ईश्वर एक है, पर भिन्न-भिन्न धर्मो में उसकी व्याख्या-विवेचना विभिन्न प्रकार से की गई है। कहीं उसे सातवें आसमान में बताया गया है, तो कहीं उसकी अवस्थिति की कल्पना कण-कण में की गई है, कहीं उसे “रसो वै सः” अर्थात् आनन्द से अभिपूरित सत्ता कहा गया है। गहराई से विचारने पर सभी का सार-निष्कर्ष लगभग एक जैसा प्रतीत होता है।
इस्लाम धर्म में ईश्वर को अल्लाह के नाम से जाना जाता है। वही कयामत यानी महाप्रलय का मालिक हे। कुरान में लिखा है वही अव्वल है, वही आखिर है, वही प्रकट है और वही गुप्त है और वही सब चीजों का जानने वाला है। अल्लाह का इल्म अर्थात् ज्ञान सम्पूर्ण जगत में समाया हुआ है। कुरान में ‘रब्ब’ शब्द भी देखने को मिलता है, जिसका अर्थ ही ‘महान’ होता है। सफाहत शिलालेखों में अल्लाह का स्त्रीलिंग ‘अल्लात’ भी देखने को मिला है। ‘लाह’ शब्द का अर्थ सूर्य के प्रकाश के सदृश्य चमक का बोध कराता है। एक बार मुहम्मद पैगम्बर ने परमात्मा को अर-रहमान कहकर पुकारा तो लोगों ने बड़े ही संदेहास्पद ढंग से पूछा-”जब ईश्वर को एक नाम से पुकारना है तब फिर दूसरे नाम का क्या महत्व रह जाता है?” मुहम्मद साहब ने इसका उत्तर बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ दिया और बताया कि ईश्वर की कई प्रकार की श्रेष्ठ पदवियाँ है। कुरान की आयत (7ः179) इसी तथ्य की पुष्टि करती है। जो अल्लात-अल्लाह यानी स्त्री-पुरुष जैसा लिंग भेद करते हैं उनसे सदैव दूर ही रहना चाहिए। नाम कोई भी रहे, वे तौकीफी यानी कुरान-सम्मत होना चाहिए। कुरान (6ः12.59) में उसे सर्वज्ञानवान सर्वशक्तिवान और सृष्टि के कण-कण में विराजमान बताया और कहा है। “वह तो गुप्त रूप से की गई फुसफुसाहट को भी आसनी से सुन-समझने में सक्षम है। उसकी इच्छा के बिना तो संसार की कोई गतिविधि सम्पन्न नहीं हो सकती। ईश्वर के अनेक नामों में अलवद्द (प्रेम करने वाला) अल्-तव्वाव (कृपा दृष्टि रखने वाला) अल्-रदूक (दयावान), अल् हादी (मार्ग दर्शक) अल्मोमिन (संरक्षक) अल्-मुहैमिन (आश्रयदाता) अलसलाम (शांतिदाता) आदि को प्रमुख रूप से लिया जाता है, जिन्हें देखकर इतना ही कहा जाता है कि भगवान श्रेष्ठताओं का, सद्गुणों का समुच्चय मात्र है।”
यहूदी धर्म ईश्वर को ‘यहोवा’ के नाम से जाना जाता है। हजरत मूसा इस धर्म के सूत्र-संचालक माने जाते है। यहूदियों का दृढ़ विश्वास है कि उनका मसीहा फिर से इस धरती पर अवतरित होगा और धार्मिक वातावरण विनिर्मित करेगा। ओल्ड टेस्टामेंट (साम 82.6) में लिखा है कि यहोवा के अतिरिक्त और भी बहुत सारे देवी-देवता हैं, पर उन सब की उत्पत्ति ईश्वर से ही हुई है। मनुष्य उसकी सर्वप्रिय संतान है। होसिया, 11.3,4,8 में इसी तथ्य की पुष्टि की गई है। इस धर्म ग्रन्थ के उत्पत्ति अध्याय में एडम और ईव नामक दो पुरुष स्त्री थे उनने ईश्वरीय निर्देशों का उल्लंघन करते हुए ईडन गार्डन से फल तोड़ कर खा लिया तभी से संसार में जन्म और मृत्यु का चक्र चला आ रहा है। यहूदी धर्म में मसीहा का बड़ा महात्म्य है। उसी को यूनानी भाषा में ‘प्रोफेट’ के नाम से जाना जाता है। ‘प्रो’. का अर्थ पक्ष में और फीटेस का अभिप्राय बोलना अर्थात् प्राणियों के कल्याण की बात सोचने और बोलने वाला ही परमात्मतत्व है। मनुष्य और परमात्मा के मध्य की कड़ी ही “प्रोफेट” है। एक्सोडस 12.50 में ईश्वरीय अनुग्रह की ही चर्चा की गई है। यहूदियों का मूल धर्मग्रंथ ‘तोरा’ है। ‘तालमुड’- को विधि-व्यवस्था की पुस्तक समझा जाता है। एक श्रुति है तो दूसरी स्मृति। इनके अतिरिक्त तीसरा धर्मग्रंथ ‘मिद्राशिम’ है, जिसमें नीतिमत्ता की कथाओं का ही उल्लेख है। ईश्वरीय प्रेरणाओं से ओत-प्रोत इन धर्म ग्रन्थों को लोग पवित्रता का प्रतीक समझ कर तदनुरूप आचरण भी करते देखे गये है।
