पाँच प्यारे (Kahani)

November 1999

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गुरु गोविंदसिंह ने एक नरमेध यज्ञ किया। उक्त अवसर पर उन्होंने घोषणा की- भाइयो! देश की स्वाधीनता पाने और अन्याय से मुक्ति के लिए चंडी बलिदान चाहती है, तुममें से जो अपना सिर दे सकता हो, वह आगे आए। गुरु गोविंदसिंह की माँग का सामना करने का किसी में साहस नहीं हो रहा था, तभी दयाराम नामक एक युवक आगे बढ़ा। गुरु उसे एक तरफ ले गए और तलवार चला दी, रक्त की धार बह निकली, लोग भयभीत हो उठे। तभी गुरु गोविंदसिंह फिर सामने आए और फिर पुकार लगाई। अब कौन सिर कटाने आता है। एक-एक कर क्रमशः धर्मदास, मोहकम चंद, हिम्मतराय तथा साहबचंद आए और उनके शीश भी काट लिए गए। बस अब मैदान साफ था। कोई आगे बढ़ने को तैयार न हुआ।

गुरु गोविंदसिंह अब उन पाँचों को बाहर निकाल लाए। विस्मित लोगों को बताया, यह तो निष्ठा और सामर्थ्य की परीक्षा थी, वस्तुतः सिर तो बकरे के काटे गए। तभी भीड़ में से ‘हमारा बलिदान लो-हमारा बलिदान लो’ की आवाज आने लगी। गुरु ने हँसकर कहा- यह पाँच ही तुम पाँच हजार के बराबर हैं, जिनमें निष्ठा और संघर्ष की शक्ति न हो, उन हजारों से निष्ठावान् पाँच अच्छे? इतिहास जानता है इन्हीं पाँच प्यारों ने सिख संगठन को मजबूत बनाया।

जो अवतार प्रकटीकरण के समय सोए नहीं रहते, परिस्थिति और प्रयोजन को पहचानकर इनके काम में लग जाते हैं, वे ही श्रेय-सौभाग्य के अधिकारी होते हैं, अग्रगामी कहलाते हैं।


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