मस्तिष्क से लगी हुई दो आँखें वस्तुओं को देखने पहचानने तथा पढ़ने लिखने आदि के कामों में आती है। इनमें से एक न रहे तो दूसरी उसका काम चला देती है। इतना तो सभी जानते हैं पर यह रहस्य किसी-किसी को ही विदित है कि एक तीसरी आँख भी होती है जो उन तथ्यों को, दृश्यों को देखती है जिन्हें बाहर के चर्मचक्षु नहीं देख पाते। जो तीनों का सहारा लेते है वे दूरदर्शी या दिव्यदर्शी कहलाते है। प्रत्यक्ष आँखें मात्र सामने का ही, थोड़ी दूर तक ही देख पाती है। पीठ पीछे का या बहुत दूर तक का उनकों नहीं दीखता। बुढ़ापे में नेत्र ज्योति घट जाती है। चश्मे की जरूरत पड़ती है। मोतियाबिन्द आ घिरने पर आपरेशन कराना पड़ता है। इससे इनकी स्वल्प शक्ति होने का पता चलता है। वे तत्काल का जो सौंदर्य, सम्मान आदि हैं, उसी को देखती हैं पर यह नहीं जान पातीं कि इनके नजदीक जाने का क्या परिणाम हो सकता है। आग और सर्प देखने में कितने चमकीले चिकने लगते है। उन्हें पकड़ने का अबोधों का मन करता है पर तीसरी विवेक की आँख भी है। वह अपने अनुभव या दूसरों के परामर्श से यह समझ पाती है कि इस लालच में नहीं पड़ना चाहिए, अन्यथा परिणाम बहुत भयंकर हो सकता है। असली हीरे की तुलना में नकली हीरा और भी अधिक चमकदार होता है। दोनों में से कौन कितने मूल्य का हो सकता है, उसे जिस विशेष ज्ञान के आधार पर जाना जाता है उसे तृतीय नेत्र कह सकते हैं।
दूरगामी परिणामों का विचार न कर पाने के कारण ही लोग तात्कालिक लाभ को देखकर अन्ध हो जाते हैं और जब उनके दुष्परिणाम सामने आते है .... है। इसी प्रकार .... हानि देखकर लोग विद्या पढ़ने खेत .... व्यवसाय करने आदि से हाथ खींच लेते है और तब पछताते हैं जब उन्हीं कार्यों के लिए साहस करने वाले लाभ उठाते और भण्डार भरते है।
यह तीसरी आँख मिली तो सब को है पर है गुप्त। इस प्रयत्नपूर्वक जगाना पड़ता है। मस्तिष्क का दूरदर्शी या सूक्ष्मदर्शी होना इसी प्रयत्नशीलता पर निर्भर है। दूर तक देखने के लिए टेलिस्कोप की आवश्यकता पड़ती है। जीवाणु जैसी बारीक वस्तुएँ देखने के लिए माइक्रोस्कोप जैसे यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है। यह दोनों ही हमारे पास विद्यमान है, पर काम न लिए जाने पर मैली–कुचैली होकर ठीक काम देने योग्य नहीं रहती। तीसरे नेत्र के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है। शिव और शक्ति के चित्रों में तीन नेत्र होते है। इन में शाप वरदान देने की शक्ति बताई जाती है। ऐसा तो कोई तपस्वी या आध्यात्मिक सम्पदा के धनी ही कर सकते है, पर इस दूरदर्शन का लाभ कोई साधारण स्थिति का व्यक्ति भी कर सकता है। अपने को बरबादी से बचा सकता है ओर वह लाभ उठा सकता है जिसे मन्दमति नहीं उठा पाते।
जो कार्य आज दिनों किया जा रहा है उसका अगले दिनों क्या परिणाम होगा? यदि निष्कर्ष ठीक तरह निकाला जा सके तो कोई भी व्यक्ति दुष्कर्मों में हाथ न डाले और ऐसी रीति-नीति अपनाये जिसके सहारे उज्ज्वल भविष्य का बनना सुनिश्चित है। लोग तात्कालिक स्वाद, सौंदर्य या लाभ भर को देखते हैं और मछली, चिड़ियों की तरह जाल में जा फँसते है। चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह पर फँसा कर बे-मौत मरते है। इन्हें अदूरदर्शी ही कहा जा सकता है। जो इस जाली जंजाल से भरे संसार में फूँक-फूँक कर कदम नहीं रखते है वे इसी प्रकार फँसते है और बहुमूल्य जीवन सम्पदा को बाजी में हार जाते हैं।
