शिक्षाविस्तार ही दिला सकता है नारी को गौरव

November 1999

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बात जब नारी के गौरव एवं आत्मसम्मान की आती है, तो उसमें शिक्षा का महत्व अनायास ही जुड़ जाता है। वैदिक भारत के स्वर्णिम युग का रहस्य उस काल की विदुषी नारियों में ही निहित था। वे राजनीतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक दायित्वों का कुशलता से निर्वाह करने के साथ ही ऋषित्व के वर्चस् की भी धनी थीं। इसके प्रमाण वेदों के अनेकानेक स्थलों पर देखे जा सकते हैं। ऋग्वेद में 24 और अथर्ववेद में 5 वैदिक विदुषियों का उल्लेख हैं। हो भी क्यों नहीं, शिक्षा ही तो वह माध्यम है, जिसके द्वारा नारी का सर्वांगीण विकास संभव है। वैदिक भारत के स्वर्णिमकाल को यदि वर्तमान युग में साकार करना है, तो हमें नारीशिक्षा के चहुँमुखी विकास के लिए हर संभव यत्न करने होंगे।

ऋग्वेद (2/19/17) में वर्णित है कि स्त्रियों पर ही जीवन आधारित है और वे शिक्षा प्रदान करती हैं। यजुर्वेद (39/2) में कहा गया है कि नारियों को वेद पढ़ने का पूरा अधिकार है। अथर्ववेद (11/16/13-18) में उल्लेख है कि लड़कियाँ लड़कों के समान ब्रह्मचर्य धारण करके शिक्षा ग्रहण करें। इस परिप्रेक्ष्य में युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद ने उद्घोष किया है कि वही देश उन्नति कर सकता है जहाँ स्त्रियों को उचित स्थान दिया जाता है तथा उनकी शिक्षा का भी उचित प्रबंध किया है। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने अपने ओजस्वी शब्दों में कहा था कि राष्ट्र, समाज, प्रशासन तथा परिवार के क्रिया−कलाप तब तक उचित ढंग से नहीं किए जा सकते, जब तक महिलाओं को शिक्षा न मिले। पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार लड़के की शिक्षा केवल एक व्यक्ति की शिक्षा हैं, किंतु लड़की की शिक्षा सारे परिवार की शिक्षा है।

विश्वविद्यालय आयोग (1948-49) ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पश्चात् नारीशिक्षा का महत्व बताते हुए उल्लेखित किया था-”स्त्रीशिक्षा के बिना लोग शिक्षित नहीं हो सकते। यदि शिक्षा को पुरुषों अथवा स्त्रियों के लिए सीमित करने का प्रश्न हो तो यह अवसर स्त्रियों को दिया जाए, क्योंकि उनके द्वारा ही भावी संतान को शिक्षा दी जा सकती है। श्रीमती हंसा मेहता समिति (1962) का कथन है कि यदि नए समाज का निर्माण ठोस आधार पर करना है, तो स्त्रियों को वास्तविक और प्रभावपूर्ण ढंग से पुरुषों के समान अवसर देने होंगे। शिक्षा आयोग (1964-66) ने स्पष्ट किया था कि स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। 1986 की शिक्षा नीति में इस बात पर विशेष बल दिया गया था कि महिलाओं को शैक्षिक एवं सामाजिक दृष्टि से समान स्तर पर लाने के लिए विशेष कार्य की आवश्यकता है। 16 दिसंबर 1993 को नौ देशों के ‘सभी के लिए शिक्षा’ सम्मेलन में महिलाओं तथा लड़कियों को शिक्षा तथा उन्हें अधिकार दिए जाने की ओर विशेष ध्यान देने के लिए बल दिया गया।

