विचारों के नियन्त्रण से बड़ी-बड़ी शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं, जो सहज ही लोगों को चमत्कृत कर दें। विचारों का संयमन और एकाग्रता यह दो इतने बड़े जादू हैं कि समूचे जीवन व परिवेश को कायाकल्प करने की शक्ति स्वयं में रखते हैं। संसार में जितने भी शक्ति स्वयं में रखते हैं। संसार में जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं, उन सबकी सफलता का मूल मंत्र उन्नत विचार शक्ति और दृढ़ संकल्प बल ही है। यों उनके जीवन में भी कष्ट-कठिनाइयाँ कम नहीं आयीं। किन्तु इन शक्तियों के बल पर उन्होंने इन सब अवरोधों को पारकर लक्ष्य को हासिल किया। जन्मजात प्रतिमा लेकर तो बिरले ही व्यक्ति आते हैं।
मनोविद जी, वैल्स अपने अध्ययन “द आर्ट आफ थिंकिंग” मेँ विचारों की इन शक्तियों के अर्जन व उपयोग को एक कला मानते हैं। उनके अनुसार इस कला को सीखने की मौलिक विशेषता यद्यपि हर किसी में होती है। फिर भी बिरले ही इसे सीखते और उपयोग में लाते हैं। सामान्य मन में संकल्प नहीं उभरता। यों ही अन्तर की स्फुरणा एवं बाह्य परिवेश के उद्दीपन अपनी अंतःक्रिया के परिणाम स्वरूप कल्पनाओं को जन्म देते हैं। ये कल्पनायें पनपती व नष्ट होती हैं। मानसिक ऊर्जा यों ही खपती रहती है। बुद्धि के द्वारा इनमें से उपयुक्त को ग्रहण कर उन्हें तराशा और रूप दिया जाता है। ये निखरी हुई कल्पनायें ही विचार हैं। इन विचारों को संयमित कर जब अन्तर के प्राण प्रवाह से जोड़ा जाता है तो इनका एक नया मौलिक रूप उभरता है। उसे ही संकल्प कहते हैं। संकल्प अपनी अभिव्यक्ति क्रियाशीलता में करे बगैर नहीं रहते।
आज के मनोविज्ञानियों की तरह प्राचीन ऋषि-मुनियों की भी इसी महत्ता का पर्याप्त ज्ञान था। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि इच्छा प्रधान व्यक्ति जैसा संकल्प करता हैं, वैसा ही कर्म करता है। जैसा कर्म करता है वैसा ही बन जाता है। मनोविद डी.डब्लू. डायलर ने “थिंकिग एण्ड क्रिएटीविटी” में विचारों के अनुरूप स्वभाव व आचार के ढलने की बात कहीं है। उनके अनुसार हमारा चेहरा, क्रियाकलाप, स्वास्थ्य, सफलता, असफलताएं सभी कुछ अपने ही विचारों की प्रतिच्छायायें हैं।
इस निदान के लिए चट्टान सी दृढ़ता चाहिए। जो भीषण जल प्रवाह के सामने तिल–तिलकर टूटती तो है पर अपने स्थान से डिगना नहीं पसन्द करती। संकल्प ऐसे ही दृढ़ अन्तर में उपजते हैं। शेष तो संकल्पों के ना पर कल्पनाओं के झूले में झूलते रहते हैं। महामानवों ने क्या नहीं सहा? आज मर कर भी वे यशः काया से अजर अमर हैं। ऐसे अनेकों लोगों के उदाहरण हमारे सामने हैं। मैक्सिम गोर्की सारे दिन साहित्य सर्जन करते और जब क्षुधा व्याकुल करती तो कूड़े के ढेर से डबल रोटी के टुकड़े ढूंढ़ते थे। ग्राह्म बेल ने जब टेलीफोन का आविष्कार किया था, तब जेब का अन्तिम सिक्का तक उसमें लगा दिया था। भूख की परवाह न कर के अन्वेषण में जुटे रहे। यह है संकल्प की दृढ़ता। ऐसी दृढ़ मनोभूमि वाले ही संकल्प करते और उसे निभाते हैं।
मौलिकता की दृष्टि से देखा जाय तो हम भी गोर्की एवं ग्राह्म से कम नहीं है। जो हाथ पैर और प्रतिभाऐं क्षमताएँ भगवान ने उन्हें दी थी वहीं हमें भी दी हैं। अंतर इतना ही है कि उन्होंने अपने दृढ़ निश्चय को आगे बढ़ने के .....भा को को निरन्तर बनाए रखा। कभी निराशा और कायरता को प्रश्रय नहीं दिया। जबकि हम छोटी-छोटी बाधाओं के सामने भी घुटने टेकते हार मानते, थकते और निराशा से चूर हो, ..... पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं।
हम पौरुष कर्मठता पर विश्वास बढ़ र.... चले। यही अन्धकार से प्रकाश की और गमन है। इस और गतिमान होकर ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकेंगे।