया। घटनाएँ और भी घटीं, लेकिन अपाहिज से हो गए शून्य अंतरिक्ष में आवारा चट्टान की तरह यहाँ-से-वहाँ तैर रहे ‘सोलर मैक्स’ की मरम्मत सूचना-विश्व में एक जबरदस्त उपलब्धि के रूप में ख्याति पा गई। जिस सूचना तकनीकी- प्रधान विश्व (इन्फोटे वर्ल्ड) में आज हम रह रहे हैं, उसके निर्माण में 1984 की यह उपलब्धि महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। यों उस वर्ष भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या और देश भर में सिख विरोधी दंगे भड़कना भी एक अकल्पनीय घटना और उसकी व्यापक प्रतिक्रिया थी, लेकिन यहाँ सिर्फ सूचना विश्व की ही चर्चा अभीष्ट है।

उपग्रह के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि वाले साल से वर्षों पहले ‘उन्नीस सौ चौरासी’ (1984) शीर्षक उपन्यास बहुत चर्चित हुआ था। जॉर्जऑरवेल के लिखे इस उपन्यास में विज्ञान की सहायता से असीम शक्ति अर्जित कर लेने वाले शासकवर्ग का वर्णन था। इस उपन्यास में वर्णित घटनाक्रमानुसार प्रभुवर्ग इतना शक्तिशाली और साधनसंपन्न हो गया कि उसकी “मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलने” वाली कहावत अक्षरशः सही साबित होती दिखाई दी। राज्य में सूचनातंत्र का जाल इस तरह फैला और कसा हुआ चित्रित किया गया था कि नागरिक वही सोचते हैं जो शासक चाहते हैं और इस विश्वास के साथ निर्णय लेते हैं कि जैसे वे स्वयं फैसला ले रहे हों।

सूचनातंत्र और उसके माध्यम से राज्य की पूरी पकड़ में आ जाने की कहानी भविष्यकथन की तरह थी। करीब बीस साल तक चर्चित रहे इस उपन्यास ने भविष्यवाणियों की तरह संदेश दिया कि 1984 में संसार नष्ट हो जाएगा, सभ्यता नष्ट हो जाएगी और मनुष्य बचेगा तो सिर्फ राज्य के हाथों की कठपुतली के रूप में ही। ऐसी कठपुतली, जिसे राज्य के नियामक जब चाहें जैसे हिला-डुला लें और नचा सकें। सन् 1984 में, जॉर्ज ऑरवेल के लिखे इस उपन्यास के आधार पर विद्वानों ने सर्वनाश का अनुमान भी लगाया था। वह वर्ष बीत गया तो जैसे चैन की साँस ली। बहुतों ने इस उपन्यास को साम्यवाद के बढ़ते हुए खतरे से सावधान करने वाले काव्य के रूप में भी लिया। सोवियत संघ का प्रभाव उन दिनों फैल रहा था। उपन्यास का वर्ष बीतने के ठीक सात साल बाद सोवियत संघ का पूरी तरह विघटन हो गया, तो समीक्षकों ने लिखा कि यह मनुष्य को पूरी तरह अपनी पकड़ में रखने वाली व्यवस्था का अंत है।यह शुभ ही हुआ।

लेकिन नहीं। उपन्यास का वर्ष बीतने के पंद्रह साल बाद जॉर्ज ऑरवेल की दूरदृष्टि सही सिद्ध होती दिखाई दे रही है। उपन्यास का आधार सूचना तंत्र के छा जाने और सूचनाविश्व के समृद्ध हो जाने के खतरों पर केंद्रित था। उसके निश्चित ही लाभ भी थे। समीक्षकों को हाल ही में ध्यान आया है कि जॉर्ज ऑरवेल के बताए खतरे अलग तरह से सही सिद्ध हो रहे हैं। शासनतंत्र न सही, उद्योग-व्यापार मनुष्य के चित्त को अपनी जकड़ में ले रहे हैं। लोग जाने-अनजाने उन्हीं विषयों में सोचते और उसी तरह के फैसले लेते हैं जैसे कि उस विश्व के नियामक चाहते हैं।

सूचनाविश्व के आधुनिक और सक्षम-समृद्ध रूप ने इस प्रतिपादन को स्थापित कर दिया है कि मनुष्य ने अब तक जितना विज्ञान विकसित और सिद्ध किया है उसका नब्बे प्रतिशत भाग पिछले पचास वर्षों में ही संभव हुआ, शेष दस प्रतिशत पिछले दो हजार सालों में विकसित हुआ। यह भी कि पिछले पचास वर्षों में विज्ञान जितना विकसित हुआ, उसका पचास प्रतिशत पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ। इस अवधि में विकसित विज्ञान और साधनों में सबसे ज्यादा उन्नति सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई। इतनी प्रगति कि हम जिस अवधि में जी रहे हैं, उसे सूचनायुग कहा जाने लगा है। उपग्रह, दूरसंचार और कंप्यूटर विज्ञान के मेल से बने सूचनायुग ने विश्व कल राजनीति और अर्थव्यवस्था तक बदल दी है।

