शिखिध्वज ब्रह्मज्ञानी बनना चाहते थे। उनने सुन रखा था- त्याग-वैराग्य के द्वारा ब्रह्मज्ञानी बना जा सकता है। सो उनने घर-गृहस्थी, खेती-बाड़ी आदि सभी जिम्मेदारियों को छोड़कर वन में पलायन किया और वहीं कुटी बनाकर रहने लगे।
उस वन में तपस्वी शतमन्यु रहते थे। इस नवागंतुक को एक गृहस्थी छोड़कर दूसरी बसाने के प्रयत्न में संलग्न देखकर वह खिन्न हुए और समझाने के लिए उनके पास पहुँचे।
गांव की गृहस्थी उजाड़कर वन में वही सरंजाम जुटाने से क्या लाभ? वस्तुओं से व्यक्तियों से तो पाला पड़ेगा ही। वैराग्य तो अहंता और लिप्सा से होना चाहिए और बन पड़े तो घर भी तपोवन बन सकता है।
शिखिध्वज को यथार्थता का बोध हुआ, वे घर वापस लौट गए और परिवार के बीच रहते हुए सेवा-साधना में निरत रहे। एकाकी मुक्ति पाने के स्थान पर उनने समूचे परिवार को ऋषि बनाया। उनके वंशज बाल्यखिल्य ऋषियों के नाम से प्रख्यात हुए और समूचे जंबू द्वीप को देवभूमि बनाने में सफल रहे।