रथ के पहियों से निकली घर-घर्र ध्वनि से वनप्राँतर की नीरवता टूट-टूटकर बिखर बिखर रही थी। षोडशवर्षीय अयोध्या के राजकुमार राम अपने छोटे भ्राता लक्ष्मण सहित रथ के पीछे वाले भाग में बैठे थे। उनके बीच में विशाल देहयष्टि वाले महर्षि विश्वामित्र विराजमान् थे। कुशल सारथी के संकेत से अश्व पवन-गति से उड़े चले जा रहे थे। इसी के साथ श्री रामभद्र के मनोआकाश में विचार पाँखियों की पाँत उड़ती जा रही थी।
उन्हें याद आ रहा था वो दिन, जब सेवकों-माताओं के साथ उनके पिताश्री महाराज दशरथ भी चिंतित हो उठे थे। सभी परेशान थे कि राजकुमार रामभद्र दिन-पर-दिन इतने दुबले क्यों होते जा रहे हैं। महाराज के माथे की लकीरें गहरी हो गईं थी, आखिर क्यों? किसलिए? मेरा राम ऐसा क्यों है? उनका पितृहृदय व्याकुल हो उठा था। वे स्वयं भी काफी समय से यह सब अनुभव कर रहे थे।
काफी पूछताछ के बाद कोई भी उन्हें समुचित कारण नहीं बता पाया। परिजन-पुरजन-सेवक इतना भर बता पाए-”हम लोग इतना भर कह सकते हैं कि जो दृश्य उन्हें पहले आनंदित-आह्लादित कर देते थे, उनकी ओर अब आँख उठाकर भी नहीं देखते।” जिसने जो देखा, जो समझा वही बताए जा रहा था।
राजवैद्य को भी दिखाया गया था, परंतु वे भी कुछ नहीं समझ पाए, जब रोग ही नहीं पता चला, तब निदान भला क्या हो?
बताने वाले इतना बता रहे थे कि राजकुमार जब से यात्रा से लौटे हैं, तभी से उनकी यही दशा हैं?
यात्रा और राजकुमार की स्थिति का अंतर्संबंध महाराज की समझ में नहीं आया। भला यात्रा से यह कैसे हुआ? अपने देश की नदियों, पर्वतों, प्रकृति लीलास्थली, वन-अरण्यों, तीर्थों, नगरों तथा ग्रामों के दर्शन से तो उनका ज्ञान बढ़ेगा, यही सोचकर मैंने उन्हें जाने की अनुमति दे दी थी। देशदर्शन से ज्ञानवृद्धि होना तो स्वाभाविक ही हैं, परंतु वह स्वयं में इतना व्यथित हों उठेंगे कि आहार-निद्रा भी त्याग देंगे, यह समझ में नहीं आ रहा....... महाराज दशरथ कहते जा रहे थे।
सेवक बता रहे थे-”रामभद्र को इन दिनों एकाँत अच्छा लगता है। नदी तट, विजन अरण्य तथा एकाकी चिंतन में उन्हें रुचि है, लेकिन मित्रों के हास-परिहास से अब उन्हें विरक्ति हो गई है। वे एक स्थान पर कितनी ही देर तक प्रस्तरवत् बैठे रहते हैं अथवा फिर उदासीन एवं गंभीर मुद्रा में टहलने लगते हैं।”
महाराज सोचने लगे-जब मेरे संतान नहीं थीं, तो सोचा करता था शायद निस्संतान होना ही सबसे बड़ा
दुर्भाग्य है। पर आज मुझे लगता है कि अपनी संतान का कष्ट दूर न कर पाना शायद उससे भी ज्यादा पीड़ादायक है।
इधर सेवक का बताना जारी था, स्वामिन्! रामभद्र इन दिनों कुछ अधिक ही पीले पड़ गए हैं। कुछ पूछने पर अन्यमनस्क हो
दूर चले जाते हैं, मानों बोलने बातचीत करने से उन्हें अरुचि हो गई हो। कभी-कभी जब वे राजमहल की कोई मूल्यवान् वस्तु देखते हैं, तो उनके कमल जैसे नेत्रों में अश्रु छलक आते हैं और वे उनकी ओर से मुख मोड़ लेते हैं।
महाराज दशरथ से अब और सुना नहीं गया, वे शून्य की ओर ताकते हुए बोले-देखें-सर्वेश्वर की क्या इच्छा है? और वे एक ओर धीमे कदमों से चले गए।
इधर रामभद्र के मनोआकाश में कुछ और ही बिंब उभर रहे थे। उनकी विचार-तरंगों में यह उमड़ रहा था-”यह धन-संपत्ति, यह राज्य वैभव, यह प्रासाद आखिर कितने दिन......?”
