विवेकशील प्रज्ञावान् (Kahani)

November 1999

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जय-विजय भगवान् विष्णु के द्वारपाल थे। उन्हें अपने इस अधिकार पर घमंड हो गया। उन्हें इसमें अपना अनादर प्रतीत हुआ कि कोई उनसे पूछे बिना ही बैकुँठाधिपति से मिलने चला जाए। इन द्वारपालों ने अपने अधिकार का दुरुपयोग कर नारायणप्रिया लक्ष्मी स्वयं गृहस्वामिनी को भी भीतर जाने से रोक दिया। लक्ष्मी जी शालीन स्वभाववश मौन रह गईं, पर जिस दिन उन्होंने सनक-सनंदन,सनातन और सनत्कुमार जैसे महात्माओं को रोक दिया तब वे चुप न रहे। उन्होंने दोनों को असुर होने का श्राप दिया। तीन कल्पों में उन्हें हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप, रावण-कुँभकरण एवं शिशुपाल-दुर्योधन के रूप में जन्म लेना पड़ा। संतों को तो उन्हें निरहंकारिता का पाठ पढ़ाना था। बैकुँठवासी होने के नाते स्वयं में पूर्णता मानकर अपने आपको पतन के भय से मुक्त मान लेना किसी के लिए भी पराभव का कारण बन सकता है। निष्कर्ष यही है, जब स्वर्ग में बैठा एक उच्च पदाधिकारी भी इस दुर्बलता के कारण रावण आदि असुर योनि को प्राप्त होता है, तो फिर मर्त्यलोक का प्राणी यह कैसे मान लेता है कि वह आत्मा की उपेक्षा कर प्रगति कर सकता है?

प्राचीनकाल की बात है। दुर्दांत दैत्यों ने एक साथ सगे भाइयों के रूप में जन्म लिया। मायानगरी जैसे जादू भरे तीन नगर इन्होंने बनाए। सारे संसारवासी इस माया में भ्रमित हो गए- धर्म का लोप हो गया और अधर्म की विजयदुदुंभी बजने लगी। धर्म ने प्रजापति से विनती की। प्रजापति ने महाकाल को-भगवान् शंकर को इसके लिए नियोजित किया, क्योंकि वे ही परिवर्तनों के अधिष्ठाता देवता हैं। पूरी बात भगवान ने सुनी और स्थिति को समझा। तीन पुर बसाने वाले वे दैत्य यद्यपि दीखते अलग-अलग थे, पर वस्तुतः पूर्णतया घुले-मिले थे। उन्हें वरदान मिला हुआ था कि जब मरेंगे तो एक ही साथ एक ही शस्त्र से। महाकाल ने यह स्थिति देखते हुए त्रिशूल बनाया, जिसमें एक ही शस्त्र पर तीन मुख होने के कारण वह तीनों दैत्यों का एक साथ संहार कर सकता था।उन्होंने पूरे वेग से त्रिशूल का प्रहार कर तीनों दैत्यों की शक्ति को विदीर्ण कर डाला। धर्म की जीत हुई। महाकाल की इस विजय का सर्व? अभिनंदन हुआ और इस विजय के उपलक्ष्य में उन्हें त्रिपुरारि कहा जाने लगा।

ये त्रिपुरियाँ हैं- 1-लोभ 2-मोह 3-अहं। नीति का विचार किए बिना अनावश्यक संग्रह इंद्रियों के असंयम एवं विलासिता की वृद्धि रूपी व्यामोह तथा थोड़े-से व्यक्तियों को ही अपना माने का मोह, अपनी क्षुद्र सत्ता पर अहंकार एवं उद्धत महत्त्वाकांक्षाएं-ये ही वे भवबंधन हैं, जिनमें सामान्यजन शहद के लोभ में लिपटी मक्खियों की भाँति फँसे-तड़पते जीवन बिताते हैं।

विवेकशील प्रज्ञावान् अपने अंदर आदर्शवादी दूरदर्शिता विकसित कर इन तीनों रिपुओं से संघर्ष करते हैं एवं प्रचंड पुरुषार्थ द्वारा धर्म की पुनर्स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।


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