लालबहादुर शास्त्री जी (Kahani)

November 1999

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देवमंदिर का पुजारी भगवान की पूजा तो पूरे विधि-विधान से करता, किंतु सुबह-शाम पूजा करने के बाद बचे समय में वह स्वार्थ के वशीभूत हो ऐसे कर्म करता, जिससे भगवान के बनाए अन्य प्राणी दुःख पाते।

उसे अंतःकरण से एक दिन भगवान् बोले-अरे मूर्ख! सेवा कर, मेरी पूजा करने के बाद सेवा की इच्छा न हो तो पूजा व्यर्थ है। पुजारी ने कहा-भगवान् मेरा मन तो आपकी पूजा में लगता है। लोगों की सेवा में नहीं। भीतर से आवाज आई-तू पगला है, क्या मैं पत्थर की मूर्ति में ही हूँ, इन जीते-जागते प्राणियों में तुझे मेरा रूप नहीं दिखता? पुजारी को सच्चा ज्ञान हुआ कि सेवा ही पूजा की कसौटी है। यदि उपासना करने के पश्चात् भी लोकसेवा की भूख न जागे तो समझना चाहिए कि कहीं-न-कहीं भूल है। अपने आपको इस कसौटी पर कसने पर वह खरा न उतरा। उसने आगे से लोकसेवा को नित्यकर्म में सम्मिलित कर लिया।

सन् 1949 की बात है। उन दिनों स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री उत्तरप्रदेश सरकार के गृहमंत्री थे। एक दिन लोकनिर्माण विभाग के कुछ कर्मचारी उनके निवासस्थान पर कूलर लगाने आए। बच्चों को बड़ी प्रसन्नता हुई कि अबकी बार गरमी अच्छी तरह गुजर जाएगी।

जब शाम को शास्त्री जी घर आए, तो उन्हें पता चला कि कूलर लगाया जा रहा है, उन्होंने तुरंत विभागीय कर्मचारियों को टेलीफोन पर मना कर दिया। पत्नी ने कहा-”जो सुविधा बिना माँगे मिल रही है, उसकी मना करने की क्या आवश्यकता है?

“यह आवश्यक नहीं कि मैं मंत्री पद पर सदा बना रहूँगा, फिर इससे आदत बिगड़ जाएगी। कल लड़कियों की शादी करनी है, मान लो विवाहोपराँत इस तरह की सुविधाएँ न मिलीं, तो उन्हें कष्ट ही होगा। जाने किस स्थिति में उन्हें रहना पड़े।” शास्त्री जी ने कहा।

शास्त्री जी ने सारी शिक्षा अपनी माँ से ग्रहण की थी एवं वही पोषण अपने परिवार में भी दिया, ताकि बच्चे सद्गुणी बन सकें, पिता के पद का लाभ उठाकर सुविधाओं के अभ्यस्त न हो जाएँ, हर परिस्थिति में अपने को ढाल सकें। यही कारण था कि वे स्वयं राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर पहुँच सकने में सफल हुए एवं अपने बच्चों को भी संस्कार दे सके।


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