परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - फिजा बदल देती है-अवतार की आँधी

November 1999

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पूर्वार्द्ध - 30 अगस्त 1975 जन्माष्टमी पर उद्बोधन

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! आज जन्माष्टमी का पुनीत पर्व है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन पृथ्वी पर भगवान् की वह शक्ति अवतरित हुई, जिसने प्रतिज्ञा की थी कि हम सृष्टि का संतुलन कायम रखेंगे। भगवान् की उस प्रतिज्ञा के भगवान् कृष्ण प्रतिनिधि थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी लगा दी। उसी प्रतिज्ञा के आधार पर उन्होंने जनसाधारण को विश्वास दिलाया है कि हम पृथ्वी को असंतुलित नहीं रहने देंगे और सृष्टि में अनाचार को नहीं बढ़ने देंगे। भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की हुई है-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनाँ विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

मित्रो! मनुष्य के भीतर दैवी और आसुरी-दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती है। दैत्य अपने आपको नीचे गिराता हैं। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ‘परपज’ के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता हैं। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति के भीतर भी और समाज के भीतर भी संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में सफाई की प्रक्रिया यदि न चलाई जाए, कमरे में झाड़ न लगाई जाए, तो कूड़ा भरता चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए, शरीर को स्नान न कराया जाए, तो उस पर मैल जमता चला जाएगा। इसी तरह अगर कपड़े को न धोया जाए, तो कपड़ा मैला होता चला जाएगा।

मलीनता को साफ करने की प्रक्रिया जब बंद हो जाती है या ढीली पड़ जाती है, तो सृष्टि में अनाचार बढ़ जाता है, यह सृष्टि के बहिरंग रूप में भी और अंतरंग रूप में भी फैल जाता है। अंतरंग रूप हमारा व्यक्तिगत रूप हैं। यह भी एक सृष्टि है। व्यक्ति अपने आप में सृष्टि है, व्यक्ति अपने आप में संसार है, विश्व है। अगर संघर्ष की गुँजाइश न हो, सफाई की गुँजाइश न हो, धुलाई की गुँजाइश न हो, तब इसके भीतर भी अनाचार बढ़ता हुआ चला जाता है। इसी तरह बहिरंग संसार की प्रक्रिया, सही करने की प्रक्रिया को जारी न रखा जाए, तब संसार में अनाचार बढ़ता चला जाता है।

कभी-कभी देव भी हार जाते हैं, जब समाज को ऊँचा उठाने वाले उनके सलाहकार धीमे पड़ जाते हैं, हारने लगते हैं। जब हम अपना संघर्ष बंद कर देते हैं और दुष्ट प्रवृत्तियों को खुली छूट दे देते हैं, तब हमारा भीतर वाला देव हारने लगता है और दुष्ट प्रवृत्तियाँ खुलकर खेलने लगती हैं। दुष्ट प्रवृत्तियाँ हमारे स्वभाव और अभ्यास में बनी रहती हैं। चूँकि हम अपने भीतर से संघर्ष बंद कर देते हैं, दुष्प्रवृत्तियों को रोकते नहीं, काटते नहीं, तोड़ते-मरोड़ते नहीं, उनसे लोहा लेते नहीं और न ही उन्हें छोड़ते हैं, इसलिए वे हम से चिपक कर बैठी रहती है ओर उनको हमारे अंतरंग जीवन में खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। और बहिरंग जीवन में? बहिरंग जीवन में भी यही बात है। बहिरंग जीवन में आप अनाचार को छूट दे दीजिए, उसे रोकिए मत, सुधारिए मत, प्रतिबंध लगाइए मत, तब वह चारों ओर से बढ़ता हुआ चला जाएगा। अनाचार आता बहिरंग से है, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन से हैं, लेकिन उतरेगा अंतरंग जीवन में। इस कारण कभी-कभी आप में ऐसा असंतुलन पैदा होगा, जो विनाश की ओर ले जाएगा। जब कभी असंतुलन पैदा हो जाता है, तो यह मालूम पड़ता है कि दुनिया का विनाश होने वाला है। हमारी भीतर की दुनिया का भी ओर बाहरी दुनिया का भी विनाश होने वाला हैं। यह विनाश नहीं, वरन् विनाश के आधार हैं

