हमारे आत्मस्वरूप,
पत्र मिला। आपकी उत्कृष्ट भावनाओं का स्पर्श करके अंतःकरण पुलकित हो उठा। आप वस्तुतः पूर्व जन्मों की अत्यंत उच्च आत्मा हैं। किसी महान उद्देश्य के लिए ही आए हैं। जो कार्य पहले जन्मों में शेष रह गया है, वह आपको इस जन्म में पूरा करना है। साधारण लोगों की तरह रोटी कमाने और पेट भरने में ही आपका बहुमूल्य जीवन व्यतीत नहीं हो सकता। यदि ऐसा ही रहा तो आपकी आत्मा हर घड़ी आपको नोचती-कचोटती रहेगी। आपको महापुरुषों के पथ का ही अवलंबन लेना होगा। इस दिशा में आपकी आत्मा में जो प्रेरणा उठी है, उसे ईश्वर का प्रत्यक्ष संदेश समझें और भावी जीवन की योजनाएँ बनाने में भावनापूर्वक लग जाएँ।
प्रस्तुत पत्र परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा 4-11-66 को बालाघाट के श्री पी. एल. श्रीवास्तव जी को लिखा गया था। पत्रलेखन के द्वारा किसी व्यक्ति को किस तरह ऊँची प्रेरणाएँ दी जा सकती हैं, इसका यह जीवंत उदाहरण है। पूर्व जन्म की बात बताकर इस जन्म में दैवीकार्यों में नियोजित होने एवं ऐसा न करने पर क्या परिणति होगी, यह लिखकर गुरुसत्ता ने आत्मतत्व में सोए परमेश्वर को ही जगाने का प्रयास किया है। अनेकानेक लोगों के लिखे गए अनेकों पत्रों में से एक नमूना भर है, जो बताता है कि किस परिश्रम से पूज्यवर ने गायत्री परिवार के एक-एक मनके को माला में गूँथा है। ऐसा ही एक पत्र 1/ 11/66 को एक ऐसे परिजन को लिखा गया, जिनने अपना नाम गुप्त ही रखने की इच्छा व्यक्त की है। पूज्यवर लिखते हैं-
आप साधारण परिस्थिति परिस्थिति में गुजर जरूर कर रहे हैं, पर वस्तुतः अत्यंत उच्चकोटि की आत्मा हैं। रोटी खाने और दिन गुजारने के लिए आप पैदा नहीं हुए हैं। विशेष प्रयोजन लेकर अवतरित हुए हैं। उस प्रयोजन को पूरा करने में ही लग पड़ना चाहिए।मन तो हमेशा हिम्मत को कच्ची करता हैं आत्मबल द्वारा ही साहसपूर्ण कदम उठाए जाते हैं। आप अब इसी की तैयारी करें और हमारे सच्चे उत्तराधिकारी की तरह हमारा स्थान सँभालें।
उपरोक्त पत्र की एक-एक पंक्ति व्याख्या की अपेक्षा रखती है। हम साधारण परिस्थितियों में रहकर हीनभाव से ग्रसित न हों। गुरु तो आत्मिक स्तर को देखता है। यह भी बताता है कि शिश्नोदर परायण जीवन जीकर, हम धरती पर भार बनकर न रहें। यह तो साधारण पशु भी कर लेते हैं। पर भार बनकर न रहें। यह तो साधारण पशु भी कर लेते है। हम सभी को अपने जन्म का प्रयोजन तथा इसका लक्ष्य याद रहना चाहिए। मन की कमजोरी ही व्यक्ति को श्रेष्ठ कदम उठाने में, कोई साहस भरी छलाँग लगाने में बाधक बनती है। उसे वश में करने के लिए आत्मबल को नित्य प्रतिक्षण मजबूत करना जरूरी हैं पूज्यवर कहते हैं कि वे अपने आत्मबल को बढ़ाएँ-अपने उस पथ पर चलने की तैयारी करें व गुरुवर के सच्चे उत्तराधिकारी बनें।
