मिलान के आर्कविशप पोप पाल उन दिनों कार्डिनल में आर्थिक तंगी का जीवन जी रहे थे। उन्हीं दिनों अकाल की भी स्थिति थी। एक दिन एक समाजसेवी व्यक्ति उनके पास पहुँचे और बोले अभी भी बहुत लोगों तक खाद्यसामग्री पहुँच नहीं पाई, जबकि कोष में एक भी पैसा नहीं बचा। पोप पाल ने कहा-”कोष रिक्त हो गया-ऐसा मत कहो, अभी मेरे पास बहुत-सा फर्नीचर, सामान पड़ा है, इसे बेचकर काम चलाओ। कल-की-कल देखेंगे।” आज का काम भी रुका नहीं, कल आने तक उनकी यह परदुःखकातरता दूसरे श्रीमंतों को खींच लाई और सहायताकार्य फिर द्रुतगति से चल पड़ा।
डनफर्मलाइन (स्कॉटलैंड) में एक बालक जन्मा। उसकी माँ केक बनाती थी और एक छोटी-सी कोठरी में बैठकर उन्हें बेचा करती थी। पिता फेरी लगाता था, शाम को उतने पैसे मिल जाते थे, जितने से तीनों प्राणी पेटभर लेते थे और आधे फटे कपड़े पहन लेते थे। गरीबी से दुःखी लड़का एक दिन घर से भाग गया और अमेरिका पहुँचकर एक इस्पात कंपनी में चपरासी हो गया। काम उतना था नहीं, इसलिए अपने साहब की अलमारी से कोई किताब निकाल लेता और पढ़ने लगता। दूसरे कर्मचारी आते और उसे बातचीत में लगाना चाहते, पर वह उन्हें किसी-न-किसी बहाने से टरका देता और फिर अपने पढ़ने में लग जाता। वह इतनी तल्लीनता से पढ़ता कि पुस्तक की अधिकाँश बातें एक पाठन में ही याद हो जातीं।
एक दिन एक मीटिंग थी। कोई प्रश्न आ पड़ा, उसे मैनेजिंग डायरेक्टर भी सुलझाने में असमर्थता अनुभव कर रहे थे। वह लड़का पास ही खड़ा था, उसने एक किताब उठाई, बीच में से शीघ्रता से एक पृष्ठ खोलकर डायरेक्टर के आगे बढ़ा दिया। यही वह उत्तर था, जिसकी खोज हो रही थी। बालक की इस असाधारण प्रतिभा से सब हक्के–बक्के रह गए। वह बालक अपनी बुद्धि से उस उद्योग की तमाम तकनीक सीख गया और एक दिन करोड़पति होकर एंड्रयू कार्नेगी के नाम से विख्यात हुआ। वह श्रेय-जिसने उसे जमीन से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया-उसकी स्वाध्यायबुद्धि को ही दिया जा सकता है।