समरसता ही जीवन है

November 1999

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यह माना जाता रहा है कि बीमारियाँ ऋतुपरिवर्तन से, मक्खी-मच्छरों से, वात-पित्त-कफ के प्रकोप से, विषाणुओं से, छूत से फैलती हैं। गंदगी भ उनका एक मुख्य कारण है, किंतु अब प्रगतिशील विज्ञान ने गहराई में उतरकर यह निष्कर्ष निकाला है कि चेतना को उद्वेलित करने वाले मन की विकृतियाँ रक्त को, तापमान को, अवयवों की ऊर्जा को प्रभावित करती हैं। इसी कारण सजातीय द्रव्य विजातीय में परिवर्तित होता है ओर जहाँ कहीं से इसे फूट निकलने का अवसर मिलता है, वहीं दर्द, ज्वर, सूजन, जकड़न आदि की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।

उपचार करने वाले शारीरिक स्तर पर इसका समाधान ढूँढ़ते और ऐसी युक्ति अपनाते हैं, ताकि पीड़ा देने वाले अंग को सामयिक रूप से सुन्न किया जा सके और उससे उत्पन्न दर्द की अनुभूति को टाला जा सके। इसके अतिरिक्त इंजेक्शन समूचे रक्त में रोगविरोधी तत्त्व भरते हैं अथवा अधिक विकृत अंग को शल्यप्रक्रिया द्वारा पृथक् कर दिया जाता है। प्रचलित अनेकों चिकित्साविधियाँ इसी सिद्धाँत के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कारण और निवारण की पुरातन मान्यताओं को ही मिलाजुलाकर निदान और उपचार किया जाता है, फिर भी रोग नियंत्रण में नहीं आते। चिकित्सक और चिकित्सालय बढ़े जाते हैं; पर उसी अनुपात में रोगों में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। वे घटना का नाम नहीं लेते। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि नए रोग नई आकृति-प्रकृति धारण कर इस रूप में सामने आते हैं कि चिकित्सक समझ तक नहीं पाते कि रोग क्या है? उसकी उत्पत्ति कैसे, किस अनजान कारण से हुई और उसका उपचार क्या होना चाहिए?

इन असमंजसों के बीच एक तर्क, तथ्य और प्रमाण पर आधारित निष्कर्ष यह निकला है कि चेतनास्तर की तरह आरोग्य और रुग्णता के केंद्र मस्तिष्क है और उसी केंद्र में कहीं गड़बड़ी पड़ने पर बीमारियों का सिलसिला चल पड़ता है। उड़ते बादलों में जैसे कई आकृतियाँ बनती-बिगड़ती रहती हैं, उसी प्रकार रोग भी अनेक नाम-रूपों में प्रकट होते रहते हैं।

जीवन और मरण का प्रत्यक्ष केंद्र कभी हृदय माना जाता था। अब उसमें इतना और जुड़ गया है कि हृदय की धड़कन बहुत कुछ मनःसंस्थान पर निर्भर है और जीवन-मरण का अंतिम निर्णायक भी वही है। धड़कन बंद हो जाने पर भी यदि मस्तिष्क में क्रियाशीलता विद्यमान है, तो उसे मृतक नहीं, जीवित ही माना जाएगा।

मस्तिष्कीय रोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-एक संरचना क्षेत्र के, दूसरे संवेदना क्षेत्र के। संरचना क्षेत्र में चोट, अनिद्रा, सिरदर्द, ट्यूमर, हैमरेज, संक्रमण आदि की गणना की जा सकती है। इनका उपचार औषधियों से अथवा शल्यक्रिया से होता है। जन्मजात अविकसित मस्तिष्क के पीछे प्रायः आनुवांशिकी रहती है। गर्भकाल में भ्रूण पर औषधियों के, चोट के, एक्सरे के आघात लगने से भी बच्चा मानसिक दृष्टि से अपंग हो सकता है। इन कठिनाइयों का समाधान क्या हो? इस संदर्भ में शरीर की मांसपेशियों एवं कोशिकाओं को उलटा-पुलटा जा रहा है और निराकरण का उपाय सोचा जा रहा है।