जिन सज्जन को यह पत्र लिखा गया था, वे किन्हीं कारणवश सब कुछ छोड़कर पूज्यवर की यात्रा में साथी तो नहीं बन सके, परंतु कार्यक्षेत्र में निरंतर संलग्न रहकर एक शानदार जागृतात्मा की जिंदगी जीकर गए। गुरुदेव ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने हर जाग्रत परिजन को संबोधित किया है। जब वे उत्तराधिकारी लिखते हैं तो कार्यक्षेत्र में फैले ढेरों काम सँभालने वाले परिजनों के आशय से यह लिखते हैं। हमारे पास कम से कम सौ से अधिक पूज्यवर के हाथों से लिखे ऐसे पत्र रखें हैं, जिनमें उनने अपने संबोधन में उन्हें उत्तराधिकारी व कइयों को विवेकानंद स्तर की आत्मा लिखा है। यहाँ किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव के स्तर की सत्ता विराट् पुरुष की सत्ता थी। वह जब संबोधन करती है तो सभी के मनोबल को उछालने के लिए। हर आत्मा में वह प्रकाश विद्यमान है, जो उसे विवेकानंद स्तर बना सके, पर उस प्रकाश का बोध होना व उसके बाद उसका उस दिशा में प्रयासरत होना अत्यंत अनिवार्य है। गुरु का वाक्य फलित तभी होता है। जब उनकी इच्छानुसार चला जाता है। ऐसे कई विवेकानंदों-निवेदिताओं को पूज्यवर का उलाहना सुनते व साधारण से भी निचले स्तर के दर्जे के जीवन की उन्नत जीवन में परिणति होती गई है। ऐसे प्रत्यक्षदर्शी भी मौजूद हैं।
‘ज्वाला महाराज’ नाम से प्रसिद्ध महासमुँद (म. प्र.) शक्तिपीठ के हमारे प्रमुख कार्यकर्त्ता पूज्यवर के अति प्रियपात्र रहे हैं। 28/2/1970 को उन्हें लिखा परमपूज्य गुरुदेव का पत्र यहाँ उद्धत कर रहे हैं, वे लिखते हैं-
तुम सप्तऋषियों को हम आँखों के आगे ही खड़ा और घूमता देखते हैं। यों तुम लोगों की उच्च आत्मिक भूमिका से हम कई जन्मों से परिचित हैं और हमारे प्रति जो निष्ठा, श्रद्धा, आत्मीयता सँजोए हुए हो, उसकी भी जानकारी है। हमारे लिए यह बड़ी मूल्यवान संपत्ति है। इस बार जो साहस एवं पुरुषार्थ तुम लोगों ने लिया हैं, इससे हमारी छाती गर्व से फूल उठती है। इस बार का शतकुँडीय यज्ञ बहुत सफल रहा। अगला कदम तो तुम लोगों न इतना बड़ा उठाया है कि 50 लाख सदस्यों वाले गायत्री परिवार के हर व्यक्ति का ध्यान मथुरा की तरह महासमुँद से परिचित हो गया है और आचार्य जी के बाद उनके सच्चे शिष्य सप्तर्षियों को देखने के लिए लालायित है। तुम असंभव को संभव करने जा रहे हो। इस पुरुषार्थ को तुम लोगों के न रहने पर भी हजारों वर्षों तक स्मरण रखा और सराहा जाता रहेगा।
कितना प्रेरणादायी-ओज भर देने वाला संबोधन है एवं कैसे कूट-कूटकर शक्ति भरता है, यह पत्र। श्री ज्वाला प्रसाद जी एक विनम्र कार्यकर्त्ता के रूप में गुरुकृपा को स्वीकार करते हैं। इस पत्र की प्राप्ति के बाद उनने भारत भर में संपन्न 1008 कुँडी गायत्री महायज्ञों में से एक अपने यहाँ किया, जिसमें गुरुदेव की शक्ति के ढेरों चमत्कार उनने देखे। आज भी वे पूज्यवर की वाणी को सार्थक करते हुए निरंतर कार्यरत हैं। महासमुँद, छत्तीसगढ़ (म. प्र.) क्षेत्र के हृदयस्थल पर स्थित है। न जाने कितने कार्यकर्त्ता उस क्षेत्र ने दिए हैं। निश्चित ही भगवान् श्रीराम की अपने युग की क्रियास्थली रहा वह क्षेत्र आज भी उनके अनुदानों से निरंतर उऋण होने का प्रयास कर रहा है।
