आवेशों को हावी न होने दें!

November 1989

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वजनदार भारी भरकम वे व्यक्ति माने जाते हैं जिनमें बाहर के प्रभावों को समझ-बूझ कर उचित मात्रा में ग्रहण करने की क्षमता होती है। जो दूर की बात सोचते और भावी परिणामों को देखकर कदम उठाते हैं। उथले-ओछे उन्हें कहते है जो तत्काल भावुक हो बैठते है। ऐसे लोगों से वस्तु स्थिति समझते बन नहीं पड़ती। उतावली उन्हें जो कुछ सुझा देती है उसे न केवल ध्रुव सत्य की तरह मान बैठने के लिए कदम उठा लेते है। भले ही उसका परिणाम थोड़े ही दिन उपरान्त इस रूप में सामने आये कि पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहे।

प्रेम प्रसंगों में अक्सर ऐसी ही उतावली उभरती रहती है। नई उम्र के लड़के-लड़कियाँ अनुभवहीनता के कारण यह नहीं समझ पाते कि जिसके साथ संबंध सूत्र बनाया जा रहा है वह कहीं नाटक तो नहीं कर रहा है। भावुकता भड़काकर उसे निकट लाने और अनुचित लाभ उठाने की फिराक में तो नहीं है। इनकी मनः स्थिति और परिस्थिति इस प्रसंग को उभार सकने के उपरान्त उसे भविष्य में भी निबाहते रहने की है या नहीं। भावुकता का उभार मात्र एक पक्षीय चिन्तन तक सीमित कर देता है। चिन्तन को उन्माद स्तर तक पहुँचा देता है और जमीन रहते हुए आकाश जैसी कल्पनाएं करने के लिए विवश कर देता है। सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए प्रिय कल्पना को ही सब कुछ नहीं मान लिया जाना चाहिए वरन् देखना यह भी चाहिए कि ऐसी संभावनाएं तो सामने नहीं आ रही जो वर्तमान मान्यता के सर्वथा विपरीत है। संभव और असंभव, उचित और अनुचित की उभयपक्षीय विवेचना करने के उपरान्त ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। इस संदर्भ में प्रायः अतिभावुक व्यक्ति असफल ही रहते है। बिना विचारे कुछ भी कदम उठा लेने के लिए उत्तेजित करने वाली एकाँगी भावुकता प्रायः पछताने वाले प्रसंग ही उपस्थिति करती है। ठगे जाने की, विश्वासघात की प्रायः ऐसे ही लोग शिकायत करते पाये जाते है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ प्रायः इस प्रकार के जाल-जंजाल में अधिक फँसती देखी जाती है।

ठगों का व्यवसाय ही यह है कि वे तर्क न सकने वाले सहज विश्वसनीयों को कम समय में सुगमता पूर्वक बहुत धन कमा लेने सब्जबाग दिखाते है और जाल में फँस जाने वालों की उलटे उस्तरे से हजामत बनाते हैं। यह ठगे जाने वाले लोग यह विचार नहीं कर पाते कि कमाई इतनी सरल रही होती तो कहने वाला पहले ही करोड़पति बन गया होता। दूसरों को क्यों ऐसे रहस्य बताता फिरता। उधार माँगने वाले भी अपनी ईमानदारी और आवश्यकता का इस प्रकार वर्णन करते हैं कि सहज स्वभाव वाले को देते ही बने रहे। सहज विश्वासी भावुकता वश आये दिन ऐसे ही घाटे उठाते रहते हैं। अपनी जाँच-पड़ताल कर सकने में असमर्थ रहने की कमी को नहीं देखते। दोष बहेलियों को और मछलीमारों को देते हैं, जो सदा जाल बिछाते और अदूरदर्शियों को फँसा कर ही अपना गुजारा करते हैं।

यह सब मंदमति के ठंडे बस्ते में पड़ने वाले आवेश हैं। इनकी एक बिरादरी और भी है जो तनिक सी प्रतिकूलता आते ही आग-बबूला बना देती है और इतना होश नहीं रहने देती कि जो उन्माद अपनाया जा रहा है उसका परिणाम अगले ही क्षणों में क्या होकर रहेगा?

