युगगीता-7 - जो परमात्मसत्ता में अधिष्ठित हो, वही है स्थितप्रज्ञ

November 1999

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श्रीमद्भगवद्गीता के साँख्ययोग (द्वितीय अध्याय) की युगानुकूल विवेचना

विगत अंक में आपने इस धारावाहिक लेखमाला के अंतर्गत युगधर्म की व्याख्या के साथ-साथ गीता के साँख्ययोग प्रकरण की कर्मयोग प्रधान अति महत्वपूर्ण विवेचना से भरे श्लोकों के साथ प्रतिपादनों को पढ़ा। “हम न हो, न ही हम कर्मों के फल का हेतु बने।” यह गीता सुप्रसिद्ध श्लोक “कर्मण्येवाधिकारस्ते- - ते सग्डोऽस्त्वकर्मणि (2/47) के माध्यम से विगत अंक में समझाया गया था। इसके बाद के प्रायः आठ श्लोकों में गीता मर्म छिपा पड़ा है। योगस्थ होकर कैसे जिया जा सकता है, इसे जिन श्लोकों को आत्मसात् कर समझा जा सकता है, वे दूसरे अध्याय के 47 वें से 53 वें श्लोक तक की व्याख्या के माध्यम से समझाए गए। समत्वं योग उच्यते के माध्यम से वासुदेव श्रीकृष्ण अर्जुन को सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर कर्त्तव्यकर्म करने की प्रेरणा देते हैं। योग ही कर्मों में कुशलता का नाम हैं एवं कर्मबंधन से छूटकर मोक्षप्राप्ति का मार्ग हैं, यह श्री भगवान् की व्याख्या के माध्यम से अर्जुन को निमित्त बनाकर महाकाल की सत्ता हमें बताना चाह रही है। क्रमशः अर्जुन का शोक व असामंजस्य दूर कर उसके शिष्यत्व को जगाकर देहातीत आत्मा के भान-देह से स्वधर्माचरण को समझाते हुए भगवान उसे इस स्थिति में ले आए हैं कि वह यह जान सके कि स्थितप्रज्ञ कैसे बना जाता हैं। कैसे ब्रह्म में दृढ़प्रतिष्ठ योगी वह बन सकता है। यहीं साँख्ययोग का तीसरा चरण आरंभ होता है-स्थितप्रज्ञ के लक्षण, वह कैसा होता है- इसकी व्याख्या योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा; द्वितीय अध्याय के श्लोक क्रमाँक 50 में अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की है एवं श्री भगवान् ने क्रमाँक 55 से 72 तक उसका उत्तर दिया है। इस अंक में उसी व्याख्या को पढ़ें-

अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह कैसे बोलता है कैसे बैठता है, कैसे चलता है? (54/2)

यहाँ अर्जुन स्पष्ट पूछ रहा है कि “समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त, स्थिर बुद्धि वाला पुरुष”-कैसा होता है? वह समझ चुका हैं कि व्यवसायी बुद्धि से व्यक्ति को समाधि नहीं प्राप्त होती। क्योंकि ऐसी बुद्धि व्यक्ति की भोगवाद में आसक्ति बढ़ाती है एवं उसी में उसको सारा सुख जान पड़ता हैं इसी बुद्धिवाद के कुचक्र से मानवजाति को उबारने के लिए परमपूज्य गुरुदेव ने युगानुकूल विचार दिए, ताकि सही प्रतिभाएँ समाज के नेतृत्व हेतु आगे आ सकें। आज चमक-दमक तो बहुत है, शिक्षा व विज्ञान की शाखा-प्रशाखाएँ हैं, परंतु है यह ‘प्रोफेशनल इंटेलीजेंस।’ यह बुद्धि जब तक प्रज्ञा का रूप नहीं लेती तब तक व्यक्ति समाधि को प्राप्त नहीं हो सकता। स्थितप्रज्ञता स्वार्थबुद्धि से परे जाकर शुरू होती है। आज के समाज की सारी समस्याएँ परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार दार्शनिक भ्रष्टता के कारण जन्मी है। दर्शन को भी वैभव से जोड़ दिया कार्लमार्क्स ने। परमपूज्य गुरुदेव ने मानव मात्र को एक ही संदेश दिया कि हम बुद्धिवाद के कुचक्र से उबरकर निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्ति बढ़ाएँ। त्याग का मूल्य समझें- व्यवसायी बुद्धि वालों को बलिदान व त्याग से मिलने वाले सुख व श्रेय की अनुभूति कराएँ। उपनिषद् अक्सर उद्धत करते थे-”त्यागेनैके अमृतत्व मानशुः।” त्याग से ही अमृततत्व की प्राप्ति होती है। त्याग का मर्म, देने का आनंद बुद्धिवादी कैसे समझ सकता है। इसी बात को भगवान् पहले 52 वें श्लोक में कह चुके हैं एवं अब 55 वें श्लोक में कह रहे हैं। पहले वे कह चुके हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल से भलीभाँति पार कर जाएगी, उसी समय तुझमें भी भोगों से वैराग्य प्राप्त हो जाएगा। अब वे कह रहे हैं कि हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भली-भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। (55-2)।