ऐसा ही किंतु बड़े स्पष्ट आश्वासन से भरा एक पत्र पूज्यवर के हाथों से लिखा (29/12/1967) केशर बहन विश्राम भाई ठक्कर (अंजार गुजरात) को संबोधित हमारे पास है। पूज्यवर लिखते हैं-
प्रिय पुत्री केशर,
आशीर्वाद।
तुम्हारा भावनापूर्ण पत्र मिला। पढ़ते समय लगता है कि तुम हमारे सामने ही बैठी हो, हमारी गोदी में ही खेल रही हो। शरीर से तुम दूर हो, पर आत्मा की दृष्टि से हमारे अति निकट हो।
हमारा प्रकाश तुम्हारी आत्मा में निरंतर प्रवेश करता रहेगा और इसी जीवन में तुम्हें पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देगा। संतों और तपस्वियों को जो उच्च भूमिका प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी प्राप्त होगी। अपनी तपस्या का एक अंश हम तुम्हें देंगे। तुम्हें पूर्णता तक पहुँचा देंगे। हमारा सूक्ष्मशरीर तीन वर्ष बाद इतना प्रबल हो जाएगा कि बिना किसी कठिनाई के कहीं भी पहुँच सके और साक्षात् दर्शन दे सके।
सभी को हमारा आशीर्वाद।
श्रीराम शर्मा आचार्य केशर बहन एक साधिका थीं एवं उन्हें सतत् पूज्यवर का मार्गदर्शन मिलता रहा। उनका जीवन जितना शानदार रहा उतना ही गरिमापूर्ण उनका महाप्रयाण रहा। जो परिजन पुराने हैं, उनसे परिचित रहे हैं, वे जानते हैं कि जो-जो अनुदान पूज्यवर के उन्हें मिले, कितनी विनम्रतापूर्वक उनने स्वीकार किए, पर कभी उनका प्रदर्शन नहीं किया। कितना स्पष्ट लेखन पूज्यवर का है कि अपने सूक्ष्मशरीर के समर्थ-शक्तिशाली होने की घोषणा भी कर रहे हैं व उसके द्वारा किसी के भी पास पहुँचकर दर्शन देने की सामर्थ्य अर्जित होने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं।
पत्र तो मात्र माध्यम हैं, परमपूज्य गुरुदेव के स्तर की अवतारी सत्ता के स्वरूप को समझने के। कई घटनाक्रम ऐसे हैं, जो इस पत्र की तिथि से पच्चीस से तीस वर्ष पूर्व तक के हैं, जिनमें उनके सूक्ष्मशरीर ने कइयों को दर्शन दे कृतार्थ किया। वस्तुतः चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण की समाप्ति के बाद चौबीस दिन के जल उपवास के बाद प्रथम प्राणदीक्षा देने के साथ ही उनके अलौकिक प्रसंगों का क्रम आरंभ हो चुका था। फिर भी केशर बहन को तीन वर्ष तक तपसाधना में निरत रख, उन्हें परमगति देने के लिए पूज्यवर ने उन्हें आश्वासन दिया व लिखा कि उनके सूक्ष्मशरीर के दर्शन की आकाँक्षा है तो वे तीन वर्ष और प्रतीक्षा करें। तीन वर्ष बाद पूज्यवर मथुरा छोड़ने वालों थे, सदा के लिए एवं हिमालय को स्पर्श कर ऊर्जा का प्रचंड स्रोत बन एक विराट्तंत्र गायत्रीतीर्थ का शुभारंभ करने जा रहे थे। संभवतः यह पत्र उसी तथ्य को इंगित करता है। पूज्यवर के पत्रों को पाठकों के समक्ष रखते हुए हमें रोमाँच हो उठता है व लगता है कि इस माध्यम से हम गुरुसत्ता के बहुआयामी अवतारी स्वरूप को जान, अपने सौभाग्य को सराह सकें, ऐसी दूरदर्शिता भरी सौभाग्य को सराह सके, ऐसी दूरदर्शिता भरी सूझबूझ हमें मिले। इस क्रम को आगे भी जारी रखेंगे।