मस्तिष्क का दूसरा कोमल पक्ष संवेदनात्मक है। बुद्धिकौशल को तो प्रशिक्षण, वातावरण एवं अनुभव के साथ जोड़ा जाता है और इसके संवर्द्धन का उपाय समाजव्यवस्था में हेरफेर करने के रूप में सोचा जा रहा है; किंतु संवेदनाएँ विशुद्ध वैयक्तिक हैं। वे चिंतन के अभ्यास से संचित संस्कारों पर निर्भर हैं। कई व्यक्ति बड़ी घटना को भी छोटी मानते हैं और किन्हीं की कल्पना में छोटी घटना भी पहाड़ तुल्य भारी होती है। इस हलकेपन और भारीपन का अचेतन-सुपरचेतन क्षेत्र में आघात लगता है। कभी-कभी तो वह सहज होता है और समय के साथ-साथ अनुभूतियाँ धीमी पड़ती जाती हैं; किंतु कभी-कभी वे इतनी असह्य होती हैं कि चिंतनतंत्र को ही बुरी तरह झकझोर देती हैं, साथ ही ऐसी स्थिति बना देती हैं कि मानस सही तरीके से सोचने-समझने में समर्थ न रहे और प्रवाह जिस ओर भी चल पड़े, फिर रोके न रुके।

समग्र विक्षिप्तता की यही स्थिति है। इसमें रोगी सामाजिक शिष्टाचार, जीवननिर्वाह एवं अनिवार्य दायित्वों तक की उपेक्षा करने लगता है। यह उपेक्षाएँ अनचाहे-अनजाने ही बन पड़ती हैं।

पागलखानों में बंद रोगी इसी प्रकार के होते हैं। वे अपनी जीवनरक्षा और साथियों के प्रति जिम्मेदारी को भी वहन नहीं कर पाते। ऐसी दशा में उन्हें सुरक्षा की दृष्टि से भी और चिकित्सा की आवश्यकता की दृष्टि से भी पागलखानों में भरती किया जाता है।

विचारणीय है कि संरचनाघटक यथावत् होते हुए भी ऐसी स्थिति किस प्रकार उत्पन्न हुई? खोज यह बताती है कि उन्हें कोई सामाजिक विग्रह से उत्पन्न मानसिक आघात लगा है। किसी प्रियजन की मृत्यु, अपमान, विश्वासघात, भयावह दुर्घटना के दृश्य आदि कारणों से ऐसा हो जाता है कि संवेदना क्षेत्र में असाधारण उथल-पुथल हो जाती है, फलतः संरचना क्षेत्र भी उससे प्रभावित होता है और शारीरिक क्रिया–कलापों तथा मस्तिष्क के ऊर्जाकेंद्रों की स्थिति विपन्न हो जाती है।

इस विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि अतिशय बढ़ी-चढ़ी भावुकता भी एक विपत्ति की तरह है। घटनाक्रमों को देखा-समझा जाए; पर उनका इतना गहरा प्रभाव न पड़ने दिया जाए कि बहुमूल्य मानसतंत्र की कार्यक्षमता से ही हाथ धो बैठना पड़े।

असाधारण और अप्रत्याशित घटनाएँ प्रायः मस्तिष्क पर असहाय दबाव डालती हैं और उसका प्रभाव हलकी-भारी विक्षिप्तता जैसा बन जाता है। यह खतरा अतिभावुकों को अधिक रहता है। विचारशील लोग संसार में परिवर्तनों की स्वाभाविकता को समझते हैं और उन सभी को सामान्य दृष्टि से देखते हैं। महर्षि अरविंद की शब्दावली में कहें, तो ऐसे लोगों की तुलना में ऊँचा होता है और वे मन के उन आयामों में अवस्थान करते हैं, जिन्हें उन्होंने ‘साइकिक’ एवं ‘स्प्रिचुअल’ मन कहा है।

