घर में रसोईकक्ष की स्थिति कहाँ हो

November 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वास्तुशास्त्र पर आधारित यह लेखमाला विशेष रूप से पाठक-परिजनों को भारतीय संस्कृति-स्थापत्य-विज्ञान की उस विधा के वास्तविक स्वरूप से परिचित कराना है, जो आज लोकप्रिय तो हो गई है, पर जन-जन के भयभीत होने के रूप में। हर कोई अपने घर में फेरबदल कराने हेतु वास्तु-विशेषज्ञ के पास चला जाता है। बिना अध्ययन किए ढेरों वास्तुविद् समाज में पैदा भी हो जाए हैं। इस लेखमाला द्वारा यदि यह समझा जा सके कि घर यदि बन गया है, तो उसमें मामूली फेरबदल कर अंतर्ग्रही प्रभावों, भूचुँबकीय धाराओं से लाभान्वित हुआ जा सकता है, तो इसकी सार्थकता होगी। किसी भी पुरुषार्थ में प्रमादवश, यदि अपनी हर असफलता के लिए घर के वास्तुशास्त्र को कोई दोष देता है तो वह गलत है। दिशाएँ कैसे होती हैं, यह भी नीचे के चित्र से समझ लें।

वास्तुशास्त्र में सर्वाधिक महत्व पाकशाला अर्थात् रसोईघर को दिया जाता है। झोंपड़ी से लेकर मिट्टी के कच्चे घरौंदे एवं आलीशान पक्के महलों तक का यह सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। चीन में रसोईघर को गृह का कोष अर्थात् खजाना माना जाता है। घर का यही वह स्थान है, जो अग्नि से संबंधित है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-इन पंचमहाभूतों में अग्नि की अपनी विशिष्टता है। प्राचीनकाल में जब इसका आविष्कार नहीं हुआ था, तो लोग कंद, मूल, फल आदि कच्चे खाद्यपदार्थों। से अपनी क्षुधा मिटाते थे, किंतु अग्नि की खोज के बाद मनुष्य भोजन पकाकर खाने लगा है। भौतिक जगत् में अग्नि जहाँ ताप एवं ऊर्जा का स्रोत है, वहीं आध्यात्मिक जगत् में यह ओजस् एवं तेजस् प्रदान करता है।

शास्त्रों में अग्नि की दिशा दक्षिण-पूर्व का कोना अर्थात् आग्नेय कोण निर्धारित की गई है। इसका स्वामी अग्निदेव को माना गया है। अतः गृहनिर्माण में ताप, अग्नि एवं विद्युत आदि संबंधी सभी कार्यों, जैसे चूल्हे, बर्नर, स्टोव, हीटर, भट्टी विद्युत उपकरण आदि के लिए आग्नेय कोण उपयुक्त माना गया है। इस दिशा की स्थिति पर ही वास्तु अर्थात् भवन की स्थिरता, सुदृढ़ता, तेज एवं उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य तथा तेज निर्भर करता है। अग्नि का निवास सूर्य में होने के कारण ही इस दिशा में हवन-यज्ञ आदि शुभकार्य करने का शास्त्रीय विधान है। इससे याजक को सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य, कीर्ति एवं दीर्घायुष्य का लाभ मिलता है। अग्नि एवं उससे संबद्ध सूर्यदेव उनकी रक्षा करते हैं। अग्निपुराण में इस संदर्भ में विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है और अग्नि को आग्नेय कोण का स्वामी बताते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अग्निहोत्र, बलिवैश्व आदि द्वारा नित्य अग्नि की उपासना करते हैं, वे ओजस्, तेजस् एवं वर्चस् का लाभ प्राप्त करते है। अग्निकोण में दीप प्रज्वलित रखने, रसोईघर में सतत् अग्नि जलाए रखने व उसे न बुझने देने को शास्त्रों ने इसीलिए शुभदायक बताया है। यदि भवन में अग्निकोण का समुचित सदुपयोग किया जा सके तो जीवन में प्रगति-उन्नति तो होती है, व्यक्तित्व भी आकर्षक एवं ओजस्वी-तेजस्वी बनता है।

पंचभौतिक तत्वों से निर्मित हमारी भौतिक काया का पोषण खाद्य-पदार्थों द्वारा होता है और इन पदार्थों का निर्माण रसोईघर में होता है। रसोईघर में बनने वाले उत्तम भोज्यपदार्थों पर ही पारिवारिक सदस्यों का स्वास्थ्य निर्भर करता है। ‘विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र’ के 22/1-13 में इस संदर्भ में उल्लेख करते हुए कहा गया है।-

पृथिव्यादि महाभूतैर्निर्मिता मानुषी तनुः। तस्मात्तदुत्थसद् द्रव्यैस्तस्याः पोषणमीरितम्॥