मित्रो! विनाश का आधार एक ही है-अनाचार। अनाचार की वृद्धि अर्थात् विनाश। अनाचार और विनाश दोनों एक ही चीज हैं। इनमें जरा भी फरक नहीं हैं। एक दूध है तो एक दही। दूध अगर जमा दिया जाएगा, तो दही बन जाएगा और जीवन में अनाचार को बढ़ावा दिया गया होगा तो विनाश उत्पन्न हो जाएगा। यह प्रक्रिया न जाने कब से बार-बार बनती और चलती आ रही है। भगवान् को सृष्टिनिर्माण से पूर्व ही यह ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो जाए और सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाए। इसलिए सृष्टि का संतुलन जब कभी बिगड़ने लग जाता है, तो उसका बैलेंस ठीक करने के लिए भगवान् अपनी शक्तियों को लेकर अवतार लेते रहे हैं।

अब तक भगवान् ने जाने कितने अवतार लिए हैं, हम कह नहीं सकते। उनमें से एक अवतार यह भी है जिसका कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिए, जन्मदिन मनाने के लिए, जिसकी जन्माष्टमी मनाने के लिए हम एकत्रित हुए हैं। भगवान् के अवतार हमारे यहाँ हिंदू सिद्धाँत के अनुसार दस और एक दूसरे सिद्धाँत के आधार पर चौबीस हुए हैं। कोई कहता है कि दस अवतार हुए हैं, तो कोई कहता है कि भगवान् के चौबीस अवतार हुए हैं कि भगवान् के चौबीस अवतार हुए हैं। यह तो मैं हिंदू समाज की बात कह रहा हूँ। लेकिन हिंदू समाज ही दुनिया में अकेला नहीं है। मुसलमान समाज अगल है। मूसा से लेकर मोहम्मद साहब तक ढेरों अवतार हुए हैं। ईसाइयों में भी न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। बौद्धधर्म में न जाने कितने अवतार हुए हैं। पारसियों में कितने अवतार हो चुके हैं। हर मजहब में कितने अवतार हो चुके हैं, यह हम नहीं बता सकते। अवतार होने से हमें कोई शिकायत भी नहीं है।

मित्रो! चलिए इन अवतारों में हम एक और कड़ी जोड़ने को तैयार हैं। जितने भी महामानव, महर्षि, लोकसेवक एवं संसार को रास्ता बताने वाले हुए हैं, चलिए उन सबको हम अवतार मान लेते हैं। इस संबंध में हम यह नहीं कहेंगे कि यह अवतार नहीं था या वह अवतार नहीं था। हमारे ये सब अवतार हैं। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अवतार आपके भीतर में कई तरीके से प्रकट होता रहता है। कभी अनाचार को दबाने के लिए खड़ा हो जाता है, तो कभी पीड़ा-पतन निवारण के लिए खड़ा हो जाता है। तो कभी विकृतियों से जूझने के लिए खड़ा हो जाता है। जिस तरीके से कसाई बकरे को बाँधकर ले जाता है, उसी तरीके से हमारा आँतरिक अवतार न जाने कहाँ से कहाँ ले जाने के लिए हमें विवश कर देता है। दुनिया में ऐसी कौन-सी शक्ति है, कौन है वह जो हमें बताता है कि इस रास्ते पर चलना नहीं है। वह शक्ति हमें ऐसे रास्ते पर चलने से रोक देती है। जब कभी शौर्य का-साहस का उदय हमारे भीतर होता है, तो मित्रो हम कह सकते हैं कि अवतार का उदय हुआ।

अवतार का उदय कितने मनुष्यों के भीतर हुआ और उन्होंने कितनों का कायाकल्प कर दिया? एक उदाहरण बताता हूं आपको समर्थ गुरु रामदास का। समर्थ गुरु रामदास शादी के लिए तैयार खड़े थे। पंडित पंचाँग लेकर पति-पत्नी को एक-दूसरे के गले में वरमाला पहनाने को कह रहे थे। तभी समर्थ के सामने दो सपने आकर खड़े हो गए। सपना नंबर एक कि बीबी आएगी, हाथ-पाँव दबाया करेगी, सिर में तेल लगाया करेगी, खाना पकाया करेगी और बच्चा पैदा किया करेगी। दूसरा सपना इतना जबरदस्त आया कि चूहे के तरीके से रोटी के टुकड़े को देखकर मौत के पिंजड़े में जाने को तैयार हैं? यह पता नहीं कि जिंदगी कितनी कीमती है और इसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान् आया और उसने समर्थ को आवाज दी-बुलाया। भगवान् हमारे और आपके पास भी रोज आता है। रोज संदेश देता है, आदेश देता है, निर्देश करता है। लेकिन भगवान् की पुकार हम और आप कब सुनते हैं? भगवान् आदर्श की, सिद्धाँतों की, नैतिकता की, मर्यादा की बातें बताकर चला जाता है, लेकिन हम और आप यह सब सुनते हैं क्या? हमारे लिए तो भगवान् की पूजा करने के लिए ये खेल-खिलौने ही काफी हैं, जो हमने और आपने पकड़ रखे हैं। हमारी और आपकी समझ में तो भगवान् की आरती उतारनी चाहिए, जप कर लेना चाहिए, भगवान् को धूपबत्ती चढ़ा देनी चाहिए, भगवान् को चावल चढ़ा देना चाहिए और प्रसाद बाँट देना चाहिए। इतना काफी है। और कुछ? नहीं और ज्यादा न हमारी हिम्मत हैं, न हमारा मन है, न हमारी तबियत है, न हमारे अंदर जीवट है और न हमारे अंदर चिंतन है। बस, इन्हीं बाल-बच्चों जैसे खिलौनों से खेलते रहते हैं। भगवान् की पूजा के लिए इन खेल-खिलौनों के अतिरिक्त हम और हिम्मत नहीं कर सकते।