वे अपनी पुस्तक ‘हाईरार्किक ऑफ माइंड्स’ में लिखते हैं कि मन के पाँच स्तरों में से सर्वसाधारण उसके आरंभिक तीन स्तरों पर ही स्थित होते और उन्हीं से कार्य करते हैं। फिजिकल, वाइटल और मेंटल-यह मन के वे तल हैं, जिनके द्वारा निम्नस्तरीय इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ, आस्थाएँ, मान्यताएँ एवं भावनाएँ क्रियाशील होती हैं और व्यक्ति को अशाँत-अस्वाभाविक जैसी स्थिति में बनाए रखती हैं। इन स्तरों में निवास करने वाले लोगों में मानसिक दृढ़ता का सर्वथा अभाव होता है एवं परिस्थितियों से वे प्रभावित हो जाते हैं। परिस्थितियाँ यदि अनुकूल और उत्तम हुई, तो वे उसमें सुखद अनुभव करते हैं किंतु उसके प्रतिकूल होते ही उनमें मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते और निषेधात्मक चिंतन करने लगते हैं। जीवन की सारी सरसता इस एक ही कठिनाई से समाप्त होती प्रतीत होने लगती है और कई बार इस स्थिति में ऐसे आत्मघाती कदम उठा लिए जाते हैं, जो हर दृष्टि से हेय और हीन कहलाने योग्य हैं। परिस्थितियों की यह दासता दुर्बल मनःस्थिति के कारण पैदा होती है एवं कमजोर मनःस्थिति मन के निम्नतलों में अवस्थान की परिणति है।

बालक जब छोटा होता है, तो इंद्रियों के माध्यम से वह जो कुछ भी ग्रहण-अवधारण करता है, उसमें उसका भौतिक मन क्रियाशील होता है। इस सजगता में विकास-विस्तार का नाम ही ‘वाइटल’ मन है। इस दशा में भावनात्मक प्रतिक्रिया आरंभ हो जाती है। करीब नौ-दस वर्ष की अवस्था तक में वाइटल या भावनात्मक मन का निर्माण इतना सुदृढ़ और परिपक्व हो जाता है कि बालमन में तरह-तरह के प्रश्न और जिज्ञासाएँ उठने लगती हैं। इसे मानसिक मन की सक्रियता का शैशवकाल कह सकते हैं। इसी का जब और अधिक विकास होता है, तो परिपक्व मनुष्य की उस बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है, जिसे भौतिक उन्नति की जननी कहनी चाहिए। पदार्थ संबंधी समग्र प्रगति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। इस स्तर तक मनुष्य हर प्रकार के घात-प्रतिघातों, परिस्थितियों, घटनाओं से प्रभावित होता रहता है। यह बात और है कि मानसिक होता रहता है। यह बात और है कि मानसिक दृढ़ता और निर्बलता के अनुसार उसका असर किसी में कम, किसी में अधिक दिखलाई पड़ता है, पर अछूता कोई नहीं रहता।

साइकिक और आध्यात्मिक मन इसकी उच्चतर अवस्थाएँ हैं। इन आयामों पर आरुढ़ व्यक्ति का चिंतन और दृष्टिकोण दार्शनिकों की भाँति तटस्थ और निर्लिप्त होता है। वे अपने आचरण और व्यवहार से दूसरों को तो प्रभावित करते हैं, पर साँसारिक घटनाओं से वे स्वयं जल में कमलवत् सर्वथा अप्रभावित रहते हैं। यही वास्तविक आध्यात्मिक दृष्टि है। इसका निचोड़ समाज और संसार के दुखों को हलका करना और चरमलक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर होना है।

अध्यात्म तत्वदर्शन का उद्देश्य मानवी मस्तिष्क को ज्ञानी-उदासीन जैसा बना देने का है। स्थितप्रज्ञता इसी को कहते हैं, जिसमें प्रिय-अप्रिय दोनों ही प्रकार की प्रभावपूर्ण घटनाओं को हलका करके आँका जाए और समझा जाए कि इस परिवर्तन भरे संसार में संयोग-वियोग के, हानि-लाभ के, मानापमान के द्वंद्व तूफान की तरह उठते और झाग की तरह बैठते हैं। जब सुख की स्थिति चली गई, तो दुःख की पीड़ा भी सदा क्यों बनी रहेगी? समय बदलेगा और मन को किसी अन्य दिशा में मोड़ देगा। इस स्तर का तत्वज्ञान यदि हृदयंगम किया जाता रहे, तो असहाय घटनाएँ भी सह्य स्तर पर वहन कर ली जाती है और मानसिक उद्वेग उत्पन्न होने पर भी शाँति एवं स्थिरता बनी रहती है। यही सही जीवन जीने की कला है। समरस रहना या आध्यात्मिक बनना इसी का दूसरा नाम है। दैनंदिन जीवन में यही दृष्टि अपनाई जानी चाहिए।


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