बारबार श्रीकृष्ण भगवान् एक ही बात कह रहे हैं-कामनाओं को त्यागकर, मोह से उबरकर ही गुरु-शिष्य में शाश्वत संबंध स्थापित हो सकते हैं एवं महामानव बनने का द्वार खुल सकता है। ‘भवरोग वैद्यक’ है गुरु, यदि हम चाहते हैं कि हमारा भटकाव रुके, हमारी बुद्धि, परमात्मा में प्रतिष्ठित हो, तो हमारे अंदर पवित्रता का परिमाण बढ़ता चला जाएगा। ज्यों-ज्यों हम त्याग के मार्ग पर बढ़ेंगे, वैसे-वैसे हमारी बुद्धि प्रज्ञा-परमात्मा में स्थितप्रज्ञा अर्थात् स्थितप्रज्ञ हम बनते चले जाएँगे-यह भगवान् यहाँ समझाने का प्रयास कर रहे हैं। योगदर्शन में कहा गया हैं-”तस्य प्रज्ञा ऋतम्भरा।” अर्थात् ऋत परमसत्य को प्राप्त परमात्मा में प्रतिष्ठित वह बुद्धि ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहलाती हैं।

अर्जुन यह जान रहा है कि गुरु के रूप में भगवान् उसे भटकाव से उबर कर आने की एवं उसके लिए अलौकिक संभावनाओं का द्वार खोलने की प्रक्रिया आरंभ कर चुके हैं। इसीलिए वह पूछता है कि स्थितप्रज्ञ आखिर होता कैसा है, उसके लक्षण क्या होते हैं? कभी देखा नहीं, देखा तो समझा नहीं। उसके जीवनक्रम के बारे में उसे उत्सुकता है। इसीलिए उसने प्रश्न पूछा जिसका उत्तर भगवान् दे रहे हैं। हमें उत्सुकता होती हैं, प्रधानमंत्री का जीवनक्रम कैसा है, उनका रूटीन क्या होता है। अभिनेताओं के विषय में युवा मनों में जानने की जिज्ञासा होती हैं। यह स्वाभाविक भी है, पर परमेश्वर का पार्षद कैसा होता है। जिसने अपना सब कुछ त्यागकर परमसुख की प्राप्ति कर ली हो व जिसकी विचारणा-भावना परमात्मा में प्रतिष्ठित हो, ऐसा व्यक्ति कैसा होता है यह जानने की जिज्ञासा हमें भी होनी चाहिए। यदि हम स्थितप्रज्ञ को बहुत नजदीक से जानना चाहते हैं, तो हमें परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के हर पहलू का, हर पक्ष का मार्मिक ढंग से अध्ययन करना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने जीवन के हर पक्ष पर न केवल लिखा, उसे स्वयं जिया भी है। वे जानते थे कि व्यक्ति के विचार ही उसे उठाते व गिराते हैं। यही बात उनने धुरी बनाकर प्रस्तुत की व विचारनिर्माण की प्रक्रिया का अभ्यास करने हेतु सभी साधकों-शिष्यों को प्रेरणा दी। यदि बुद्धि सही होगी-विचार सही होंगे-उनके निर्माण की प्रक्रिया हमें आती होगी तो हमें यह भी समझ में आ जाएगा कि कैसे योग को प्राप्त हुआ जा सकता है-परमात्मा से नित्य का संयोग कैसे हो सकता है। ध्यान-धारणा से लेकर सभी योगपरक उपचार एवं तपसाधनाएँ व्यक्ति के विचारों को परिष्कृत करने के निमित्त ही तो हैं, यह बात उनने हमें घूंटी की तरह पिलाई हैं। अखण्ड ज्योति 1969 में परमपूज्य गुरुदेव ने पृष्ठ 40 पर लिखा है-मुद्दतों से हम यह भी भूल गए हैं कि विचार भी कोई तत्व है और उसका भी मानवजीवन पर कोई प्रभाव पड़ता है। इस विस्मृति का एक ही कारण है कि हम जीवननिर्माण और मनुष्य के सामने उपस्थित ज्वलंत समस्याओं के बारे में न कभी कुछ सोचते हैं, न कहते हैं, न पढ़ते-सुनते हैं। ऐसी चर्चा हमें वैसी ही निरर्थक लगती है जैसे भीलनी को रत्नराशि की कीमत एवं उपलब्धि की चर्चा। जो जिस विषय में अपरिचित है, वह भला उसमें रस ले भी कैसे सकता है। मानवजीवन की सर्वोपरि शक्ति और संपत्ति उत्कृष्ट विचारणा के संबंध में जब हमें किसी ने कुछ कहा, बताया ही नहीं तो आखिर उसकी जानकारी होती भी कैसे? अस्तु, हम विचारनिर्माण के क्षेत्र में एक प्रकार से सूने-अछूते ही हैं।