यथाकालं पक्वमत्रं भक्ष्यं खाद्य«च लेह्मकम्। भु«ज्यान्मतिमान्देही स्थाने सल्लक्षणान्विते॥

तस्मात्सुखादिश्रेयोऽर्थी भोजनागारमुत्तमम्। स्थापयेत्स्वगृहे नित्यं नैमित्तिकमिदं बुधः॥

वास्तुविद्याविशारदों ने रसोईघर के लिए दक्षिणपूर्व का कोना अर्थात् आग्नेय कोण को सर्वश्रेष्ठ माना है। वाराह मिहिर ने अपनी अनुपम कृति ‘वृहत्संहिता’ के तिरपनवें अध्याय-’वास्तुविद्याध्याय’ के 198 श्लोक में लिखा है कि ईशान कोण में पूजागृह, आग्नेय कोण में पाकशाला-रसोईघर, नैऋत्य कोण में भंडारकक्ष-गृहसामग्री कक्ष एवं वायव्यकोण में धन-धान्य स्थापनगृह बनाना चाहिए।

इसी तरह अग्निपुराण के एक सौ छठवें अध्याय-’नगरादिक वास्तु कथनम्’ के 18-19 श्लोक में एक उल्लेख आता है, जिसका भावार्थ है-भवन में पूर्व की ओर स्ट्रांगरूम कोशागार, आग्नेय कोण में पाकशाला, दक्षिण की तरफ शयनकक्ष, नैऋत्य कोण की तरफ शस्त्रागार, पश्चिम की ओर भोजनकक्ष, वायव्यकोण की ओर धान्यागार, उत्तर की ओर द्रव्यागार तथा ईशान कोण में देवालय या पूजाकक्ष बनाना चाहिए।

सभी शास्त्र कहते हैं कि इस तरह से निर्मित भवन गृहस्वामी एवं उसमें निवास करने वालों के लिए कल्याणकारी होता है।

वास्तुविद्या के ज्ञाताओं ने ‘किचन’ अर्थात् रसोईघर को दक्षिणपूर्व अग्निकोण में बनाने के लिए प्राथमिकता इसलिए दी है कि प्रातःकाल पूर्व दिशा से उदित होने वाले सूर्य से आने वाली लाभदायक किरणपुँजों के साथ प्राणपर्जन्य एवं शुद्ध वायु की उस दिशा में बहुलता होती है। इनके प्रभाव से न केवल पूर्वाभिमुख होकर भोजन बनाने वाला व्यक्ति स्वस्थ एवं प्रसन्नचित रहता है वरन् उसके द्वारा बनाया गया भोजन भी स्वादिष्ट और पुष्टिवर्द्धक होता है। विशेषज्ञों का तो यहाँ तक कहना है कि भोजन को चखकर स्वाद के आधार पर यह जाना जा सकता है कि किस घर में रसोईघर किस दिशा में स्थित है? इसी तरह संपन्नता, निर्धनता, रुग्णता, स्वस्थता, गृहकलह आदि का परिचय पाकशाला की दिशाधारा के आधार पर पाया जा सकता है कि वह कौन से गृह में किस दिशा में स्थित है?

चीनी मान्यता के अनुसार व्यक्ति का संतुलित स्वास्थ्य बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि घर में रसोईकक्ष की स्थिति कैसी है, वह किस दिशा में है और किस दिशा में मुँह करके भोजन बनाया गया है। चीनी वास्तुविज्ञान ‘फेंग सुई’ के अनुसार व्यक्ति का स्वास्थ्य एवं धन−संपदा दोनों को ही रसोईघर प्रभावित करता है। किसी भी घर का यह सबसे महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि इसमें बने-पके भोजन को खाकर ही व्यक्ति बाह्यजगत में जाकर कर्मक्षेत्र में उतरता और दक्षतापूर्वक काम करते हुए सफलता अर्जित करता है।

