कृष्ण आराधिका मीरा

November 1999

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चाँद आसमान में था और चाँदनी धरा पर। पूर्णिमा की उजियारी तारों भरे आकाश को एक अनोखी आभा प्रदान कर रही थी। ऐसे में मीरा जगी हुई थीं। कृष्णप्रेम में बावले उनके प्राण छटपटा रहे थे। वह सोच रही थीं कि यदि वह दो क्षण सितार के स्वरों में अपनी वेदना उतार पाती तो शायद कुछ शाँति मिलती, किंतु उससे महल के अन्य लोगों की निद्रा भंग हो जाएगी?

लेकिन वेदना का भार बढ़ता ही गया और जब रोम-रोम किसी को पुकार उठने को आकुल हो उठा, तो आत्मा का संगीत मंद स्वर में बहिर्गत हो चला-

दरस बिन दूखन लागे नैन।

जब से तुम बिछुरे प्रभुजी कबहुँ न पायो चैन॥

अरे गिरधरनागर! कब देखूँगी तुम्हारी मुखछवि! अब तो हर पल, हर क्षण भारी है। दर्शन के बिना ये आँखें भी दुखने लगी हैं। हे कृष्ण! करवट लेते रात गुजर रही है। टकटकी लगाकर तुम्हारी बाट जोह रही है। जल्दी आओ मेरे स्वामी!

रात बीती, प्रभाव हुआ, तो राणा कुछ ज्यादा ही क्रुद्ध दिखाई पड़े। शायद किसी ने उनसे मीरा की शिकायत कर दी थी कि वह रात-रात भर सोती नहीं, न जाने किसको लक्ष्य करके विरहगीत गुनगुनाया करती हैं। मीरा की ननद ऊदाबाई उन्हें उपदेश देने भी चली आई कि एक विधवा नारी के लिए गायन-वादन वर्जित है। उसे विरहगीत गाते लज्जा आनी चाहिए।

परंतु मीरा ने तो जैसे उसकी ओर देखा ही नहीं। मन की कसक शब्द बनकर बह निकली। वह कहने लगी-ननद जी! वह ध्येय ही कैसा जो बरजने से छूट जाए? वह लगन ही क्या, जो निंदा-स्तुति से बदल जाए। मेरी प्यारी ननद जी! मुझे संसार से कुछ नहीं लेना। यह तन जाए- धन जाए और भले ही सिर भी जाए, परंतु यह रास्ता अब छूटने का नहीं......। उनके शब्दों में टीस थी। वह कह रही थी- मैं सबके बोल सहूँगी। परंतु यह मन का ‘मनका’ टूटने का नहीं, यह सुमिरण तो चलता ही जाएगा- जब तक साँस है और साँस में आस स्थिर है।

लेकिन भैया जोकुपित हैं? ऊदाबाई ने मीरा के देवर राणा विक्रमाजीत के कठोर-क्रोधी स्वभाव की ओर इंगित किया................।

ऊदा की इस बात पर मीरा के अधरों पर मंदस्मित आया और वे बोलीं- अरी बहना! सीसोदिया रूठेगा तो मेरा क्या करेगा? कौन है जो मुझे अपने गोविंद जी के गुणगान से विरत कर दे? यह कहते-कहते उनके होंठों पर हलकी-सी एक व्यंग्य की रेखा आई और उन्होंने कहा- राणा रूठेगा तो अपने राज से निकाल देगा और क्या करेगा, परंतु हरि जो रूठेंगे तो मेरे लिए कहाँ ठौर है? कहाँ जाऊँगी मैं गिरधर से ठुकराई जाकर? ननद जी! यह लोकलाज की डोरी मुझे बाँधने से रही। मेरी कृष्ण नाम की झाँझ कभी टूटने से रही।

ऊदा हार-थककर चली गई। मीरा एकाकिनि बैठी थी। उनका सितार तो मौन था, परंतु हृदयतंत्री के तार झंकृत हो रहे थे और जीवन के सातों स्वरों में साँवले श्याम की साधना जारी थी। जाति से चमार कहे जाने वाले रैदास को उन्होंने अपना सद्गुरु बना लिया था। सारा विरोध इसी को लेकर था।

तभी किसी ने आवाज दी। मन-वीणा की झंकार में एक पल के लिए अवरोध आया। आने वाली कह रही थी- रानी बहू! यह भगवान् का चरणामृत राणा ने भेजा है तुम्हारे लिए। और उसने हाथ का पात्र आगे बढ़ा दिया।

लाओ बहन! जन पड़ता है देवर जी आज इस दुखियारी पर बहुत प्रसन्न हैं; कहती हुई वह उत्साह के साथ गट-गटकर पी गईं संपूर्ण चरणामृत।

चरणामृत कहीं कड़ुआ होता है! इतना तीक्ष्ण! बुद्धि ने हृदय से प्रश्न किया और तब उत्तर दिया मीरा ने-”राणा जी! जहर दियो मैं जाणी।” राणा जी ने नाराज होकर यह जहर भेजा है, क्योंकि मैंने रैदास जी को अपना गुरु बनाया है।

वह अपने कृष्ण की याद करके मुसकराई और उस आने वाली से कहा- बहन! देवर जी से कहना कि यह उन्होंने ठीक ही किया है, क्योंकि जब तक कंचन कसौटी पर नहीं कसा जाता, तब तक विश्वसनीय नहीं होता। परंतु जहाँ तक मेरे बेपरदा रहने की बात है, कहना कि वे अपनी कुलनारियों से परदा कराएँ, मैं तो अपने कृष्ण के हाथ बिकी हुई हूँ- बिरानी हूँ, अतः मेरी चिंता न करें। देवर जी से कहना कि मैं अपने गिरधर तक पहुँचने के लिए ही संतचरणों से जा लिपटी हूँ और लिपटी रहूँगी और कोई भी भय मुझे उनसे विलग नहीं कर सकता। कृष्ण प्रेम ही मेरा सर्वस्व है।


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