बीसवीं सदी में राजनीति का अनुभव सार

November 1999

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बीसवीं सदी का अनुभव है कि राजनीति मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है। उसके विविध रूपों में जितने प्रयोग पिछले सौ साल में हुए, उतने दो हजार साल में नहीं हुए होंगे। सभी प्रयोगों और घटनाओं ने निराश ही किया। राजनीति से मनुष्यजाति का जैसे मोह भंग हो गया है। मोहभंग की इस स्थिति में विचार किया जाना चाहिए कि राजनीति का विकल्प अब नई शताब्दी में क्या होना चाहिए।

बीसवीं शताब्दी बीत चली। इतिहास की दृष्टि से यह सदी भयंकर आपदाओं और विग्रहों को अपने भीतर दबाकर जा रही है। दो हजार साल का इतिहास यदि शताब्दियों के अनुसार बीस खंडों में लिखा जाए तो बीत रही शताब्दी में मनुष्य द्वारा आमंत्रित विनाश के पन्ने ही सबसे ज्यादा होंगे। यह विनाश राजनीति और उससे प्रेरित युद्धों के कारण ही है। राजनीति को सतह मानें तो युद्ध और विग्रह उसके नीचे बहने वाली गरम और कम गरम धाराएँ हैं। इतिहास के इस अध्ययन के साथ विचारशील व्यक्ति सवाल उठा रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी राजनीति ही हावी रहेगी या उसका स्थान कोई और विधा लेगी।

इस सदी ने राजनीति से मोह भंग किया है। जिस उत्साह और तेजी से यह मनुष्य की आशा का केंद्र बनने लगी थी, उससे भी तेज गति से उत्तरार्द्ध आने तक खिसकने लगी। सदी बीतने तक मनुष्य पूरी तरह इसके मोहपाश से मुक्त हो चला हैं। यों बीसवीं सदी का आरंभ होते ही युगद्रष्टास्तर के महामानव अनुभव करने लगे थे कि राजनीति मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है। वह थोड़ा-सा आश्वासन देती है और बदले में स्वतंत्रता का हरण कर लेती है। पहरेदारी करने वाले लोग अपने स्वामी या बस्ती के लोगों को ही बंधक बना लें तो जो अनर्थ होता है, वैसा ही अनर्थ राजनीति से आशा-अपेक्षा करने के बाद हुआ। दक्षिण अफ्रीका में प्रायः उन्नीस वर्ष रहने वाले महात्मा गाँधी बीच में जब भारत लौटे तो उन्होंने पहली बार राजनीति के हाथ में चाबी सौंपने का संकट भांप लिया था। 1901-02 की अपनी पहली पूरे देश की यात्रा (अचर्चित) करने के बाद भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की बैठक में उन्होंने इस संकट की चर्चा भी की थी। बाद में दक्षिण अफ्रीका लौटकर 1904 में डर्बन के पास उन्होंने फीनिक्स आश्रम खोला। स्थापना का उद्देश्य राजनीति का विकल्प तलाशना ही था। स्वामी विवेकानंद, टॉलस्टाय, रस्किन, जुडास और स्वामी चंद्रशेखरेंदु आदि ने भी राजनीति के खोखलेपन की ओर इशारा कर दिया था। यह बात अलग है कि युगद्रष्टा मनीषियों ने जिस सत्य का अनुभव किया उसे समझने में मनुष्यजाति को पूरी सदी लग गई है, लेकिन आज सभी समीक्षक और विश्लेषक अनुभव करते हैं कि राजनीति सचमुच व्यर्थ सिद्ध हुई है। उसने अनर्थ ही ज्यादा किए हैं।

महात्मा गाँधी के संबंध में प्रश्न किया जा सकता है कि उन्होंने राजनीति की व्यर्थता अनुभव कर ली थी तो उसे ही अपना कार्यक्षेत्र क्यों चुना, इसका उत्तर गाँधी जी के आत्मकथा और विचार हैं। उन्हें सरसरी तौर पर भी पलटा जाए तो जवाब मिल सकता है कि महात्मा गाँधी ने राजनीति को आपर्द्धम के रूप में चुना था। उनका मन और जीवन अध्यात्म से ही अनुप्राणित था। राजनीतिक गुलामी और शोषण से समाज को मुक्त किए बिना कोई व्यक्ति धार्मिक हो ही नहीं सकता। इस अनुभूति ने गाँधी जी को राजनीति में प्रेरित किया, अन्यथा उनकी आकाँक्षाएँ और चर्या इस दलदल से सर्वथा मुक्त रही हैं। ‘रामनाम’, ‘आश्रम’,’संतवेश’,’प्रार्थना’, ‘स्वाध्याय’,’शील’,’महाव्रत’,’भगवद्गीता’,’गोसेवा’ आदि रूपों में गाँधी जी का व्यक्तित्व अराजनीतिक अधिक सिद्ध होता है।