अध्यात्म प्रकरणों में त्राटक प्रयोगों की चर्चा है। उसके प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य, दीपक या किसी चमकदार निशान पर मैस्मरेजम स्तर के अभ्यास करते हैं और आँखों की बेधक दृष्टि बढ़ाते है। चमकदार दृश्य को लगातार देखने और उसके साथ इच्छाशक्ति का समावेश करने से वह क्षमता प्राप्त हो जाती है कि किसी भी मनस्वी को योग निद्रा में सुला सके। उसके मस्तिष्क पर अधिकार कर सके। यह एक प्रकार का जादू चमत्कार है जिसके सहारे अपनी विशेषता सिद्ध की जा सकती है।
सामान्य लोग इसी स्तर के प्रयोग करते रहते हैं किन्तु जिन्हें अध्यात्मवाद में आस्था है, वे वाह्य त्राटक का प्रयोग अति आरम्भिक अवस्था में ही करते है। दीपक आदि का सहारा वे .... समय लेकर यह क्षमता प्राप्त कर लेते है कि यह बहिरंग दृश्यों का अन्तरंग क्षेत्र में दिव्य दृष्टि से देख सकें।
इसके अभ्यास में यह करना होता है कि कोई खिला फूल आँख भरके देखा जाय और फिर ठीक वैसी ही कल्पना आँख खोल कर यह देखा जाय कि प्रत्यक्ष और कल्पना में कितना अन्तर रहा है। किसी बेलबूटे खिलौने आदि के सहारे भी यह अभ्यास किया जा सकता है कि बहिरंग दृश्यों का यथावत स्वरूप कल्पना चित्र के रूप में सही प्रकार जमा या नहीं। आरंभ में इसमें कुछ अन्तर रहता है पर थोड़े ही दिनों में ऐसी स्थिति बन जाती है कि बाह्य वस्तुओं और घटनाओं का यथार्थ स्वरूप मात्र कल्पना के आधार पर जाना जा सके। कितने ही अन्धे लोगों में आँशिक रूप से यह शक्ति विकसित हो जाती है और वे उस अदृश्य दृष्टि के सहारे दिन भर अपना काम बिना भूलचूक किये करते है। अन्धों की लिपि आरंभ में कठिन लगती है पर वे पीछे इसकी इतनी अच्छी तरह अभ्यस्त हो जाते है कि उस लिपि में लिखी हुई किसी भी भाषा की पुस्तकें धड़ल्ले से पढ़ सकें।
यह तृतीय नेत्र की शक्ति है। इसे साँसारिक .... प्रयुक्त किया जा सकता है और .... समझना चाहिए कि हम कार्यों का दूरगामी परिणाम समझ सकने में एक प्रकार से अन्ध के समतुल्य है। न हम जीवन का स्वरूप समझ पाते है, न लक्ष्य, न दायित्व .... में टकराते रहते हैं और सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन को जो सांसें मिली हैं उनको ऐसे निरर्थक कामों में खर्च कर डालते हैं जो आकर्षक तो है किन्तु उनकी परिणित में निरर्थकता या दुर्दशा ही हाथ लगती है। यदि तीसरे नेत्र ने, विवेक बुद्धि ने, साथ दिया होता तो हस्तगत अवसर को किस प्रकार उपयोग में लाया जाय इसकी उच्चकोटि की योजना बन सी होती और परिस्थितियों सामान्य या गई गुजरी होते हुए भी उच्च लक्ष्य का अवलम्बन किए रहने पर कहीं से कहीं पहुँचे होते। कुछ से कुछ बन गये होते।
अन्तरंग त्राटक योग में अपनी गरिमा, अपनी क्षमता को समझना होता है और भावी जीवन को किन प्रयोजनों में प्रयुक्त करें, इसके कई कल्पना चित्र बनाते हुए यह देखना पड़ता है कि किन में क्या क्या जोखिम और क्या क्या सुयोग है? आन्तरिक सूझ-बूझ यदि सही हो तो सर्वोत्तम का ही चुनाव करती है ओर उसी मार्ग पर चलते हुए सफलता तक पहुँचने का योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाती है। यही है आन्तरिक त्राटक की महान .... और सराहनीय सफलता।