यदि हम गुरुदेव की विचारक्राँति अभियान की प्रक्रिया को जानने का प्रयास करें तो वह इसी धुरी पर टिकी है, व्यक्ति मात्र को सोचने-विचारने, सद्बुद्धि का विकास कर जीवन जीने की कला सिखाना। यह विचार यदि पैदा हो सके एवं साधनों-भोगविलास की सामग्री के प्रति दृष्टि सही विकसित हो तो निष्काम कर्म करने की प्रवृत्ति जीवन में आएगी। जब हम इस ओर प्रवृत्त होते हैं तो सबसे पहले मोह से उबरते हैं एवं तब हमें स्थितप्रज्ञ बनने का मार्ग स्पष्ट दिखाई देता है। भगवान् कह रहे हैं कि जो संपूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है, वही व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहा जाता है, साथ ही यह भी कह रहे हैं कि वह आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

यहाँ ‘स्थितप्रज्ञ’ को इस श्लोक के अर्थ के परिप्रेक्ष्य में एवं अर्जुन की जिज्ञासा के संदर्भ में हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। भगवान् इससे पूर्व कह चुके हैं कि इस स्तर के महापुरुषों को तत्व से जानने का प्रयास करना चाहिए। अर्जुन पूछ रहा है कि वह होता कैसा है, उसके लक्षण क्या होते हैं। वह बोलता कैसे है, बैठता कैसे है व चलता कैसे हैं? सामान्यतः ऐसा लगता है कि कैसा मूढ़ की तरह प्रश्न यह पूछा जा रहा है? क्या बहिरंग द्वारा समझा जाए कि स्थितप्रज्ञ कैसा होता हैं? श्रीकृष्ण पहले ही कह चुके हैं “यो माँ वेत्ति तत्वतः” जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह मेरा मर्म जान लेता है। अतः वह सुन-जानकर भी अर्जुन की जिज्ञासा समझने योग्य है। दैनंदिन जीवन में स्थितप्रज्ञ पुरुष होता कैसा है, उसे पहचानें कैसे? जो स्थूल इंद्रियों से-चर्मचक्षुओं से समझा-देखा जा सकता है वह यही कि बोलचाल कैसी है-चलते हैं तो गरिमापूर्ण ढंग से या हलके-फुलके व्यक्ति की तरह। बहिरंग की हलचल अंदर की मनः स्थिति को दर्शाती है। अतः अर्जुन का इस तरह पूछना स्वाभाविक है, किसी भी कार्यकर्त्ता-लोकनायक का स्तर इतने बहिरंग के स्वरूप से ही जाना-समझा जा सकता है। वाणी तो बाद में कार्य करती है। पूज्यवर ने भी लोकसेवियों की आचारसंहिता में पहले बहिरंग के इन अनुशासनों को साधने की बात कही है।

उत्तर बड़ा विलक्षण है भगवान् श्रीकृष्ण का। वे कहते है ‘स्थितप्रज्ञता’ जब आ जाती है तब मनुष्य अपनी समस्त कामनाओं को पूरी तरह त्याग देता है। आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। कामनाओं से उबरकर आत्मा के सुख में विचरण करने वाला व्यक्ति स्थितप्रज्ञ है और वह भी तब तक जब तक कि वह यही मनः स्थिति अपनी बनाए रखता है। वासुदेव श्रीकृष्ण ने प्रारंभ भी यही से किया है व अंत भी 79 वें श्लोक में यही करते हैं-