सोचते-सोचते उन्हें अपनी यात्रा के दृश्य स्मरण हो आए, मानसरोवर की सुनील जलराशि, कैलाश के शुभ्र-धवल हिमशिखर।
श्री बद्री-केदार के पुनीत स्थलों का वह प्रबोधगान कि मानव ऊर्ध्वरेता बनकर रहे तथा मलविक्षेप आवरण उसे स्पर्श न कर पाएँ, परंतु अपने आसपास की जिंदगी में ऐसे दिव्यपुरुष कितने मिलते हैं। ऋषियों की वह दिव्य तपोभूमि-हर पल उनको झकझोरती हुई यही पूछने लगी, संपूर्ण देश त्रासरहित तो है? और फिर तो जैसे उन्हीं का मन चीत्कार कर उठा-राम! तू तरुण होने आया, इन सोलह बसंतों में तूने माता-पिता का प्रेम ममत्व देखा, परिजनों -पुरजनों का स्नेह -समादर देखा, परंतु क्या तुझे रावण जैसे सत्ताशक्ति प्रमत्त द्वारा पीड़ित मानवता की अश्रुपूरित आँखें दिखाई दीं? देश के अनेक जनपद आज उस स्वेच्छाचारी द्वारा भेजे घुसपैठियों के स्कंधावार बने हुए हैं? तो क्या कल समूचे देश उनकी नृशंस बर्बरता से अछूते रह सकेंगे? आज अपनी इस यात्रा में वे जिस चिंतनधारा में निमग्न थे, उसकी व्यापकता सीमाहीन थी।
तभी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने उन्हें पुकारा-”वत्स रामभद्र।” और वे क्रमशः विचारों से यथार्थ की दुनिया में आते हुए विनीत स्वर में बोले-आज्ञा गुरुदेव? अभी भी उनका स्वर सुदूर से ध्वनित होता मालूम पड़ रहा था।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने एक दिवस पहले ही उनके पिता महाराज से उन्हें अपनी सहायता के लिए माँगा था। उनकी इस माँग को महाराज ने बड़े विह्वल मन से पूरा किया था। पर स्वयं श्रीराम के लिए तो महर्षि का सुपास मानो जीवनलक्ष्य की प्राप्ति ही लगा था। अब वे महर्षि की ओर देख रहे थे।
“उन शालवृक्षों के निकटस्थ भग्न कुटीर देख रहे हो?”
“हाँ, गुरुदेव!” इस बार रामभद्र के स्वर में लक्ष्मण का स्वर भी सम्मिलित था।
“इनमें कभी अपरिग्रही योगी-यती साधनारत थे। भोजन के रूप में वे केवल वन्यफल ही लेते थे और नदी का उन्मुक्त जल। परंतु रावण के सैनिकों ने उन्हें यहाँ से बलात् निकाल बाहर किया और उनके कुटीरों को रौंद डाला।”
“गुरुदेव! प्रकाँड वेदवेत्ता महर्षि विश्रवा के पुत्र.....।”
रामभद्र कुछ और कह पाते कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कहने लगे “इसमें मुनि का दोष नहीं वत्स राम! उन्होंने उसे सुसंस्कार देने के पर्याप्त प्रयास किए पर बड़े होने पर उस मातुलकुल का प्रभाव छा गया और आज वह अकारण जनसंहार एवं निर्लज्ज कामुकता का पर्याय बन गया है।”
राम की भृकुटियाँ तन गईं। नेत्रकोण रक्तिम हो उठे। लक्ष्मण की सुदीर्घ भुजाएँ फड़क उठीं और वे विनम्र स्वरों में कह उठे-
“गुरुदेव! हम दोनों का समस्त जीवन यदि इस कार्य में लग सके तो हम बड़भागी होंगे।”
“धैर्य धारण करो वत्स! तुम्हारे पिता महाराज से आज की भिक्षा में मैं रावण का पराभव और इस देश का अक्षुण्ण गौरव एवं उज्ज्वल भविष्य ही तो माँग लाया हूँ।”
“रामभद्र! तुम्हारी मनोदशा कैसी है? जिसके लिए तुम्हारे पिताश्री चिंतित हो रहे थे। क्या यह अरण्यप्रकृति तुम्हें थोड़ा स्वास्थ्य दे सकी?”
“मैं स्वस्थ हो रहा हूँ गुरुदेव! मेरे मानसिक अवसाद का कारण तो जीवन का निष्प्रयोजन लगना था। आपका सान्निध्य पाते ही मुझे लगने लगा कि नहीं अब मेरे जीवन की भी सार्थकता है, इसका भी कोई प्रयोजन है।”
“रामभद्र! अगले दस दिनों तक राष्ट्रकल्याण के लिए किया जाने वाला मेरा यज्ञ चलेगा। इस बीच तुम्हें अनुभव होगा कि यह देश उसकी संस्कृति एवं उसका धर्म अब निरापद नहीं रहे।”
वे श्रीराम एवं भ्राता लक्ष्मण को अपना मूल उद्देश्य बता रहे थे।
“गुरुदेव! आपका यह शिष्य वचन देता है कि रक्त की अंतिम बूँद रहते वह अपनी देवसंस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष करेगा। “ राम की दक्षिण भुजा ऊँची हुई।
“ब्रह्मर्षि! श्रीराम का यह अनुचर भी आपको यह आज्ञा मैं अपने सर्वस्व की आहुति देकर भी पूरी करूंगा।” लक्ष्मण के धनुष की टंकार से वनप्राँतर ध्वनित हो उठा।