लेकिन भगवान् तो अपनी पूजा के लिए कुछ और ही चाहता है। वह धर्म स्थापना के लिए, समय की माँग को पूरा करने के लिए, समय की माँग को पूरा करने के लिए आपको रोज पुकारता है। धर्म की स्थापना के लिए भगवान् ने किसको-किसको पुकारा? समर्थ गुरु रामदास को पुकारा। उनसे कहा कि अरे! कहाँ चलता है नरक में, चल तेरे लिए तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला पड़ा है। उन्होंने कहा-भगवान् मैं आया। भगवान् मैं डूब रहा हूँ, इस भवसागर से आप मेरा त्राण कीजिए अर्थात् रक्षा कीजिए। भगवान् का तो संकल्प ही है- “परित्राणाय साधूनाँ” अर्थात् साधुओं का त्राण होता हैं, असाधुओं का नहीं। असाधुओं के त्राण के लिए भगवान् के पास कोई फुरसत नहीं है, कोई टाइम नहीं है और कोई मोहब्बत नहीं है। जो आदमी साधु-संत नहीं है अथवा साधु होकर भी पाप के गर्त में गिरते हुए चले जाते हैं, तो भगवान् क्यों करेंगे उनसे? एक सिद्धाँत वाले-उच्च आदर्शों वाले की ओर उन्होंने अपना हाथ बढ़ा दिया और समर्थ गुरु उठकर खड़े हो गए। शादी के मंडप से वे भाग खड़े हुए। लोगों ने कहा कि पकड़ना इन्हें, पर समर्थ गुरु उनकी पकड़ से दूर भाग खड़े हुए। उनकी होने वाली बीबी का ब्याह दूसरे व्यक्ति से कर दिया गया। समर्थ गुरु रामदास जाने कहाँ चले गए।

मित्रो! समर्थ गुरु रामदास वहाँ चले गए, जहाँ से हिंदुस्तान के अध्याय का नया इतिहास आरंभ हुआ। उन्होंने न जाने कितने शिवाजी तैयार कर दिए। महाराष्ट्र में उन्होंने न जाने कितने ज्ञानकेंद्रों, हनुमान मंदिरों को स्थापित किया। एक-एक मुट्ठी अनाज घर-घर से एकत्र करके कितना अपार धन अर्जित किया और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए शिवाजी की सेना में लगा दिया। शिवाजी के नाम से जो संग्राम चला, उसके असली संचालक कौन थे? समर्थ गुरु रामदास। समर्थ गुरु रामदास का इतिहास-भगवान् का इतिहास है। आपका इतिहास? औरों का इतिहास है, चूहों का इतिहास है, जो केवल पेट के लिए जीते हैं, औलाद के लिए जीते हैं। हम और आप भी कोई भगवान् के भक्त हैं? नहीं, साहब हम तो भगवान् की शरण चाहते हैं। खाक चाहता है अभागा कहीं का। बस भक्ति के नाम पर चंदन चढ़ाता हुआ चला जाता है, माला घुमाता हुआ चला जाता हैं। नहीं साहब! हम तो बद्रीनाथ जाते हैं, चंदन चढ़ाते हैं, माला घुमाते हैं, धूपबत्ती जलाते हैं। ये कुछ नहीं, मात्र तू खेल-खिलौना करता, मजाक करता और भगवान् को अँगूठा दिखाता है। आपके ये पूजा करने के ढंग भगवान् से दिल्लगीबाजी करने के समान हैं। पूजा करने के हैं, जो समर्थ गुरु रामदास के पास आए थे।