‘सूचना प्रौद्योगिकी’ के नाम से अभिहित विधा या तकनीक ने जिन रास्तों से दुनिया को मनमरजी के अनुसार बदलना संभव बनाया, उन्हें ‘सूचना हाइवे’ और ‘सूचना सुपर हाइवे’ कहते हैं। अलग-अलग ‘हाइवेज’ में इंटरनेट भी एक सुपर हाइवे है। दूरसंचार और उपग्रह तकनीक से बना लाखों कंप्यूटरों का यह एक ऐसा प्रवाह है, जिसमें हजारों लाइब्रेरियाँ, रेडियो, टीवी चैनल, अखबार, पत्रिकाएँ और नवीनतम सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। मुश्किल से एक वर्गमीटर जगह घेरने वाले कंप्यूटर के जरिए घर बैठे सुदूर देशों के पुस्तकालयों-संदर्भकेंद्रों और घर या कार्यालयों से मनचाही जानकारी मँगाई जा सकती है। बीस-पच्चीस साल पहले सूचनाओं और जानकारियों को इकट्ठा करने के लिए एक बड़ा तंत्र बनाना पड़ता था। अब उसकी आवश्यकता नहीं रह गई। पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी कोने से जानकारी मँगाई जा सकती है। अब बहुत जगह घेरने वाली लाइब्रेरियां और मोटी-मोटी पुस्तकें सँभालकर रखने की जरूरत नहीं रही, एक मामूली-सी माइक्रोचिप्स में वह संकलित और सुरक्षित रखी जा सकती है।

ज्ञान और सूचना के लिए निर्भरता समाप्त हुई। वर्षों तक पढ़ना और यहाँ-वहाँ भटकना जरूरी नहीं रहा। थोड़े-से समय में दुनिया भर के ज्ञानकोष से ज्ञान जुटाया जा सकता है। यह सूचनायुग का विशिष्ट और सकारात्मक पक्ष है। शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में इस प्रौद्योगिकी का उपयोग होता तो मानवीय चेतना और तेजी से ऊपर उठती; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग मनुष्य के कल्याण की अपेक्षा कुछ लोगों, संगठनों और देशों के स्वार्थ तक सीमित रह गया। निस्संदेह यह उन्हीं के काम की चीज रह गई, जिन्होंने इसे विकसित किया। सूचनायुग के आरंभिक वर्षों में अर्थात् 1980-81 में विकासशील देशों ने इसके कल्याणकारी उपयोग की माँग उठाई थी। उनका कहना था कि अमीर देश अपनी-अपनी पूँजी और साधनों के दम पर गरीब देशों से कच्चा माल उठाते हैं और उसे आकार देकर वापस उन्हीं देशों को बेच देते हैं। खरीद कौड़ियों के मोल होती है और बिक्री रत्नों के दाम। अपेक्षा की गई थी कि सूचनायुग का लाभ संतुलित और मुक्तप्रवाह के रूप में विकासशील देशों को भी मिलेगा। लेकिन सूचना तंत्र पर गिने-चुने देशों का कब्जा है। वे उसी तरह की जानकारियाँ देंगे, जो उनके लिए अनुकूल हो।

विकासशील देशों की अपेक्षाएँ निरस्त करते हुए विकसित देशों ने कहा कि सूचनाओं का प्रवाह ‘मुक्त’ होना चाहिए। उसे संतुलित रखने का कोई अर्थ नहीं है। इससे प्रगति में, बाधा आएगी, उन्हीं देशों की चली। यह तथ्य अपरिचित नहीं है कि मुक्तप्रवाह का अर्थ शक्तिशाली और साधनसंपन्न के हाथों में दुधारी तलवार देना है। उस तलवार से वह कमजोर को निरंतर दबाता व काटता रहेगा। प्रतियोगिता में वह कभी खड़ा ही नहीं रह सकेगा।

विभिन्न विषयों की चर्चा नहीं करें; समाचारों के क्षेत्र में ही इन दिनों कुछ देशों की गिनी-चुनी कंपनियाँ छाई हुई हैं। उनमें भी पश्चिम की चार प्रमुख एजेंसियों ने समाचारों और प्रसारणों के नब्बे प्रतिशत भाग पर नियंत्रण कर रखा है। चार एजेंसियाँ जैसी सूचनाएँ देना चाहेंगी, वैसी ही मिलेंगी। उनके अलावा जानकारी जुटाने का कोई जरिया आसानी से उपलब्ध नहीं है।