भवननिर्माण करते समय सबसे पहले यह सुनिश्चित किया जाता है कि भूखंड-’प्लाँट’ का आकार कैसा है? वह चौकोर, आयताकार, गोलाकार, त्रिकोण या विदिशा आदि किस प्रकार है? सड़क किधर से निकलती है? भवन का आकार कैसा होगा? उसमें कितने कमरे बनेंगे? आदि बातों की जानकारी हो जाने पर वास्तुनियमों के अनुसार गृह के प्रमुख कक्षों का निर्धारण करना आसान हो जाता है। यों तो आजकल लोग मनचाहे ढंग से ऐसे गृहों का निर्माण करने लगे हैं, जिसमें प्रायः भवन के मुख्य दरवाजे के सामने रसोईकक्ष पड़ता है। इसके लिए कुतर्क यह दिया जाता है कि इस तरह रसोईघर मुख्य दरवाजे के सामने होने से घर में आने-जाने वाले लोगों पर नजर रखी जा सकती है। किंतु वास्तुशास्त्र की दृष्टि से यह निर्णय अनर्थकारी एवं विनाशक ही सिद्ध होता है। ऐसे भवनों में निवास करने वाले पारिवारिक सदस्यों के मध्य प्रायः लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। आपसी मनमुटाव, कलह-क्लेश बना रहता है, मानसिक तनाव व अवसाद घेरे रहता है एवं आर्थिक हानि, तंगी व बीमारियाँ डेरा डाले रहती हैं। अतः हर हालत में कमरों की व्यवस्था ऐसे बनानी चाहिए कि रसोईघर भवन के दक्षिणपूर्व में पड़े। यदि किसी कारणवश इस दिशा में रसोई बनाना संभव न हो तो इसे पश्चिम दिशा में बनाया जा सकता है, बशर्ते इस रसोईघर में चूल्हा या गैसस्टोव आदि रसोईघर के आग्नेय कोण में ही रहे।

आज प्रायः सभी जगहों-विशेषकर कस्बों एवं छोटे-बड़े शहरों में भोजन पकाने के लिए स्टोव तथा गैस सिलेंडर का प्रयोग होता है। गाँवों में तो रसोई में अभी भी उपले और लकड़ी के चूल्हे ही जलते हैं। गैसचूल्हे की पट्टी प्लेटफार्म या स्लैब दो तरह से बनाए जाते हैं। एक तो ‘एल’ आकार के और दूसरे दो समानाँतर पट्टियों वाले। समानांतर स्लैब में एक पट्टी दक्षिण पूर्व दीवार के सहारे और दूसरी दक्षिण-पश्चिम में होती है। इनमें से दक्षिण पूर्व वाले स्लैब या पट्टी का प्रयोग गैसचूल्हा रखने के लिए तथा दूसरे का बर्तन तथा रसोईघर के अन्य उपयोगी उपकरण रखने के लिए किया जाता है।

वास्तुनियमों के अनुसार गैसचूल्हे की पट्टी या प्लेटफार्म आग्नेय कोण में पूरब की दीवार के सहारे बनाना अधिक उपयुक्त रहता है। इससे चूल्हा या स्टोव पश्चिमाभिमुखी हो जाता है और खाना पकाने वाले का मुँह पूरब की तरफ होता है। अपनी आवश्यकता के अनुसार स्लैब या पट्टी की चौड़ाई डेढ़ फीट से दो फीट तक रखी जा सकती है। स्लैब का निर्माण कराते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि स्लैब उत्तरी दीवार से सटा हुआ न हो, वरन् कम-से-कम तीन इंच दूर हो और दक्षिणी दीवार से सटा हो। कमरा छोटा हो या बड़ा, निजी भवन हो या किराये का मकान-सभी जगह ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि रसोई वाला भाग आग्नेय कोण या वायव्य पश्चिम में पड़े।

यदि रसोईघर में ‘एल’-आकार की गैसपट्टी बनानी हो तो उसमें भी उत्तरी दीवार को छोड़ते हुए एक पट्टी आग्नेयपूर्व में तथा दूसरी आग्नेयदक्षिण में संयुक्त रूप से बनानी चाहिए। इसमें भी चूल्हा या स्टोव दक्षिणपूर्व की तरफ रहेगा। यदि किसी कारणवश आग्नेय कोण में रसोईघर का निर्माण करना संभव न हो तो इसे वायव्य-पश्चिम दिशा में बनाया जा सकता है। ईशानकोण में रसोईघर कभी नहीं बनाना चाहिए। इसी तरह मध्य-उत्तर, मध्य-पश्चिम, मध्य-दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम अर्थात् नैऋत्यकोण एवं केंद्र में रसोईघर बनाना उचित नहीं है। इसी तरह पूजाकक्ष, शयनकक्ष या शौचालय के ऊपर या नीचे रसोईघर नहीं होना चाहिए। वास्तुशास्त्र की मान्यता है कि यदि रसोईघर गलत जगह पर होगा तो घर के सदस्यों के स्वास्थ्य पर उसका बुरा असर पड़ेगा। ऐसे घरों में लोग अपच, अरुचि, एचिडिटी, हृदयाघात जैसी बीमारियों से सदा जकड़े रहेंगे। विदिशा भूखंड अर्थात् कोणों में स्थित भूखंड वाले भवनों में रसोईकक्ष भूखंड के पूर्व में बनाए जाते हैं अथवा दक्षिणी खंड में इनकी व्यवस्था की जाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118