मित्रो! पूजा करने के सही तरीके वे हैं जो भगवान् की पुकार सुनने वालों ने अपनाए हैं। भगवान् की पुकार सुनने वालों में से एक नाम जगद्गुरु शंकराचार्य का भी है। एक ओर शंकराचार्य की माँ चाहती थीं और ये कहती थी कि मेरा फूल-सा छोकरा ब्याह करके गोरी बहू लाएगा और नाती-पोते पैदा करेगा। कमाकर लाएगा, महल बनाएगा, कोठी बनाएगा, गाड़ी लाएगा और घर में पैसे इकट्ठे करेगा। एक ओर इस तरह शैतान वाला ख्वाब, पाप वाला ख्वाब, लोभ वाला ख्वाब, आकर्षण वाला ख्वाब था, दैत्य वाला ख्वाब था, तो दूसरी ओर शंकराचार्य के मन में देवत्व वाला ख्वाब था। भगवान् ने शंकराचार्य के कान में इशारे से कहा-अरे अभागे! जिस काम के लिए कुत्ते और बिल्ली, मेढ़क और चूहे अपनी सारी जिंदगी खर्च कर देते हैं, वह तेरे लिए काफी नहीं है। तेरे लिए दूसरा रास्ता खुला हुआ है, उस ओर चल।

शंकराचार्य ने अपनी माँ को समझाया, परंतु माँ की समझ में कहाँ और क्यों आने वाला था? उसकी समझ में तो यही आता था कि मुझे पोता चाहिए, पोती चाहिए, कोठी चाहिए। मित्रो! इन सब ख्वाबों को लात मार उठ खड़ा हुआ-शंकराचार्य। कौन खड़ा हो गया? चारों धाम की स्थापना करने वाला शंकराचार्य, बौद्ध नास्तिकवाद की जड़ें उखाड़कर हिंदुस्तान से बाहर करने वाला शंकराचार्य। उन दिनों बौद्धों का नास्तिकवाद हिंदुस्तान में लोगों के मन-मस्तिष्क में घुसता हुआ चला जा रहा था, तब शंकराचार्य ने कहा था कि हिंदुस्तान में आस्तिकता जिंदा रहेगी, नास्तिकता को हम जिंदा नहीं रहने देंगे। हिंदुस्तान से नास्तिकता को उन्होंने निकाल बाहर किया। फिर वह कहाँ चली गई? चाइना चली गई, कोरिया चली गई, मलेशिया चली गई, जापान और वर्मा चली गई, नेपाल चली गई, श्रीलंका चली गई, कहीं भी चली गई, पर हिंदुस्तान से भाग गई। ये शंकराचार्य की हिम्मत थी। चारों धामों की स्थापना करके सारे हिंदुस्तान को एकता के सूत्र में पिरोने वाला वह शंकराचार्य, दिग्विजय करने वाला वह शंकराचार्य, अनूठे विचारों वाला शंकराचार्य अलग था। उसने भगवान् की पुकार सुन ली थी।

मित्रो! अगर शंकराचार्य ने भगवान् की पुकार न सुनी होती तब? तब बेटे यही होता जो हमारा-आपका हुआ है। क्या हो जाता? नौ बेटे और ग्यारह बेटियाँ होतीं। एक बच्चा गोद में बैठा होता तो एक सिर पर बैठा होता और एक माँ के पेट में। एक गालियाँ दे रहा होता, एक मूँछें काट रहा होता और एक मारपीट कर रहा होता। आपके जैसे उसकी भी मिट्टी पलीद हो गई होती। लेकिन भगवान् की पुकार को सुनने वाला शंकराचार्य उनकी कृपा से जीवन की दिशाओं को लेकर न जाने कहाँ से कहाँ चला गया। भजन इसी का नाम है, जिसमें कि आदमी के जीवन की दिशाधारा बनाई जाती है, विचार बनाए जाते हैं और काम करने के तरीके बदले जाते है। इसी का नाम है भजन। भजन माला घुमाना नहीं है, भगवान् की पुकार सुनने का नाम भजन है।