सूचना प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा खतरा है कि उससे लोगों के मन-मस्तिष्क प्रभावित किए जा सकते हैं। जिस काम के लिए पहले बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती थीं और रक्त बहाया जाता था, वह आज सूचनातंत्र से मामूली हेर-फेर से किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, शिकायत है कि इन दिनों नायक की दृष्टि से कोई प्रेरक चरित्र नहीं है, जो उत्कर्ष और सेवा के लिए प्रेरित करे। कारण यही है कि सूचनातंत्र को उस तरह की जानकारी देने में कोई लाभ नहीं दिखाई देता। जिन लोगों के हाथ में यह तंत्र है उनकी दिलचस्पी सिर्फ अपना उत्पाद खपाने में है। वह उत्पाद उपभोक्ता सामग्री के रूप में हो या विचारों के रूप में।

विश्व के महाबली देश और सूचनातंत्र पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सिर्फ वही जानकारियाँ लोगों को मिलती हैं, जिनसे उन देशों या कंपनियों का लाभ होता हो। जरूरी नहीं कि जरूरी और उपयोगी सूचनाएँ हमें मिलें। विकसित देशों में भी नागरिकों को शिकायत रहती है कि उन्हें सही जानकारियाँ नहीं मिलतीं। प्रसिद्ध लेखक एच. बैन्सन ने अपनी पुस्तक ‘द एवार्ड’ में सवाल उठाया है कि हम ऐसे विषयों के बारे में बहुत-सी जानकारी रखते हैं जिनकी हमें कोई जरूरत ही नहीं है। इसके अलावा ऐसी सूचनाएँ बाढ़ की तरह आ रही हैं, जो समग्र विकास की प्राथमिकताओं को तोड़ती-मरोड़ती हैं। लेखक ने सोवियत संघ के पराभव के बाद ‘वैश्वीकरण’ और ‘मुक्त अर्थ-व्यवस्था’ के विचार का उल्लेख किया है। उनका कहना है कि इस विचार ने पूरे वातावरण को जैसे निगल लिया ‘वैश्वीकरण’ और ‘मुक्त अर्थव्यवस्था’ का दर्शन चंद महाबली देशों के आर्थिक साम्राज्य को सुदृढ़ करने के लिए गढ़ा गया। सूचनातंत्र के जरिए यह विचार इस तरह फैलाया गया कि दुनिया भर के मुल्क इस पर मुग्ध हैं।

निजी और पारिवारिक जीवन के आदर्शों के लोप होते जाने का संकट भी इसी तंत्र की देन है। देश, समाज, कला, संस्कृति, विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में अपना जीवन होम देने वाली विभूतियों की अब चर्या नहीं होती है। उनकी चर्चा का अर्थ है- त्याग, उत्सर्ग और निष्ठा को प्रेरित करना। इन प्रेरणाओं से व्यवसायी वर्ग को कोई मतलब नहीं। सेवा, परोपकार, नैतिकता और सादगी के विचार विलासी बनाने वाले उत्पादों की खपत में लगे तंत्र को निरुत्साहित ही करते हैं। इसलिए महान् विभूतियों के स्थान पर सुँदर-आकर्षक लगने वाले चेहरे-मोहरों, मायालोक रचने वाले नायकों और विलास को ही परमसुख तबाने वाले चरित्रों का बोलबाला है। सूचनातंत्र इन्हीं विचारों और प्रेरणाओं को उकसाता है, प्रोत्साहन देता है।

विचारतंत्र के जरिए हावी हो गए सूचनाविश्व ने आने वाले समय में प्रतिभाओं के लोप होने का संकट खड़ा कर दिया है। मनीषियों ने यह आशंका जताई है कि भविष्य में ऋषि-मुनि-संत-महात्मा और वैज्ञानिकों का विकास शायद असंभव हो जाए। उन प्रतिभाओं के विकास के लिए जिस स्तर की मेधा चाहिए वह रौंदी-सी जा रही है। मेधा सिर्फ स्वतंत्रता के माहौल में ही सुरक्षित रहती है। सूचनातंत्र पहल ही नियत और निहित उद्देश्यों के लिए बच्चों के मन-मस्तिष्क को ढाल देता है। उस स्थिति में स्वतंत्र चिंतन और मेधा का विकास संभव ही नहीं हो पाएगा। दूसरे शब्दों में यह कि प्रतिभाएँ सूचनातंत्र का नियमन करने वाली शक्तियों के अनुशासन में रहेंगी, उन्हीं के लिए काम करेंगी और अपने संस्कार या विवेक के अनुसार कुछ भी निश्चित नहीं कर सकेंगी। मनुष्यजाति के पूरी तरह गुलाम हो जाने की जॉर्ज ऑरवेल की भविष्यवाणी इस अर्थ में सही होने जा रही है। क्या अध्यात्म तंत्र इस सूचना प्रौद्योगिकी की क्राँति को रचनात्मक मोड़ देकर युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को प्रशस्त कर सकता है? यह प्रश्नचिह्न संक्राँति वेला में हम सबके समक्ष है।


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