मध्य भारत के अँधेरे युग के बाद ब्रिटिशकाल में भारत में नारीशिक्षा की ओर ध्यान देना प्रारंभ हो गया था। सन् 1854 में वुडस डिस्पैच आने पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने ‘शिक्षा विकास कार्यक्रम’ को मान्यता प्रदान की। इसमें विशेष रूप से महिलाओं को नौकरी तथा शिक्षा का उल्लेख मिलता है। उस समय लड़कियों के लिए अलग विद्यालय खोले गए। सन् 1882 में नारीशिक्षा के आँकड़े व्यवस्थित रूप से एकत्रित किए जाने लगे। सन् 1881 से 1902 के मध्य काल की उल्लेखनीय उपलब्धि थी कॉलेजों में महिलाओं का प्रवेश। सन् 1883 में पहली बार दो भारतीय महिलाओं ने कॉलेज की परीक्षा पास की। इस काल में माध्यमिक शिक्षा के नामाँकन में पाँच गुना वृद्धि हुई तथा प्राथमिक शिक्षा के नामाँकन में भी पाँच गुना बढ़ोत्तरी हुई। सन् 1902 से 1922 के दो दशकों में माध्यमिक शिक्षा तथा उच्चशिक्षा के क्षेत्र में सक्रियता और बढ़ी। भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना इसी काल की देन है। सन् 1916 में मुँबई में स्थापित इस विश्वविद्यालय का नाम श्रीमती नाथी बाई दामोदर ठाकरसी वूमैंस यूनिवर्सिटी है। सन् 1921-22 में माध्यमिक कक्षाओं में प्रवेश संख्या 10,309 से बढ़कर 36,698 हो गई। कॉलेजों में नामाँकन छह गुना बढ़ा। इसी दौरान मेडिकल में 197 लड़कियों की संख्या में 2812 से 11599 की बढ़ोतरी हुई।

सन् 1922 से 47 तक समाज-सुधार एवं गाँधी जी द्वारा संचालित आँदोलनों के प्रभाव के कारण लड़कियों के प्रति समानता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। सन् 1926 के दौरान अखिल भारतीय महिला सम्मेलन हुआ। इस काल में हर्टींग कमेटी की सिफारिशें लागू हुई जिसमें शिक्षा पर नारी के अधिकार की बात स्पष्ट की गई थी, इसके अनुसार नारी एवं पुरुष का शिक्षा पर समान अधिकार माना गया। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया कि दोनों की शिक्षा के विकास के लिए नई शिक्षा-योजना का निर्माण आवश्यक है। इस दौर में नारी शिक्षा की काफी प्रगति हुई।

प्राथमिक शिक्षा में छात्राओं की नामाँकन संख्या 12 लाख से बढ़कर सन् 1947 तक 35 लाख पहुँच गई। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा में प्रवेशसंख्या 2 लाख 81 हजार को पार कर गई। इस काल में उच्च शिक्षा में प्रवेश की गति काफी तेज रही। 1921-22 में यह आँकड़ा 1529 तक सीमित था, जो इस काल में 23,207 हो गया।

स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात स्त्रीशिक्षा के प्रसार तथा गुणात्मक सुधार में काफी तेजी से प्रगति हुई। हालाँकि इस प्रगति को बहुत संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इस परिप्रेक्ष्य में राममूर्ति (1990) ने महिला शिक्षा की धीमी गति के बारे में कहा है कि भारत में महिलाओं की शिक्षा पर हुए अनुसंधान से पता चलता है कि कई ऐसे सामाजिक, साँस्कृतिक और आर्थिक कारण हैं जिनके कारण महिलाएँ शिक्षाप्रणाली में भाग नहीं ले पातीं उनके अनुसार नारीशिक्षा की अनेक समस्याएँ हैं, जैसे पुरुष प्रधान समाज, रुचि की कमी, अज्ञानता, बालविवाह, गरीबी, दोषयुक्त पाठ्यक्रम, सहशिक्षा का विरोध, सुविधाओं का अभाव, अपव्यय, नारीशिक्षा के प्रति उदासीन नीति, परदाप्रथा, कई क्षेत्रों में अध्यापिकाओं की कमी आदि।

इन समस्याओं को ध्यान में रखकर अपने देश में अनेकों परियोजनाएँ प्रारंभ की गईं, जिससे कि नारीशिक्षा में प्रगति एवं जाग्रति उत्पन्न हो। संशोधक राष्ट्रीय शिक्षानीति (1986) में महिलाओं की शिक्षा को समदृष्टि पैकेज का एक घटक होने की वजह से उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई। सन् 1991 के दस वार्षिक जनगणना आँकड़ों को प्रोत्साहित करने वाली विशेषता पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर में सुधार है। इन आँकड़ों के अनुसार 1981 में 29.8 प्रतिशत की तुलना में 39.4 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। वर्ष 1881 के दौरान पुरुषों की 7.5 प्रतिशत की तुलना में 9.6 प्रतिशत महिला साक्षरता दर में वृद्धि हुई है। महिला साक्षरता की यह दस वार्षिक दर पुरुषों से ज्यादा है। सन् 1995-96 में कुल नामाँकन में बालिकाओं का नामाँकन प्राथमिक स्तर पर लगभग 43 प्रतिशत, मिडिल में 39 प्रतिशत, माध्यमिक स्तर पर 34 प्रतिशत तथा उच्चशिक्षा में 33 प्रतिशत था। ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड के आधीन संशोधित नीतिकरण में एक अनिवार्य शर्त यह रखी गई कि भविष्य में नियुक्त किए जाने वाले शिक्षकों में 50 प्रतिशत महिलाएँ होनी चाहिए। ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना (1987-88) के अंतर्गत प्राथमिक स्कूल शिक्षकों के 1.53 लाख

