एक गृहस्थ को सर्वोत्तम सौंदर्य की खोज थी। सो वे एक तपस्वी के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने उत्तर दिया, श्रद्धा मिट्टी के ढेले को गणेश बना सकती है। समाधान न हो पाने से एक भक्तजन के पास पहुँचे। उन्होंने कहा, प्रेम ही सुँदर है। काले कृष्ण गोपियों को प्राणप्रिय लगते थे। समाधान कुछ हुआ, कुछ न हुआ। सोच-विचार करते वे आगे चल पड़े। युद्धभूमि से लौटा, शस्त्रों से लदा सैनिक मिला। उससे पूछा, सौंदर्य कहाँ हो सकता है? सैनिक का उत्तर था-शाँति में।
जितने मुँह उतनी बातें। निराश गृहस्थ अपने घर लौटा। दो दिन की प्रतीक्षा में सभी व्याकुल हो रहे थे। पहुँचा, तो सभी लिपट पड़े। पुत्री की आँखों से आँसू झर पड़े। आत्मीयता का, स्नेह का, गहन श्रद्धा का सागर-सा उमड़ पड़ा। सभी को असाधारण शाँति का अनुभव हुआ।
गृहस्थ ने तीनों समाधानों का समन्वय अपने घर में देखा। उसके मुँह से निकल पड़ा, मैं कहाँ भटक रहा था। श्रद्धा, प्रेम और शाँति इन तीनों के ही दर्शन तो अपने घर में हो रहे हैं। यही सबसे श्रेष्ठ एवं सर्वाधिक सौंदर्यपूर्ण कृति है।
एक बार एक कलाकार ने अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई। उसे देखने के लिए नगर से सैकड़ों धनी-मानी व्यक्ति भी पहुँचे। एक लड़की भी उस प्रदर्शनी को देखने आई। उसने देखा सब चित्रों के अंत में एक ऐसे मनुष्य का भी चित्र टँगा ह, जिसके मुँह को बालों से ढँक दिया गया है और जिसके पैरों पर पंख लगे थे। चित्र के नीचे बड़े अक्षरों में लिखा था “अवसर।” चित्र कुछ भद्दा-सा था इसलिए लोग उस पर उपेक्षित दृष्टि डालते और आगे बढ़ जाते।
लड़की का ध्यान प्रारंभ से ही इस चित्र की ओर था। जब वह उसके पास पहुँची तो चुपचाप बैठ कलाकार से पूछ ही लिया-”श्रीमान् जी यह चित्र किसका है? आपने इसका मुँह क्यों ढँक रखा है तथा उसके पैरों में पंखों का क्या रहस्य है,” कलाकार ने जवाब दिया- “यह बेटी”अवसर का चित्र है। चूँकि साधारण व्यक्ति इसे पहचान नहीं पाते। अतः मैंने इसका मुँह ढँक रखा है, ताकि इसे देखकर जिज्ञासा तो उठे। पैरों में पंख इसलिए कि यह अवसर जो आज चला गया, कल फिर आएगा नहीं। इसलिए उसे उड़ने से पहले ही थाम लो। इसका सदुपयोग कर लो।” लड़की ने मर्म को समझा और तत्क्षण ही अपने जीवननिर्माण में जुट गई।