विचारणीय यह भी है कि सौ साल के किन अनुभवों ने मनुष्यजाति का राजनीति से मोह भंग किया? छिटपुट अनुभव तो कितने ही होंगे। इनमें दस घटनाओं का प्रमुखता से उल्लेख किया जाता है। पहली घटना या घटनाओं की श्रृंखला 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध का आरंभ तथा आस्ट्रिया, सार्बिया, जर्मनी, फ्राँस, बेल्जियम, जापान, ब्रिटेन ओर टर्की आदि देश युद्ध में उतरते चले जाना। सन् 1917 तक चले इस महायुद्ध ने शामिल हुए और अलग रहे कई देशों की काया पलट दी। सदी के इन आरंभिक दशकों में जर्मनी एक महाशक्ति की तरह उभरकर आया था। विमान टेक्नोलॉजी उन दिनों प्रारंभिक अवस्था में थी। वेद विज्ञान द्वारा अनुभव प्राप्त जर्मनी में उस दौर में भी उनके विमान हजारों मील दूर उड़कर जाते और इंग्लैण्ड के शहरों पर बम बरसा कर वापस लौट आते थे। उस समय ब्रिटेन दुनिया के अधिकाँश देशों पर छाया हुआ था। ‘अँगरेजों के राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता’ वाली उक्ति उन्हीं दिनों कही जाती थी। युद्ध में भाग ले रहे सभी देश त्रस्त थे, लेकिन इंग्लैण्ड की हालत सबसे खराब थी। इसे अपने यहाँ बाकायदा ‘युद्ध मंत्रिमंडल’ गठित करना पड़ा। करीब चार साल तक चले इस युद्ध के तात्कालिक परिणाम ब्रिटेन का साम्राज्य सिमट जाने के रूप में जरूर दिखाई दिया। ब्रिटेन का साम्राज्य पराभूत होने अथवा पराधीन देशों के स्वतंत्र होते जाने को युद्ध का शुभ परिणाम कह सकते हैं। लेकिन युद्ध इसके लिए नहीं लड़ा गया था। देशों का स्वतंत्र होना युद्ध का उपपरिणाम है। उसका दंड हजारों लोगों के मरने, लाखों परिवार बरबाद हो जाने, भाग ले रहे देशों की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाने और हथियारों की होड़ मचने के रूप में मनुष्यजाति को भुगतना पड़ा है।

इस सदी की दस प्रमुख राजनीतिक या राजनीतिक कारणों से उत्पन्न हुई महाघटनाओं पर सिलसिलेवार नजर दौड़ाई जाए। वे क्रम से इस प्रकार हैं-(1) सन् 1914 में प्रथम महायुद्ध की शुरुआत।(2) रूस में साम्यवादी क्राँति। (3) हिटलर का उदय और द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि बनना। विश्वयुद्ध का आरंभ। (4)परमाणु बम का विस्फोट। (5) संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। (6) इजराइल की स्थापना और खाड़ी देशों में तनाव। (7) सत्याग्रह आँदोलन का सफलता और भारत की आजादी। (8) भारत का विभाजन।(9) जर्मनी का एकीकरण और (10) सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासनव्यवस्था की विफलता। पूरी शताब्दी इन दस मोड़ों के इर्द-गिर्द घूम रही है। इनमें पहली श्रृंखला की चर्चा की जा चुकी है। दूसरा मोड़ सोवियत संघ में साम्यवादी क्राँति है। यह क्राँति पहले महायुद्ध के बाद बने दबाव और रूस के तत्कालीन अंतर्विरोधों से उपजी थी। इस क्राँति ने राजनीतिक उपायों से समरसता लाने का लक्ष्य सामने रखा। मानकर चला गया था कि संसार में दो ही वर्ग हैं-शोषक और शोषित। शोषक वह है जो समर्थ है, शक्तिशाली है और अपने तंत्र के द्वारा वह कमजोर लोगों के बल, उपलब्धि व साधनों पर अधिकार करता है, उनका अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करता है। जिनका शोषण होता है, उन्हें सर्वहारा कहा गया। इस वर्ग में ज्यादातर मजदूर,किसान वर्ग के लोग ही आते हैं। क्राँति के जरिए स्वप्न यह दिखाया गया कि शोषकों का युग समाप्त होगा, शोषित और युग समाप्त होगा, शोषित और दलित लोग अपने श्रम का लाभ स्वयं उठा सकेंगे। यही नहीं वे अब तक शोषण करते आ रहे अत्याचारियों से बदला भी लेंगे।