पद सृजित किए गए, जिन्हें मुख्यतः महिलाओं द्वारा भरने का निश्चय किया गया। नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार शिक्षकों के 1.49 लाख पद भरे जा चुके हैं, जिसमें 48.52 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। छात्रावासों के निर्माण की योजना का संचालन इस उद्देश्य से किया जा रहा है कि अधिक-से-अधिक बालिकाएँ माध्यमिक शिक्षा का लाभ उठा सकें। बालिकाओं के अनौपचारिक केंद्रों का संचित योग 1.18 लाख है। इन केंद्रों की कुल संख्या 2.41 लाख है। नवोदय विद्यालयों में भी बालिकाओं का दाखिला 30.91 प्रतिशत तक सुनिश्चित हो गया है।

पूर्ण साक्षरता अभियानों में महिलाओं को पूर्ण अधिकार देने के उद्देश्य पर खास ध्यान दिया गया है। प्रौढ़ शिक्षा और उत्तर साक्षरता शिक्षा केंद्रों में महिलाओं के नामाँकन पर भी काफी ध्यान दिया जा रहा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य और तकनीकी दोनों दृष्टि से महिलाओं के लिए शैक्षिक अवसरों में असाधारण एवं अद्भुत विस्तार हुआ है। विश्वविद्यालय और कॉलेज स्तरों पर महिला शिक्षा में विविधता आई है और समाज, उद्योग तथा व्यापार की बदलती आवश्यकताओं के अनुसार उसका प्रबोधन किया गया है। उच्च-शिक्षा संस्थानों में महिलाओं के नामाँकन की संख्या सन् 1996-97 में लगभग 22 लाख हो गई और यह वृद्धि पिछले छियालीस वर्षों की अवधि में पचपन गुना से भी अधिक है। इस अवधि के दौरान प्रति सौ नामाँकित पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या चार गुना से भी ऊपर है। अर्थात् 1950-51 के 14 प्रतिशत से बढ़कर 1996-97 में 53 प्रतिशत हो गई है। कुल नामाँकन की प्रतिशतता के रूप में महिलाओं के नामाँकन का प्रतिशत 1981-82 में 27.7 से बढ़कर 1996-97 में 34.1 हो गया।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी विश्वविद्यालयों के महिला अध्ययनों में अनुसंधान की सुपरिभाषित परियोजनाएँ आरंभ करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है। आयोग ने सामाजिक विज्ञान तथा इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी सहित विज्ञान एवं मानविकी में महिला उम्मीदवारों के लिए अंशकालिक एसोशिएट्शिप के चालीस पद सृजित किए हैं। सितंबर 1996 तक महिला अध्ययनों के उद्देश्य से संबद्ध 33 अनुसंधान परियोजनाएँ अनुमोदित की जा चुकी हैं। विभिन्न प्रस्तावों की जाँच करने के पश्चात् महिला अध्ययन स्थायी समिति ने भी क्रमशः महिला अध्ययन केंद्रों और कक्षों की स्थापना हेतु 21 विश्वविद्यालयों और 11 कॉलेजों एवं विश्वविद्यालय विभागों को सहायता देने की सिफारिश की है।

वर्ष 1992 के दौरान श्रमिक विद्यापीठ के प्रौढ़शिक्षा कार्यक्रम के अधीन यूनीसेफ ने दक्षता आधारित साक्षरता कार्यक्रम आयोजित करने हेतु दस चुनिंदा श्रमिक विद्यापीठों को विशेष सहायता प्रदान की। इस उपक्रम में 1993 के मध्य तक दस हजार महिलाओं को न केवल साक्षर बनाया गया, अपितु उन्हें लोकप्रिय व्यवसाय में दक्षता के लिए समर्थ किया गया। महिला समाख्या कार्यक्रम डच सहायता से अप्रैल 1989 में आरंभ किया गया। यह परियोजना राष्ट्रीय शिक्षानीति (1986) के अनुसरण पर तैयार की गई। इस परियोजना का कुल समग्र उद्देश्य ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना है, जिससे महिलाएँ अपनी दशा को बेहतर ढंग से समझ सके और अपने वातावरण को प्रभावित कर अपने परिवार के लिए एक शैक्षिक अवसर भी पैदा कर सकें।