कुँग-फुत्सु जिन्हें अँग्रेजी में कन्फ्यूशियम के नाम से जाना जाता है चीन के सर्वप्रथम धर्म गुरु कहे जाते है। उनने ईश्वरीय सत्ता का स्थान मानवी अन्तराल को ही बताया है। इसलिए वे प्रायः यही काल करते थे कि “अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। अनीति एवं अनाचार बरतने ले राजा महाराजाओं से उनने यही बात कहीं। उनने नैतिक एवं धार्मिक जीवन को ही ईश्वर का स्वरूप माना है “जेन, चुन-त्सु.लि.ते. और वेन नैतिकता के पाँच सूत्र हैं, जिन्हें जीवनचर्या में समाविष्ट करने का अभिप्राय ही ईश्वरीय अनुग्रह को प्राप्त करने का होता है। सहृदयता शालीनता, सदाचरण, शक्ति और शान्तिपूर्ण ढंग से ही उस परमतत्व का अनुभव किया जा सकता है। उनके मतानुसार मनुष्य की भौतिक सत्ता से परे कोई अदृश्य एवं आध्यात्मिक चेतना अवश्य है जो इसका नियमन एवं नियंत्रण करती है।
ताओ धर्म के संस्थापक श्री लाओत्से के अनुसार “मनुष्य ताओ का स्वरूप नहीं बता सकता है, उसका कोई नाम नहीं है। जो उसे अपनी भाषा में जानने का प्रयत्न करते हैं वे उससे सदा दूर ही बने रहेंगे। वह परमशक्ति शब्द और व्याख्या से परे है। “उसका” आदि और अंत नहीं है। सबकी उत्पत्ति उससे होती है, “उसकी” उत्पत्ति किसी से नहीं होती वह जन्म-मरण से मुक्त है।”
जापान का शिंतों धर्म बौद्ध और कन्फ्यूशियस धर्म से बहुत पहले का है। यह सूर्य-उपासक धर्म है। प्राकृतिक जीवन के प्रति अगाध प्रेम होने के कारण ही उनने अपने इष्ट देव का चयन किया है। सूर्य की देवी को ही वे देवाधिदेव कह कर पुकारते और उसकी उपासना कर उपक्रम बिठाते हे। उनकी मान्यताओं के अनुसार देवी की सेवा-सहायता के लिए पाँच देवता सदैव तत्पर बने रहते है।
आदिवासियों में भी ईश्वर विश्वास कम नहीं है। भारत के आदिवासी संताल सूर्य को सिनकान्दू कह कर पुकारते और ईश्वर के सदृश सम्मानास्पद समझ कर पूजा-उपासना की विधि व्यवस्था का उपक्रम बिठाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनका कोई धार्मिक संगठन तो नहीं बना है, पर ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व के संबंध में वे पूर्णतः सहमत है। आस्ट्रेलिया के आदिवासी लोगों का कहना है कि ईश्वर बहुत समय पूर्व धरती पर रह चुका है और बाद में अपने स्थान पर चला गया। वहीं बैठ कर भूलोक के निवासियों के कर्मों का निरीक्षण करता और तदनुरूप प्रतिफल प्रदान करने की योजना भी क्रियान्वित करता रहता है। ‘अतनाम’ नाम ईश्वर का ही है। बेबीलोनिया के लोग पहले तो प्रकृति पूजा लोग पहले तो प्रकृति पूजा को ही महत्व देते रहे, पर शनैःशनैः उनकी धार्मिक मान्यताएँ परिवर्तित होती चलीं गयी। वर्तमान में वे परमात्मा सत्ता को त्रिमूर्ति का प्रतीक यानी स्वर्ग, पृथ्वी और नरक के रूप में समझ कर ही चलते और अपने क्रिया-कलापों का निर्धारण करते है। असीरियन लोगों का ईश्वर ‘असुर’ के नाम से प्रख्यात है। उनके मतानुसार “जीवन का आधार भौतिक तत्व नहीं, वरन् इससे परे कोई सत्ता है। वह अविनाशी है।”
हमें ईश्वर को उसके आकार प्रकार अथवा अवस्थिति के आधार पर विभक्त नहीं करना चाहिए, वरन् उसके अनुशासन और विधि-व्यवस्था को प्रमुखता देनी चाहिए। इस दृष्टि से विचार करने पर विभिन्न धर्मों में ईश्वर का स्वरूप समान प्रतीत होता है।