साम्यवादी तंत्र का स्वप्न बहुत लुभावना था। पहले रूस में फिर आस-पास के राज्यों में क्राँति हुई। लेनिन के नेतृत्व में सभी राज्यों का महासंघ बना। उसे सोवियत गणराज्य अथवा सोवियत संघ नाम दिया गया। सोवियत संघ से प्रेरणा लेकर और भी कई देश लाल झंडे के तले आए। इनमें पोलैंड, चैकोस्लोवाकिया, जर्मनी का पूरबी भाग, हंगरी, चीन आदि देशों में सर्वहारा का शासन स्थापित हुआ। जल्दी ही अनुभव होने लगा कि शोषण से मुक्ति तो मिली नहीं, उस बहाने लाखों-करोड़ों लोगों को गुलामी के बंधन में और बँध जाना पड़ा। पुराने शासकों की जगह नए तानाशाह स्तर के शासक हुए। वे इतने क्रूर साबित हुए कि विरोध करना तो दूर उनसे असहमति जताना भी अपने लिए विनाश को आमंत्रित करना हो गया। कम्युनिस्ट देशों के यातनाशिविरों में लाखों लोग ठूँस दिए गए, जिन्होंने नए शासकों के खिलाफ थोड़ी भी चूँचपड़ की थी। सिद्ध हुआ कि राजनीति के जरिए किसी को दुख और अन्याय से मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्तिदाता स्वयं स्वामी बन बैठता है। वह और भी जोर से गला दबाता है।

जर्मनी में हिटलर का उदय और उसकी तानाशाही भी समाज में हुए घाव को भरने के रूप में हुई थी। प्रथम महायुद्ध में बुरी तरह पराजित जर्मनी का स्वाभिमान मर्माहत था। उसे अपने गौरव की पुनः प्रतिष्ठा करनी थी। यह आकाँक्षा राष्ट्र के मन-मानस को मोड़-मरोड़ रही थी। हिटलर और उसके सहयोगियों ने उस छटपटाहट को स्वर दिया। सन् 1933 में वह जर्मनी का चाँसलर बना। बाद के वर्षों में उसने जर्मन लोगों में इस कदर युद्धोन्माद भरा कि 1939 में दूसरा महायुद्ध शुरू हो गया। उधर इटली में भी मुसोलिनी ने वहाँ के नागरिकों में युद्धोन्माद भरा था। पोलैंड पर रूस और जर्मनी के आक्रमण से शुरू हुआ दूसरा महायुद्ध कुछ ही महीनों में डेनमार्क, नार्वे, बेल्जियम, फ्राँस, जापान, फिलीपीन, सारावक आदि देशों को अपनी लपेट में ले गया।

इस युद्ध का अंत 1945 में नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए अणुबमों के साथ हुआ। अणु-विस्फोट की वह विभीषिका अब भी लोगों के रोंगटे खड़े कर देती है। उस विस्फोट के शिकार लोगोँ में कोई नहीं बचा था। जिन पर परमाणु विकिरण का प्रभाव हुआ उनकी आपबीती ही देखने-सुनने को मिलती है। वह भी रोमाँचित कर देती है। अणुविस्फोट का भय पूरी मनुष्यजाति के मानस में इस कदर छा गया है कि उस घटना की किसी भी रूप में पुनरावृत्ति का विचार भी कँपकँपा देता है। दूसरे महायुद्ध में 20 लाख से ज्यादा लोग मारे गए। जिन्हें आर्थिक और पारिवारिक तबाही भोगना पड़ी, उनकी संख्या तो कई गुना ज्यादा है।

दूसरे महायुद्ध ने विश्वसमाज के शरीर पर गहरे घाव किए। उन्हें भरने और दोबारा वैसा तनाव उत्पन्न नहीं होने देने के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया। घोषणा हुई, करार किए गए, शपथ ली गई कि कोई भी देश किसी अन्य देश की सार्वभौम सत्ता का उल्लंघन नहीं करेगा। आपसी विवाद शाँतिपूर्ण तरीकों से निपटाए जाएँगे। युद्ध से नहीं बातचीत और मध्यस्थता से तनाव का हल खोजा जाएगा। युद्ध और राजनीति के दंश से विश्व को बचाने के लिए बनी यह संस्था विश्वसरकार का प्रारूप बन सकती थी। इस रूप में वह उभर भी रही थी, लेकिन पाँच महाबली देशों-अमेरिका, रूस, ब्रिटेन फ्राँस और चीन ने इसे अपने वर्चस की होड़ का मैदान बनाया। पाँचों की होड़ में अमेरिका और रूस ही आगे रहे। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका अकेला दादा रह गया। दूसरे देश अपने ढंग से उसे चुनौती देते रहते थे। विश्वसरकार वसुधैव कुटुँबकम और मानवजाति के एक होने का स्वप्न जिस संस्था के माध्यम से साकार होने की उम्मीद की जा रही थी, वह भी राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गई।