उठती उम्र के किशोर लड़के स्वाभिमान कही हल्की सी झलक झाँकी उठते ही उसे उद्धत अहंकार में बदल लेते हैं और उन के अनुकूल परिस्थिति न बन पड़ने पर ऐसे कदम उठा लेते हैं जिससे न केवल उन्हें वरन् अभिभावकों समेत पूरे परिवार को त्रास सहना पड़ता है। घर छोड़ कर भाग खड़े होने वाले अनुभवहीनता के रहते न जाने कहाँ-कहाँ धक्के खाते और कितने-कितने अपमान सहते है। फिर बरबस लौटने में नाक कटती देखकर जहाँ-तहाँ दिन गुजारते हैं। अपने को, अपनों को वे लंब समय तक कष्ट देकर तब कहीं होश में आते हैं और नासमझी पर पछताते हैं।

इन दिनों किशोर लड़कों के घर छोड़कर भाग जाने के समाचार आये दिन हर क्षेत्र में मिलते रहते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो आवेश की चरम स्थिति में आत्मघात तक कर बैठते है। कारण तलाश करने पर बात इतनी छोटी से होती है कि किसी गलती पर घर वालों से मामूली डाँट-डपट की। उनने उसी को अपना भारी अपमान माना। यह भूल गये कि अपने बड़े हितैषियों को यह अधिकार भी है कि वे नरम ही नहीं गरम शब्दों में भी भूल सुधारने के लिए कुछ कह सकते हैं। भूल समझने की तो स्थिति ही नहीं होती। अपमान, आवेश के उन्माद में कुछ ऐसा करने का मन करता है जिससे समझाने वालों से प्रतिशोध किया जाय। भले ही इसमें उन्हें स्वयं कितने ही कष्ट उठाने, बदनामी सहने और लोगों की आँखों में उतरने का जोखिम उठाना पड़े।

नव बंधुओं के संबंध में भी कितनी ही घटनाएँ ऐसी ही घटित होती रहती है। जिनमें कई बार तो ससुराल वालों द्वारा त्रास दिये जाने की घटनाएँ भी होती है। पर ऐसे प्रसंगों की भी कमी नहीं होती जिसमें साधारण कहना सुनना भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर माना गया और घर छोड़ देने से लेकर आत्म-हत्या कर बैठने जैसा रोमाँचकारी कदम उठा लिया गया। इस आवेश में इतना तक ध्यान नहीं रहता कि उनके छोटे बच्चों का पीछे क्या होगा?

पारस्परिक मनोमालिन्य के, मतभेद के अवसर भी साथियों के बीच आते है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न न बना कर आपसी विचार विनिमय से या किसी मध्यस्थ के माध्यम से हल किया जा सकता था। बड़ी हानि होने की संभावना हल किया जा सकता था। बड़ी हानि होने की सम्भावना को देखते हुए छोटी हानि उठा लेने का भी मन बना लिया जा सकता था, पर वैसा अवसर बन नहीं पड़ता। बात का बतंगड़ हो जाता है और नाराजी दुश्मनी में बदल जाती हैं। आक्रामक रवैया अपनाने पर प्रत्याक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है। बहुधा उसका जीवन भर अन्त नहीं होता। इस कुचक्र में बहुधा दोनों पक्षों को इतनी अधिक हानि उठानी पड़ती है कि उसी तुलना में प्रथम मन मुटाव को दर गुजर कर देना कहीं अधिक सस्ता पड़ता। हत्या और आत्महत्या के मूल कारण की तलाश करने पर विदित होता है कि आरंभिक मूल कारण इतना बड़ा नहीं था जिस पर चरम सीमा का आक्रोश उभारा जाता और इतना बड़ा कदम उठाया जाता जिससे दोनों ही पक्ष एक प्रकार से तबाह हो जाने की स्थिति तक जा पहुँचते।

असहिष्णुता या एकाकी रहने से अधिक सुविधा सोचने पर कई सम्मिलित परिवार बिखर जाते है। एक ही कुटिलता, दूसरों को भी ऐसा ही करने के लिए विवश करती है। फलतः संयुक्त कारोबार संयुक्त सम्मान विघटित होकर अस्त व्यस्त हो जाता है। बुहारी से अलग-अलग हुई सीकें किस प्रकार कूड़े के ढेर से जा गिरती है, यह सभी ने देखा है। फिर भी जब किसी पर स्वार्थ परता, कुटिलता सवार होती है तो यह पता नहीं चलता कि क्या किया जाना था और क्या कर डाला गया। दुष्परिणाम का अनुमान तब होता है जब समय गुजर गया होता है और पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं बचा सकता।

विग्रहों में से आधे ऐसे होते है जिनके पीछे कोई ठोस कारण नहीं थे। मात्र गलतफहमी से ही कुछ का कुछ समझ लिया गया और तिल का ताड़ बन गया। यदि शान्त चित्त से वस्तुस्थिति को समझा गया होता तो पता चलता कि गाँठ छोटी सी थी और उसे आरंभ में ही आसानी से सुलझाया जा सकता था।

अदूरदर्शी, अविवेक, उथली, भावुकता से मिल कर प्रायः अवाँछनीय दुष्परिणाम ही उत्पन्न करता है। यदि मन को उत्तेजना के वशीभूत न होने दिया जाय और तथ्यों के गहराई तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जाय तो प्रतीत होगा कि “ठहरा और देखा’ की बात ही ऐसे प्रसंगों में बुद्धिमत्ता पूर्ण सिद्ध होते है।


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