प्रकृति में दृश्यमान सहयोग-सहकार भरा सद्भाव

November 1989

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जीव मात्र में व्याप्त परमात्मा सत्ता के दर्शन इन स्थूल नेत्रों से कर सकना संभव नहीं है। उसका साक्षात्कार कने एवं आनन्दानुभूति के लिए अपनी अन्तः चेतना को विकसित करना होगा। चेतना को विकसित करने का आधार जिन के स्वार्थ की संकीर्ण सीमा को तोड़कर समष्टि चेतना तक अपने भाव को व्यापक एवं विस्तीर्ण बनाना है। सबमें एक ही दिव्य सत्ता विराजमान है, अपनी आस्था को यदि इस स्तर तक विकसित कर ले और परस्पर स्नेह-सहयोग को, सद्भाव को व्यापक बनाएँ तो भागवत सत्ता का सामीप्य अनुभव किया जा सकता है।

यह जिन की स्वार्थ परता ही है जिसके कारण व्यक्तिवाद, मोह, आसक्ति आदि दोष पनपते है। जबकि परस्पर सहयोग एवं सहकारिता का भाव अपने तथा समाज के उन्नयन में सहायक है।

संसार इसी सहयोग एवं सहकारिता के सिद्धान्त पर जीवित है। यदि दुनिया के सारे लोग अपनी-अपनी बुद्धि को तिलाँजलि दे परस्पर शोषण एवं असहयोग पर उतर आयें तो समूची सृष्टि का अस्तित्व समाप्त प्रायः हो जायेगा।

समष्टि चेतना से उद्भूत प्रकृति को सूक्ष्मता से देखने पर पाते है कि उसका अन्तर्जीवन कितना सद्भावना एवं सहयोग से परिपूरित है। छोटे-छोटे जीव−जंतु, वृक्ष-वनस्पतियाँ भी किस तरह मैत्री का जीवन यापन कर रहे है। मानवी सभ्यता आज इसी कारण विराजमान है कि भौतिकता की इतनी चकाचौंध बढ़ने पर भी हम परस्पर दया, उदारता, सौहार्द के सम्बन्ध को बनाये रखे हैं।

गाँव के किसान से यदि कोई जिज्ञासा करे कि खेत में कई प्रकार के अनाज को मिलाकर बोने का क्या तात्पर्य है। तो परस्पर सहयोग से ही उन्नति के सूत्र की व्याख्या सामने आ जायेगी। ज्वार एवं अरहर साथ-साथ बोई जाती है। मूँग, उड़द और लोबिया आदि दालें भी ज्वार के साथ बो दी जाती है। ज्वार का पौधा लम्बा और बड़ा होता है, यदि उसमें निज के स्वार्थ को ही सब कुछ मान बैठने की संकीर्ण वृत्ति होती तो मूँग उड़द को बढ़ने न देता। जबकि होता यह है कि यह दालों को ज्वार में बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने में सहायता मिलती है। ज्वार को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। यह काम अरहर पूरा करती है। वह वातावरण को खींचकर कुछ अपने लिए रख लेती है शेष ज्वार को दे देती है जिससे वह बढ़ती और अच्छा बीज पैदा कर सकने की शक्ति पाती है। अपने देश का सामाजिक ढर्रा भी इसी दृष्टि से बनाया गया था। लुहार, तेली, मोची सब अपना-अपना काम करते और परस्पर विनमय के द्वार बाँट लेते। इस प्रकार एक दूसरे से स्नेह आत्मीयता का भाव भी बना रहता था।

पान की बेल आम के वृक्ष के सहारे कही अच्छी तरह से बढ़ती है। यदि उसे किसी सघन वृक्ष की छाया न मिले तो उसका जीवन ही संकट ग्रस्त हो जाय। यहाँ बड़ा छोटे के विकास में सहायक ही है। बेचारी अमरबेल जिसमें न तो जड़ है, न ही क्लोरोफिल, इस अभाव ग्रस्त स्थिति में स्वयं सीधे भोजन प्राप्त कर सकने में असमर्थ है। इसके लिए उसे बड़े वृक्षों का संरक्षण मिलता है। जिनके पास प्रचुर धन वैभव है, वे उसे मात्र अपने स्वार्थ में खर्च न कर यदि अल्प विकसितों को भी बाँटते रहें तो यह विषमता पैदा ही न हो। बात आर्थिक विशेषताओं की नहीं विद्या बुद्धि-कला कौशल भी एक जगह केन्द्रित न होना चाहिए। हमारे पास जो भी योग्यता सामर्थ्य है उसे अल्प विकसित लोगों को ऊँचा उठाने बढ़ाने में नियोजित करने में ही उसकी सार्थकता है।

अधिक शक्ति वाले कम शक्ति वालों के विकास में जुट जायें तो ही विकास की समग्रता, उत्कृष्टता संभव है। छोटी पीपल जो एक प्रकार की औषधि है, अपना विकास किसी घने, छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है।

