महिष्मती के प्रथम नागरिक (करुणाकर) स्वास्थ्य, विवेक और संपन्नता के प्रेरणास्रोत माने जाते थे। वे प्रचुर संपदा के स्वामी थे तथा उसका उपयोग लोकहित में भी करते थे। एक बार वे एक वर्ष की कल्पसाधना के लिए अंगिरा के पास गए। वहाँ साधना में डूबे रहे और जनहिताय तीर्थयात्रा में दूर देशों तक यात्रा करते रहे, उनके मित्र उनकी संपदा की रक्षा न कर सके, चारों ने उनकी सारी संपत्ति चुरा ली। मित्र दुख थे, पर लाचार थे। सोचते थे करुणाकर आएँगे तो जीवन भर की कमाई संपदा चली जाने से कितने दुखी होंगे
करुणाकर आए। सारी बात सुनी और मुसकरा दिए। बोले- मित्रों चिंता न करो। मैं यहाँ नंगा, असमर्थ बालक के रूप में आया था। परिजनों के स्नेह, सहयोग और अपने विचार एवं पुरुषार्थ के सहारे ही तो संपत्ति कमाई थी। प्रभुकृपा से मेरी इंद्रियाँ अभी ठीक काम करती हैं, विचारों में परिपक्वता आ चुकी है, जीवन का समय अभी समाप्त नहीं हुआ और आप सबके स्नेह-सहयोग का पात्र भी हूँ। फिर मुझे क्या कमी है? संपदा फिर आ जाएगी।
और सचमुच करुणाकर पुनः यश-वैभव के स्वामी बन गए। कोई उनकी सराहना करता, तो वे कहते- बंधु यह कुछ नहीं है, मात्र प्रभु द्वारा प्रदत्त साधनों के सदुपयोग की प्रतिक्रिया है। धन्य मैं नहीं, वह प्रभु है जिसने ऐसी अनमोल संपदाएँ हमें दी है।