विहाय कामान्यः सर्वामाँश्ररति निःस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शाँतिमधिगच्छति॥

अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता, वही शाँति को प्राप्त होता है एवं स्थितप्रज्ञ कहलाता है। अर्थात् मानसिक शाँति समस्वरता, जीवनयोग की धुरी एक ही है- विहाय कामान्यः-संपूर्ण कामनाओं का (इस लोक व परलोक में ) परिपूर्ण त्याग। यही सच्चे शिष्य की, संतुलित व्यक्तित्व की निशानी है कि उसकी कोई कामनाएँ नहीं रहतीं इसीलिए वह शाँति को प्राप्त दृष्टिगोचर होता है। वह ममतारहित भी होता है-इस उत्तरार्द्ध वाले श्लोक के अनुसार ममता अर्थात् व्यक्ति विशेष से मोह, अहंरहित व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ बन सकता है। कामना और भक्ति, कामना और प्रेम एक साथ नहीं रह सकते। कामना के रहते बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती। कामना बाँधती है तो भक्ति मुक्त करती है। कामनाएँ घसीटती हैं तो भक्ति विसर्जन की ओर ले जाती है। जब कामनाएँ है, बुद्धि अस्थिर है तो वह परमात्मचेतना में स्थित पुरुष बन कैसे सकता है। वही व्यक्ति भक्तिप्रज्ञ हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्थिर हो। जब यह हो जाता है, संसार में मन नहीं रहता, सृष्टि के केंद्र में व्यक्ति स्थित हो जाता है, लगता है सारी हलचलें मेरी हैं। मैं बुद्धि से परे हूँ। फिर दुनिया भर के प्रपंच मुझको सता नहीं सकते। नाम क्यों नहीं मिला, यश क्यों नहीं गाया गया, मेरी कीर्ति क्यों नहीं हुई, मेरी निंदा क्यों हुई, यह सब चीजें परेशान नहीं करतीं। छोटा बच्चा खिलौना टूटने पर रोने लगता है, इसी प्रकार एक अस्थिर व्यक्ति कामनाओं के पूरा न होने पर रोता रहता है, व्यथित होता है तथा तनावग्रस्त हो जाता है, जबकि एक बड़ा बच्चा जिसके लिए खिलौने कोई महत्व नहीं रखते, ऐसा कोई प्रसंग आने पर परेशान नहीं होता। एक परिपक्व व्यक्ति की तरह स्थितप्रज्ञ की स्थिति होती है। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस का भतीजा मर गया। समाचार आया तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि ऐसा लग रहा है जैसे तकिए में से किसी ने खोल निकाल लिया हो। बिल्कुल सामान्य-सी बात में ठाकुर जैसे स्थितप्रज्ञ ने इस हृदयविदारक घटना को उड़ा दिया। ऐसी स्थिति बनती है जब हम कामनाओं से मुक्त होकर आत्मा में स्थित हो जाते हैं।

अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं-

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

अर्थात् दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। दुखों के कारण तो कई आते हैं, पर उन्हें स्थितप्रज्ञ सहन कर लेता हैं, उद्विग्न नहीं होती। उसे सुख की कामना भी नहीं होती। सुख पाने की आकाँक्षा में वह उद्विग्न भी नहीं होता। वह वीतराग हो जाता हैं स्वयं को राग, भय, क्रोध से परे चलकर अपनी मनः स्थिति उच्चस्तर की बना लेता है। हम जैसे सामान्य व्यक्ति सुखों की इच्छा बराबर बनाए रखते हैं, दुख में परेशान हो जाते हैं। यही हममें व स्थितप्रज्ञ में सबसे बड़ा अंतर है।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि दुख को तप बना लो एवं सुख को योग बना लो। दुर्भाग्यवश दुख को दिया दंड मानकर परेशान होते रहते हैं एवं सुख को भोग में बदल डालते हैं। भोग की प्रक्रिया अंततः दुख ही देती है। दुख में सभी भगवान् को याद करते हैं, सुख में कोई नहीं करता। (दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय) भगवान् संकटमोचन की तरह मात्र दुख में हमें याद आता है। सुख यदि योग बन जाता एवं हर क्षण हम भोगी की नहीं, योगी की दृष्टि रखते तो कभी कष्ट-तनाव हमें विक्षुब्ध नहीं करते। परमपूज्य गुरुदेव ने संजीवनी साधना, जीवन जीने की कला के प्रशिक्षण एवं जीवन देवता की साधना-आराधना, हमारी वसीयत और विरासत जैसी ऐतिहासिक स्तर की रचनाओं के द्वारा यही प्रतिपादित किया कि हम योगस्थ हो कैसे जिएँ। स्थितप्रज्ञ बनने की दिशा में पहली सीढ़ी तो चढ़ें-सुख को भोग एवं दुख को तप बनाकर। उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं, प्रत्येक को जीवन भर इनका सामना करना पड़ता है, पर ये आते हैं हमें योगी बनाने के लिए, तपस्वी बनाने के लिए।

