घटना सन् 1940 की है। उन दिनों महात्मा गाँधी के आश्रम सेवाग्राम में परचुरे शास्त्री नामक एक विद्वान् भी रहते थे, जो कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। बापू स्वयं उनका उपचार किया करते थे। वे उनकी मालिश किया करते, घावों को धोते और दवाई लगाते।
एक दिन जब बापू शास्त्री जी की मालिश कर रहे थे। आश्रम के ही एक कार्यकर्ता पंडित सुँदरलाल भी वहीं उपस्थित थे। उन्होंने गाँधी जी से कहा-”बापू! कोढ़ की तो एक अचूक औषधि है। कोई जीवित काला नाग पकड़कर मँगवाएँ और कोरी मिट्टी की हाँड़ी में बंद कर उसे उपलों की आग पर इतना तपाएँ कि नाग जलकर भस्म हो जाए। उस भस्म को यदि शहद के साथ रोगी को खिलाया जाए तो कुष्ठ कुछ ही दिनों में दूर हो सकता है।”
महात्मा गाँधी इस उपाय के संबंध में कुछ कहें, इसके पहले ही शास्त्री जी ने कहा -”बेचारे निर्दोष साँप ने क्या बिगाड़ा है? जो उसको जलाकर अपना रोग ठीक किया जाए। इससे तो मेरा स्वयं का मरना ही ठीक है, क्योंकि हो सकता है पूर्व जन्म के किसी पाप के कारण मुझे यह रोग लगा हो।”