अखण्ड ज्योति आज से पचास वर्ष पूर्व - ऐ अज्ञानियो! मझधार में डूब मरोगे

November 1999

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परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से नवंबर 1949 की अखण्ड ज्योति में प्रकाशित अग्रलेख

आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुऋतस्य सीदति। जहात्यप्रचेतसः। अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः। मज्जन्त्यविचेतसः।

अर्थात् भोक्त जीव (आशुः) जो (यत्) ऋत की (ऋतस्य) स्वर्णिम (हिरण्यम्) गोद में (योनिम्) आ बैठता है (आसीदति), उसे मूढ़ अज्ञानी (अप्रचेतसः) छोड़ देते हैं (जहाति) अथवा वह अज्ञानियों को (अप्रचेतसः) छोड़ देता है (जहाति)। बुद्धिमान्, मेधावी (बेनाः) अभिमुख होकर प्रशंसा करते हैं (अभि अनुषते)। ज्ञानी (प्रचेतसः) यज्ञ करते हैं (यज्ञन्ति), सत्कर्म करते हैं और अज्ञानी (अविचेतसः) डूब मरते हैं (मज्जन्ति)।

पूरी सूक्ति का आशय यह कि ऋत की, सत्य की, कल्याण की, श्रेय की स्वर्णमयी शांतिदायक गोद में जो बैठ जाता है उसे अज्ञानी, मूर्ख लोग छोड़ देते है या वह उन मूर्खों को छोड़ देता है, क्योंकि उन दोनों के मार्ग एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न होते हैं। दोनों के विचारों व कार्यों में भारी अंतर होता है। इससे उनकी पटरी आपस में नहीं बैठती। फलस्वरूप दोनों को अलग-अलग रहने के लिए विवश होना पड़ता है। जिनने स्वर्णिम ऋतंभरा बुद्धि को अपना लिया है, उनका दृष्टिकोण दूसरा होता हैं। वे सत्य को ढूँढ़ते हैं, सत्य को ही देखते हैं एवं सत्य को ही प्राप्त करना चाहते हैं। यही उनका लक्ष्य होता है कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, मुझे वह करना चाहिए जो अविनाशी आत्मा के गौरव के अनुकूल हो, आत्मशक्ति में सहायक हो। आत्मलाभ में उसे अपना सच्चा लाभ दिखाई पड़ता है।

अज्ञानियों का दृष्टिकोण दूसरा होता है। वे दूर की नहीं सोच पाते। आज का भौतिक हानि-लाभ ही उन्हें वास्तविक हानि-लाभ दीखता है। ऐसे आदमी तीन वस्तुएँ चाहते हैं-(1) अपरिमित धन−संपदा (2) हर घड़ी बढ़िया-बढ़िया इंद्रिय भोग (3) अहंकार की, गर्व की पूर्ति। इन तीन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे व्याकुल रहते हैं। जितनी मात्रा में यह त्रिविधि माया उन्हें मिलती है, उतनी ही उनकी तृष्णा बढ़ती जाती है। अधिक का और अधिक का लालच बढ़ाता जाता हैं, यहाँ तक कि वे उचित-अनुचित का विचार छोड़ देते हैं और जैसे भी बने वैसे इस त्रिविध माया को पकड़ने के लिए दौड़ते हैं। इस दौड़ के आवेश में वे बुरे-से-बुरे कर्म को करने में नहीं चूकते।

ऋत की गोद में बैठा व्यक्ति सोचता है, इस माया में, इस मृगतृष्णा में भटकने से कोई लाभ नहीं, अपरिमित धन को जमा करके क्या करूंगा? यह मेरे साथ जाने वाला तो है नहीं। बिखेर हुए बालू के कण जमा करके महल बनाने के समान बालक्रीड़ा करने से क्या लाभ? धन एक स्थान पर जमा रह नहीं सकता। ऐसी अस्थिर वस्तु को बटोरने की थूकविलौअल करने से, पानी को मथने से क्या लाभ? वह निर्वाह के लायक नीतिपूर्वक कमाता है और अपनी आवश्यकताएँ सीमित रखता हुआ, थोड़े में गुजारा कर लेता है ओर सुखी रहता है।

ऋत की गोद में बैठा व्यक्ति इंद्रिय भोगों की अति के पीछे चलती-फिरती मृत्यु की छाया देखता है। विषयी, कामी, असंयमी, चटोरे, रँगीले, आरामतलब, मनोरंजनों में मस्त लोग अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खोखला कर डालते हैं। निरोगता उनका साथ छोड़ देती है, शाँति उनके मन विदा हो जाती है, वृद्धावस्था, अशक्यता-अकालमृत्यु उनके सिर पर मंडराना लगती है। भोग की अधिकता के कारण इंद्रियाँ जवाब दे जाती हैं, उनमें नीरसता अनुभव करती हैं, फिर भी आदत से मजबूर चटोरे व्यक्ति उसी राह पर बढ़े चलते हैं। कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर अपने मसूड़े छील लेता है और अपना खून आप पीकर बड़ा प्रसन्न होता है। इसके विपरीत समझदार मेधावी देखता है कि विषयी पुरुष अपने ही बल-वीर्य की, अपनी ही जीवनीशक्ति की होली फूँक रहे हैं। इस बेवकूफी से वह दूर रहता हैं। वह अपनी ईश्वरप्रदत्त बहुमूल्य शक्तियों को इस प्रकार नष्ट न करके उन्हें संयम-पूर्वक आत्मोन्नति की साधना में लगाता है।

मायाबद्ध, अचेतस, अज्ञानी अलग रास्ते पर चलते हैं। उन्हें आत्मिक जगत् से कुछ प्रयोजन नहीं, भौतिक जगत् में ही उलझते-सुलझते, हँसते-रोते व्यस्त रहते हैं। दूसरी ओर ऋतसेवी आत्मकल्याण को प्रधानता देते हैं, शरीर को किराये का मकान समझ उसकी चौकसी और आवश्यकतापूर्ति के लिए साँसारिक कार्य करते हैं, सामाजिक दायित्वों को निबाहते हैं। फिर भी उनमें इतना लिप्त नहीं होते कि आत्मचेतना को भूल जाएँ व अनीति के मार्ग पर चलने लगें। ऋतमार्ग पर चलने वाले ज्ञानी अंत में परमात्मा तक पहुँच जाते हैं, परंतु अज्ञानी माया की मृगतृष्णा में भटककर किसी गहरे गर्त में जा गिरते हैं। अज्ञानी पाप-पाषाणों के बोझ से डूब मरते हैं। वेद भगवान् इस ध्रुवसत्य को, अटल तथ्य को उक्त मंत्र द्वारा प्रकाशित कर सावधान करते हैं कि यदि असत् मार्ग पर चले तो ऐ अज्ञानियो! मझधार में डूब मरोगे।


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