अन्धे और लँगड़े की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। दोनों ने परस्पर सहयोग को वरीयता दी। अन्धे ने लंगड़े को कन्धे पर बिठाया, लंगड़े ने उसे दिशा निर्देशन दिया और दोनों ने इस प्रकार अपनी यात्रा सम्पन्न की।

यह कहानी मानवी समाज की सद्भावना सहानुभूति का प्रमाण है। यहाँ कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं सब अपूर्ण ही हे। चिकित्सक औषधिशास्त्र का महा पण्डित को सकता है, पर कृषि का ज्ञाता नहीं। इंजीनियर कल-पुर्जों की बारीकियाँ समझने में निष्णात् भले ही हो पर व्यापार शास्त्र के कौशल में अबोध बच्चा ही है। अपूर्णताओं वाले इस संसार में यदि सभी बुद्धि प्रधान अपने स्वार्थ के लिए छल कपट-चालाकी का आश्रय लेने लगें तो अशिक्षित पर स्वस्थ बलिष्ठ भी निज के स्वार्थ को पूरा करने के लिए डकैती मार-पीट का सहारा अपनाएगा। क्योंकि उसे न्याय नियंत्रण में रखने वाली बौद्धिक शक्ति प्रायः पंगु जो हो जाती है। जबकि सभी उदारतापूर्वक परस्पर सहयोग एवं आत्मीयता का राजमार्ग अपनालें तो हर कोई अपना सर्वांगपूर्ण विकास कर सकता है।

लेग्यूमिनस पौधों जैसे मटर, सेम आदि की जड़ों में छोटे-छोटे फूले हुए भाग होते है, जिन्हें नोड्यूल्स (ग्रन्थियाँ) कहते है। इन ग्रंथों में एजेटोबैक्टर, नाईट्रोबैक्टर जैसे विशेष तरह के जीवाणु रहते है। ये हवा में उपस्थित नाइट्रोजन को उसके यौगिकों में बदलकर पौधों के उपयोग लायक बना देते हैं, क्योंकि हवा की यह नाइट्रोजन इन पौधों के किसी काम की नहीं और स्वयं भी पौधों की जड़ों स अपना स्वल्प भोजन प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार परस्पर सहयोग से दोनों अपने-अपने विकास की पूर्णता प्राप्त करते हैं।

इसी तरह का पारस्परिक सहयोग संघ प्रोटोजोआ के जन्तु पैरामीशियम में पाया जाता है। यह जन्तु जब थक जाता है, और बुढ़ापे के घिर आने से जीवनीशक्ति कम पड़ती है, जब दो पैरामीशियम मिलकर एक दूसरे से साईटोप्लाजमा अदल-बदल लेते है। इससे उनमें पुनः नई शक्ति आ जाती है। जबकि हम अपने माँ-बाप-बुजुर्गों को इसलिए तिरस्कृत-अपमानित करते है कि उनमें शक्ति की न्यूनता है और आजीविका की दृष्टि से अक्षम है। यदि नई पीढ़ी उनसे उनके विविध अनुभवों एवं बुद्धि का लाभ उठाकर उन्हें स्वअर्जित ज्ञान जीवन की उपयोगी सामर्थ्य के आवश्यकतानुसार दे सकें, तो दोनों पक्ष कुशलता एवं सक्षमता से रह सकते हैं।

लाईकेन जीवशास्त्र का ऐसा शब्द है जो प्रकृति में सहजीवन को स्पष्ट करता है। देखने में तो लगता है कि कुकुरमुत्ता जिस पेड़ या पत्थर पर उगा है, वही उसका शरण दाता है, पर तथ्य इसके विपरीत ही है। इसके कोमल तने के अन्दर जल शैवाल नाम का कोश समुदाय निवास करता है। वह कुकुरमुत्ते के भीतर न केवल सुरक्षित रहता है।

अपितु क्लोरोफिल विहीन कुकुरमुत्ते को इस उपकार के बदले प्रकृति से जीवन तत्व खींचकर देता है जिससे उसका भी विकास होता रहता है। ऐसा ही संबंध कर्कट (ष्टह्ड्डड्ढ) और सी-एनीमोन में पाया जाता है। कर्कट इन्हें पीठ पर लादे घूमता है। बदले में यह कर्कट की जीवन रक्षा में सहायक होता है। कर्कट जल जीवों का प्रिय भोजन है, किन्तु एनीमोन अपने शरीर से ऐसा विषैला द्रव निकालते हैं जिससे आक्रामक जीव इससे बहुत दूर रहते हैं। यह परस्पर सहकार का चमत्कार है। यह सहयोग एवं सहकार का सद्भाव ही है, जिसके कारण परमात्मा चेतना का विश्व उद्यान हरा-भरा दीखता है। मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी के लिए यही उचित है कि वह अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठकर सबके लिए दया-करुणा और आत्मीयतापूर्ण सम्वेदना से ओत-प्रोत हो परमपुरुष के उद्यान को पुष्पित पल्लवित करने में उसका हाथ बंटाएं।


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