अगले कुछ श्लोक वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा बड़े विलक्षण ढंग से स्थितप्रज्ञ की परिभाषा के रूप में समझाए गए हैं। सत्तावनवें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तप्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थात् जो पुरुष स्नेहरहित होकर उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। इसी प्रकार अगले श्लोक में एक महत्वपूर्ण बात भगवान् के श्रीमुख से निकलती है-

यदा संहरते चायं कूर्मोऽड्डानीव सर्वशः॥ इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यतस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थात् “और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)।”

इन दो श्लोकों के मर्म को हम समझने का प्रयास करें। जिसकी प्रज्ञा आत्मा में प्रतिष्ठित हो, ऐसा स्थितप्रज्ञ व्यक्ति व्यक्तिविशेष के स्नेह में न बँधकर ममता-दया से परे होकर चलता है। जहाँ भी परमात्मचेतना का एक अंश भी विद्यमान हो, वहीं उसे स्नेह और ममता पैदा होती है। यह मानव के जीवनकाल की सबसे बड़ी परीक्षा है। आदमी स्वयं को ममता और दया से परे यदि मान ले और परमात्मचेतना से ही मात्र प्रेम रखता हुआ उनके अनुकूल कार्य करे, यह आध्यात्मिक पुरुषार्थ की सर्वोपरि उपलब्धि है। व्यक्तिविशेष से स्नेह हमें बाँधता है। किसी भी शुभ या अशुभ वस्तु की प्राप्ति पर न मन को अत्यधिक प्रसन्नता हो-हर्षातिरेक हो, न ही द्वेषभाव-क्लेशभाव मन में आए-यह कितने बड़े सौभाग्य की प्राप्ति है, इसे वही समझ सकता हैं जो इस मनः स्थिति पर पहुँच सके। वस्तुतः ईर्ष्या (द्वेष) सबसे बड़ा कीड़ा है, जो व्यक्तित्वरूपी वस्त्र को खा-खाकर काटकर समाप्त कर देता है। ईर्ष्या व्यक्तित्व के खोखला बनाने वाला एक सबसे बड़ा दुर्गुण है एवं यह किसी अच्छे खासे प्रगति की दिशा में गतिशील व्यक्ति की भी दुर्गति कर उसे पतन की पराकाष्ठा पर पहुँचा देता है।

यदि आपको गायत्रीतीर्थ में, शाँतिकुँज में क्षेत्र के अगणित गायत्री परिजनों में कहीं भी परमात्मचेतना का थोड़ा-सा भी अंश दीखता हो तो उस चेतना से प्रेम करिए, न कि व्यक्ति से। व्यक्तिविशेष से प्रीति न रख उसकी वृत्ति से लगाव हमें आध्यात्मिक ऊँचाइयों के शिखर पर पहुँचा सकता है। परमात्मचेतना परमात्मा के सभी गुणों को लेकर लौकिक बंधनों से परे चलती है एवं व्यक्ति के जीवन में एक क्राँति ला देती है।

अगला श्लोक जिसे ऊपर उद्धत किया गया; बड़ा महत्वपूर्ण है। अट्ठावनवें श्लोक में वर्णन है-जैसे कछुआ अपने सभी अंगों को समेट लेता है एवं मात्र उसका ऊपरी कड़ा भाग उन नाजुक अंगों को अपने में समेटे दिखाई पड़ता है, मनुष्य को भी कुछ इसी तरह अपनी इंद्रियों को सिकोड़ने का अर्थात् अपने को इंद्रियों का दास न बनाकर उन पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना चाहिए। जो इस अभ्यास में, जिसमें विषयों के भोगों में इंद्रियों के लिप्त होने की प्रक्रिया पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है, प्रवीण हो जाता है, वह व्यक्ति प्रतिष्ठित प्रज्ञा वाला ऋतंभरा-प्रज्ञा में स्थित, स्थितप्रज्ञ महापुरुष बन जाता हैं।

भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस के परमशिष्य अखंडानंद जी महाराज गायत्री जप करते थे तो ठाकुर से अभ्यास की प्रक्रिया पूछते थे। वे बताते थे कि जैसे संध्या गायत्री में विलीन होती है, गायत्री ओंकार में विलीन होती है एवं ओंकार आत्मतत्व में विलीन होता है, ऐसे हमें गायत्री जप करना चाहिए। एक-एक करके विलीन कर अपने आपको सिकोड़ने की प्रक्रिया ठाकुर समझाते थे, जैसे कछुआ अपने अंगों को समेटता हैं-यही साधना बुद्धि को सूक्ष्मातिसूक्ष्म बना उसे सविता में प्रतिष्ठित कर देती है, साधक को स्थितप्रज्ञ बना देती है। रामकृष्ण मठ की डायरी से निकला यह उद्धरण है एवं हमें साधना के माध्यम से स्थितप्रज्ञ बनने की कला समझा रहा है। जैसे भगवान् ने गीता में उदाहरण देकर लिखा है, उसे यदि हम ढंग से समझ सकें तो ऐसे इसे व्यावहारिक ढंग से प्रतिपादित किया जा सकता है। स्थितप्रज्ञ को इंद्रियों को मन में, मन को चित्त में, चित्त को अहं में, अहं को आत्मा में (शुद्ध अहं में ) एवं आत्मतत्व को परमात्मतत्त्व में सिकोड़ने की प्रक्रिया में निष्णात् होना चाहिए। यदि समेटने की यह प्रक्रिया जीवन का अभ्यास बन जाए तो हमारे अस्तित्व के कण-कण से परमात्मचेतना झरने लगेगी। कछुए का उदाहरण देकर गीताकार ने साधना−विज्ञान का मर्म हमारे समक्ष रख दिया है।

फिर वे कहते हैं कि वह प्रक्रिया जबर्दस्ती नहीं संपन्न की जा सकती। जब भी जबर्दस्ती की जाती है एवं मन को पहले तैयार नहीं किया जाता-शरीर के साथ कड़ाई तो हो जाती है पर वाँछित नहीं सध पाता। हो सकता हैं हम बड़े त्यागी हों, तपस्वी हों, अस्वादव्रत साधते हों-नमक, शक्कर में से कोई एक या दोनों को ही नहीं खाते हों, पर मन से स्वाद न निकाला हो तो हम स्वाद से परे नहीं जा सकते। स्वादेंद्रियों को सिकोड़ना अनिवार्य है-मन से। इंद्रियों से स्वाद निकाल लिया तो क्या फायदा। मन से स्वाद निकालना जरूरी है। नमक नहीं खाते तो बहुत अच्छा है, हम कई बीमारियों से बचे रहेंगे, ब्लडप्रेशर ऊँचा नहीं होगा, गुर्दे हमारे ठीक रहेंगे-शरीर में सूजन नहीं आएगी। शक्कर नहीं खाते है, तो भी कई बीमारियों से बच पाएँगे पर बैठे है मिठाई के सामने, मन-ही-मन स्वाद ले रहे है व कहें जा रहे हैं कि क्या करें, कंट्रोल कर रखा है, नहीं तो अवश्य आनंद लेते। तो फिर यह तप नहीं है, न योग है। हमारा नियंत्रण इंद्रियों पर हो, इसके लिए हमें मन पर जाना होगा-मन से चित्त पर, जहाँ आदतों का, चिरसंचित संस्कारों का जखीरा है, चित्त से अहं पर, फिर शुद्ध अहं में स्वयं को प्रतिष्ठित करना होगा, यही आशय है इंद्रियों के विषयों से इंद्रिय को हटाकर प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होने से। बाहर के इंद्रिय रस से मन को हटाकर हम रसौ वै सः वाले परमात्मा के रस से जोड़ दें। परमात्मरस ही रस का पर्याय है। बड़ा ही विलक्षण आनंद से भरी अनुभूति का क्षेत्र है यह। इस अनुभूति के बाद सारी इंद्रियों के रसों से विरक्ति हो जाती है। तब न मन कामुक होता है, न आँखें गलत चीज देखने को मचलती हैं, न भाँति-भाँति की तलबें उठती हैं, जो हमारी इंद्रियों को खोखला बनाने का मार्ग बनाती हैं। मात्र इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुषों के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते है परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति से वे निवृत्त नहीं होते। स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति से भी निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि वह परमात्मसत्ता में अधिष्ठित हो जाता हे। स्थितप्रज्ञ की इस व्याख्या को अगले अंक में और विस्तार से पढ़ें।

क्रमशः


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