मित्रो! भगवान् की पुकार सुनने का प्रतिफल यही होता रहा है। कितने मनुष्यों के भीतर भगवान् की पुकार पैदा हुई और किन-किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुई? भगवान् समय-समय पर साकार रूप में भी आते हैं। निराकार रूप में भगवान् किस-किसके पास आए, जैसा कि अभी मैंने आपको सुनाया। गुरुदेव अभी आप और उदाहरण सुनाएँगे? नहीं बेटे, अब मैं और नहीं सुनाऊँगा। अगर और हवाला देना पड़ा तो सारे विश्व का वह इतिहास आपके सामने पेश करना पड़ेगा, जिन्होंने नियमों के लिए, सिद्धाँतों के लिए, आदर्शों के लिए कुरबानियाँ दीं, बलिदान दिए, कष्ट उठाए और दूसरों की नजरों में बेवकूफ कहलाए, बेकार कहलाए। लेकिन अपने आदर्शों के लिए, सिद्धांतों के लिए, दुनिया में शाँति कायम रखने के लिए, दुनिया में शालीनता कायम रखने लिए जिन्होंने अपने आपको, अपनी अक्ल को, अपनी ताकत को और अपनी संपत्ति को सर्वस्व न्योछावर कर दिया, ऐसे लोगों की संख्या सारी-की-सारी तादाद लाखों भी हो सकती है और करोड़ों भी। भगवान् की गाथाएँ सुनाने पड़ेंगे। आप इन सबकी कथा−गाथा को भगवान् की कथा−गाथा मान सकते हैं।

इसी तरह गाँधीजी की कथा−गाथा को यह कहने में कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा−गाथा है। बुद्ध की, शंकराचार्य की कहानी कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि वह भगवान् की कथा−गाथा है। दूसरे अन्य लोगों ने, जिन्होंने भी ने जीवन, श्रेष्ठ जीवन जिया, आदर्श जीवन जिया, लोगों को प्रकाश देने वाला जीवन जिया, अपने आप में नमूने का जीवन जिया, मित्रो! वे सारे-के-सारे भगवान् थे, क्योंकि उनके भीतर भगवान् अवतरित हुआ होगा और भगवान् ने भगवान् की बाँह पकड़ ली होगी। भगवान् से उन्होंने कहा होगा कि हम आपके पीछे चलेंगे और आपकी छाया होकर रहेंगे।

साथियों! भगवान् का हुक्म जिन लोगों ने माना, वे सब आदमी भगवान् के अवतार कहे जा सकते हैं, देवता कहे जा सकते है और जिन लोगों ने भगवान् को ठोकर मारी, माला भले ही घुमाते रहे, उन्हें मैं कैसे कह सकता हूँ कि आप भगवान् के भक्त हो सकते हैं। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को मानने को तैयार नहीं हूँ कि वह व्यक्ति भगवान् की इज्जत करने वाला हो सकता है, भगवान् पर विश्वास करने वाला हो सकता है, जो सारा दिन माला घुमाता है, सारा दिन भजन करता है, लेकिन उसकी जिंदगी ऐसी घिनौनी है, जिसे देखकर घृणा आती है और नफरत होती है। ऐसे व्यक्ति भगवान् के भक्त नहीं हो सकते और न ही उनके अंदर भगवान् अवतरित हो सकता है।

भगवान् के अवतार मन में अवतरित हुए हैं, हृदय अवतरित हुए हैं, आदर्शवादी सिद्धांतों और श्रेष्ठकर्मों के रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टि में हवा के रूप में, आँधी के रूप में निराकार भगवान् व्याप्त हैं। हवाएँ दिखाई नहीं देतीं, फिर भी अपना काम कर जाती हैं। इसी प्रकार निराकार भगवान् है। गाँधी जी के जमाने में एक हवा आई थी। गाँधी जी आगे-आगे चलते थे तो उनके पीछे-पीछे सब चल पड़ते थे। गाँधी जी अकेले थे? नहीं, मित्रो! वे अकेले नहीं थे, हजारों-लाखों आदमी उनके साथ काम करते थे। हजारों-लाखों लोगों की कुरबानियों-बलिदानों, लाखों लोगों की तबाही, लाखों लोगों का गाली खाना आदि तरह-तरह की मुसीबतों को झेलकर, सबसे मिलकर उनका संग्राम हुआ। तब देश को आजादी मिली।