विश्व के विकसित विकासशील देशों में नारीशिक्षा की प्रगति काफी उत्साहपूर्ण है। श्रीलंका, ब्रिटेन, फ्राँस, जापान, स्विट्जरलैंड तथा स्वीडन में माध्यमिक स्तर पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का नामाँकन अधिक है। प्रौढ़शिक्षा तथा प्राथमिक स्तर पर भी महिलाएँ पुरुषों के बराबर चल रही हैं। स्पष्ट है कि ये देश महिलाशिक्षा के विकास पर बहुत जोर दे रहे हैं। स्विट्जरलैंड में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय सबसे अधिक हैं। वहाँ पर महिलाओं की शिक्षा का प्रतिशत भी काफी ऊँचा है। प्रायः जिन देशों में प्रति व्यक्ति आय कम है, वहाँ पर स्त्रीशिक्षा की दशा लगभग दयनीय है। नेपाल तथा अफगानिस्तान महिलाशिक्षा के क्षेत्र में बहुत पीछे हैं। अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत की स्थिति भी कुछ खास ठीक नहीं है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार भी यही निष्कर्ष निकाला गया है। नारी प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में लगभग 130 देश हमसे आगे हैं। भारत की नारी प्रौढ़शिक्षा की दर 38 है,

जबकि अनेक देशों में यह दर 100 प्रतिशत है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में यह प्रतिशत केवल 11 है। इसी प्रकार लड़कियों का स्कूल में नामाँकन भी भारत में अपेक्षाकृत बहुत कम है। एशिया महाद्वीप में जापान में सभी लड़कियाँ प्राथमिक स्तर पर स्कूल न जाने वाली लड़कियों की दर 39 प्रतिशत है। इस क्रम में सोमालिया सबसे पिछड़ा देश है।

विश्व में ऐसे भी देश है, जहाँ महिलाशिक्षा शतप्रतिशत या 90 से अधिक है। ये देश है-आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, अजर बैजान, बेल्जियम बेलारुस, बुल्गारिया, चीन कोलंबिया, बुक द्वीपसमूह, कोस्टारिका, क्रोएशिया, क्यूबा, साइप्रस, डेनमार्क, इक्वेडोर, एसटोनिया, फिनलैंड, फ्राँस, जार्जिया, जर्मनी, ग्रीस, गुयाना, हंगरी, आयरलैंड इजराइल, इटली कजाकिस्तान, कोरिया,

किर्गिस्तान लाताविया, लेबनान, लिथुआनिया, मालदीव, माल्टा, न्यूजीलैण्ड, नार्वे, पनामा, पैराग्वे, पेरु, फिलीपींस, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, रूस, सिंगापुर, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, ताजिकिस्तान, थाइलैंड, त्रिनिदाद एवं टोबैको, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, उरुग्वे, उज़्बेकिस्तान, बेनेजुएला, यूगोस्लाविया आदि।

जहाँ तक अपने देश का सवाल है, तो उसे अभी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना है, काफी आगे बढ़ना है। स्वतंत्रताप्राप्ति से अब तक नारीशिक्षा में यों तो काफी प्रगति हुई है, सरकारी योजनाएँ बनीं एवं बढ़ी हैं। परंतु इस महान कार्य का दायित्व सरकार से कहीं अधिक समाज का है। इस हेतु जरूरत उन जागरूक व्यक्तियों एवं जाग्रत आत्माओं की है, जो भविष्य की आहट सुन और पहचान रहे हैं। ऐसे जिम्मेदार लोगों को अपने क्षेत्र एवं अपने परिवेश के अनुसार सभी उम्र की महिलाओं के लिए शैक्षणिक योजनाएँ क्रियान्वित करनी चाहिए। इन क्षणों में जबकि हम सब ही नहीं समूचा देश, विश्व एवं सारा जमाना एक नए युग के द्वार पर खड़ा है। ऐसे में नारीशिक्षा का यह कार्य नवयुग के स्वागतसमारोह की तरह है, जिसमें हर विचारशील को पूर्ण उत्साह के साथ भाग लेना चाहिए। उनकी यह भागीदारी ही भावी नवयुग में वैदिक-काल के स्वर्णयुग को साकार करेगा।


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