आत्मनिर्माण का उद्देश्य (Kahani)

November 1999

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स्वामी विवेकानंद एक सत्संग में भगवान् के नाम की महत्ता बता रहे थे। एक तार्किक ने कहा-”शब्दों में क्या रखा है, उन्हें रटने से क्या लाभ?”

विवेकानंद ने उत्तर में उन्हें अपशब्द कहे। मूर्ख, जाहिल आदि कहा। इस पर वह तार्किक आगबबूला हो गया और भन्नाते हुए कहा-”आप संन्यासी के मुँह से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते। उन्हें सुनकर मुझे

बहुत चोट लगी है।” स्वामी जी ने हँसते हुए कहा-”भाई वे तो शब्द मात्र थे। शब्दों में

क्या रखा है। मैंने कोई पत्थर तो नहीं मारा?”

सुनने वालों तक का समाधान हो गया। शब्द जब किसी को क्रोध उत्पन्न कर सकते हैं, तो जिसके लिए प्रिय शब्द भावपूर्वक कहे जाएँगे, उसका अनुग्रह वे क्यों न आकर्षित करेंगे?

गाँधी जी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से करने पड़ते थे। एक समाज को समर्पित श्रद्धावान् बालक उनके आश्रम में आकर रहा। स्वच्छता-व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए। उन्हें वह निष्ठापूर्वक पूरा करता भी रहा जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग बना लिया।

जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई, तो गाँधी जी से भेंट की और कहा-बापू! मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ ता सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले। महात्मा बनने के सूत्र तो न बतलाए गए, न उनका अभ्यास कराया गया।

बापू ने सिर पर हाथ फेरा। समझाया, कहा-’बेटे? तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले हैं, वे सब महात्मा बनने के सोपान हैं। जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी-बातों में व्यवस्था बुद्धि का विकास कराया गया, यही बुद्धि मनुष्य को महामानव बनाती हैं।

अवंतिका की विशाल जनसभा समाप्त हो गई थी, थोड़े से बौद्ध भिक्षु और श्रेष्ठ सामंतजन शेष रहे थे। यह विचारवान वर्ग था। सब अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान तथागत से करा रहे थे। एक बालक जो अति जिज्ञासु दिखाई देता था, वहीं समीप ही खड़ा था। अवसर मिलते ही उसने पूछा-”भगवन्! संसार में सबसे छोटा कौन है?” बालक की प्रतिभा देखकर भगवान् बुद्ध गंभीर हुए और बोले-

“जो केवल अपनी बात सोचता है, अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानता है।” इन शब्दों में भिक्षुराज ने व्यावहारिक अध्यात्म की रूपरेखा थोड़े और सरल शब्दों में समझा दी।

आत्मनिर्माण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य की इच्छाएँ, लालसाएँ और मनोवृत्तियों उनके निजी सुख और उपभोग तक ही सीमित न रहें वरन् उनका विस्तार हो। लेने-लेने में ही सब आनंद नहीं है। जब तक केवल पाने की अभिलाषा रहती है तब तक मनुष्य बिल्कुल छोटा, दीन, असहाय, अकाय और बेकार-सा लगता है। किंतु जैसे ही उसके शरीर, मन, बुद्धि और संपूर्ण साधनों की दिशा चतुर्मुखी होने लगती है, चारों ओर फैलने लगती है, वैसे ही उसकी महानता भी बिखरने लगती है और वह अपने जीवनलक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगता है।


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