मित्रो! इस देश में हर जमाने में एक-एक ऐसी हवा चली है, जिसने दुनिया की दिशाधारा ही बदल दी अन्यथा इस देश में नास्तिकवाद, अनाचारवाद फैल जाता। इस हवा को लेकर कौन आया? हवा के संदेश को लेकर कौन आया? संदेश लेकर के यहाँ भगवान बुद्ध आए थे। तो क्या भगवान् बुद्ध ने हिंदुस्तान का- सारे एशिया का बेड़ा गर्क नहीं कर दिया था? नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। यह काम पीछे वालों का अनुयायियों का तो हो सकता हैं, पर भगवान् बुद्ध का नहीं। बुद्ध भगवान् अकेले क्या कर सकते थे? एक अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता। एक आँधी आती है, एक तूफान आता है, एक हवा आती है। जब आँधी आती है, तो हमें आगे का काम दिखाई पड़ता है। सेना जब चढ़ाई करने जाती है, जब एक विशेष रंग का झंडा आगे-आगे फहराता हुआ चलता है और सैनिक बढ़ते हुए चले जाते है। ठीक है जब चढ़ाई होती है तो झंडे के निशान आगे बढ़ते हुए दिखाई देते हैं, परंतु वह झंडा तो लड़ाई नहीं लड़ता, लड़ने वाली फौज होती है। हवाएँ कभी-कभी आती है। ये हवाएँ क्या काम करती हैं? ये हवाएँ यह काम करती हैं कि असंख्य मनुष्य उपकार में लगे दिखाई पड़ते हैं। गाँधी एक हवा थी, बुद्ध एक हवा थी, कृष्ण एक हवा थी, राम एक हवा थी। मित्रो! राम अकेले अगर रावण को मार सकते तो उन्होंने वहीं से क्यों नहीं मार दिया? नहीं साहब, अकेले राम नहीं मार सकते थे हाँ, बेटे, अकेले नहीं मार सकते थे। उन्हें रीछों की सेना लेनी पड़ी, वानरों की सेना लेनी पड़ी, जमीन पर सोना पड़ा। मनुष्य होकर रहना पड़ा। विभीषण को साथ लेना पड़ा। ढेरों-के-ढेरों मनुष्यों को संग लेना पड़ा और तब एकत्रित सेना को लेकर रावण से युद्ध लड़ा। इस तरह से रावण का खात्मा हुआ। यह हवा थी एक जमाने में।

इसी तरह क्या कृष्ण भगवान् महाभारत युद्ध अकेले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले नहीं लड़ सकते थे? अगर अकेले लड़ सकते तो पाँडवों की खुशामद क्यों करते? पाँडव बार-बार यही कहते रहे कि हमें यह लड़ाई नहीं लड़नी है। वे हमारे रिश्तेदार लगते हैं। हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, अपनी दुकान चलाकर खा लेंगे। हमें राजपाट नहीं चाहिए। हमें लड़ाई से छुट्टी दीजिए। हमसे अपने स्वजनों का खून–खराबा नहीं होगा। फिर भी कृष्ण भगवान् खुशामद करते रहे, हाथ-पाँव जोड़ते रहे, नाराज होते रहे, गालियाँ सुनाते रहे और कहते रहे कि तुम्हें लड़ना चाहिए। कृष्ण अगर अकेले महाभारत का युद्ध लड़ सकते, कंस को मार सकते, असुरों को मार सकते, सभी आततायियों को मार सकते तो फिर मैं सोचता हूँ कि सारे विश्वभर में निमंत्रण भेजकर सेनाओं को बुलाने की क्या जरूरत थी? अगर अकेले ही गोवर्द्धन उठा सकते थे तो ग्वाल−बालों को लाठी लगाने की क्या जरूरत थी?

मित्रो! अकेला आदमी कितना कर सकता है। मैं किसी तरह से यह विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ कि एक व्यक्ति विशेष सारे-के-सारे समाज को रोक सकता है, बदल सकता है। ऐसा नहीं हो सकता। ये हवा है, जिसे पैदा करने की कोई मशीन काम करती होगी, इस बात का समर्थन करने को मैं तैयार हूँ। इस हवा में बहुत से ढेरों आदमी घिरे होते हैं। इनके दिमाग और दिल एक दिशा में चल पड़ते हैं, जैसे कि अपने आँदोलन में। आपके अपने इस आँदोलन में क्या आदमी संचालन करता है? नहीं, एक आदमी संचालन नहीं कर सकता। क्या एक आदमी नियम बनाने के लिए आश्वासन दे सकता है? नहीं, एक आदमी के बस की बात नहीं है। एक आदमी फिजा बदल सकता है।? एक आदमी नया जमाना ला सकता है? एक आदमी लोक-समाज में हलचल पैदा कर सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

क्रमशः अगले अंक में


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