सत्याग्रह आँदोलन की सफलता और 1947 में भारत की आजादी विश्व इतिहास की अकेली ऐसी घटना है, जो सत्य ओर अहिंसा की सामर्थ्य सिद्ध करती है। बिना हथियार उठाए भी महाशक्तिशाली शासकों की सत्ता उलटी जा सकती है यह दुनिया ने पहली बार जाना। लेकिन इस आजादी के साथ आया विभाजन राजनीति के विषैलेपन को फिर उजागर करता है। विचारधारा ने दूसरे महायुद्ध के बाद बाँट दिया था। एक तरफ परंपरागत व्यवस्था थी, दूसरी तरफ साम्यवादी तंत्र। भारत को राजनेताओं की निजी आकाँक्षा और आग्रहों -दुराग्रहों ने बाँटा। धर्म-संप्रदाय के नाम पर अलग हुए हिस्से भी एक कहाँ रह सके। वे भी बँट गए। 1947 में अलग बने पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान पच्चीस साल भी साथ नहीं रह सके। वे भी बँट गये। जर्मनी जरूर एक हो गया। वह भी इसलिए कि साम्यवाद से वहाँ के लोगों का जल्दी ही मोह भंग हो गया। उन्हें समता, न्याय, मुक्ति, सर्वहारा जैसे नारों के पीछे छिपा छल दिखाई देने लगा और 1990 में वह ऐतिहासिक बर्लिन की दीवार टूट गई जिसने एक देश के एक नगर और परिवार को बाँट रखा था। उसी साल सोवियत संघ का साम्यवाद स्वप्न भी बिखरने लगा। दमन और उत्पीड़न के जरिए लोगों को बाँधें रखने वाली जंजीरें साल-डेढ़ साल में बिखर गईं और 25 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ का ढाँचा पूरी तरह बिखर गया।

तमाम घटनाओं को दर किनारे छोड़ें तो भी ब्रिटिश साम्राज्य का अस्त होना और कम्युनिज्म की विफलता, दो ऐसी महाघटनाएँ हैं। जो सिद्ध करती हैं कि मानवीय चेतना मूलतः स्वतंत्र और मुक्त है। उसे हमेशा के लिए कोई नहीं बाँध सकता। पहले और दूसरे महायुद्ध ने विनाश की शक्ति को भी बौना कर दिया। राजनेताओं और शासकों की खुलती रहने वाली पोल तो इन दस मोड़ों के सामने कुछ भी नहीं है। लेकिन इस तरह के हजारों रहस्योद्घाटन साबित करते हैं कि राजनीति के दिन लद गए। उसके पास समाधान नहीं है। राजघरानों और तानाशाहों, साम्राज्यों के रूप में राजनीति की चमक उन्नीसवीं सदी के अंत के साथ खो गई। उसके बाद की राजनीति साफ-सुथरा चेहरा लेकर कभी भी प्रस्तुत नहीं हुई। समाजवाद, साम्यवाद, लोकतंत्र, मजहबी राज्य, सद्विप्रों का शासन सैनिक शासन (मार्शल ला) तानाशाही आदि कितने ही रूपों में राजनीति ने लुभाने की कोशिश की। इन रूपों में लोग तो वही थे जिनके मन में सत्ता और अधिकार की लिप्सा लपलपाती रही है। बीसवीं शताब्दी में इतने अधिक प्रयोग हुए कि राजनीति की सारी कलई खुल गई। लोगों को उससे कोई आशा-अपेक्षा नहीं है। सवाल अपनी जगह है कि राजनीति का विकल्प क्या है? क्या परिष्कृत धर्मतंत्र यह भूमिका निभा सकता है। राजनीति का मुखौटा पहने समाजतंत्र के विभिन्न घटक क्या इसे उतारकर परिष्कृत रूप में वास्तविक समाजसेवा हेतु उतर कर इस शून्य को भर सकते हैं, जो आज की खोखली राजनीति के असरहीन होने से पैदा हुआ है। उत्तर आप हम सभी को अपेक्षित है। हमीं को देना भी होगा।


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