मंत्री मण्डल जब तक राज काज ठीक चलाता रहता है, तब तक ढर्रा यथावत चलता रहता है। पर जब अव्यवस्था या अराजकता फैलती है तो फिर राष्ट्रपति शासन लागू होता है और अयोग्य शासकों को पदच्युत करके सत्ता का केन्द्रीकरण कर लिया जाता है। इन दिनों समष्टि स्तर पर ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। तथाकथित प्रगतिशील ने मनुष्य को इतना उद्धत और अहंकारी बना दिया है कि वह अपने निर्धारण पर पुनर्विचार करने तक को तैयार नहीं है।
स्रष्टा की एक सुनिश्चित प्रक्रिया है कि जब जब औचित्य व नीतिमत्ता का पराभव और अनौचित्य का विस्तार होगा तब-तब प्रबल प्रतिक्रिया के रूप में सत्ता स्वयं अवतरित होकर रहेगी और तब तक अपने प्रयास जारी रखेगी जब तक कि सन्तुलन की धुरी अपना उचित स्थान ग्रहण न करले। इस वचन बद्धता पर विश्वास किया जाना चाहिए। अनौचित्य चिरस्थाई नहीं हो सकता उसे घड़ी के पेण्डुलम की तरह एक सीमा तक आगे बढ़ने के बाद वापस लौटना पड़ता है। यह उपक्रम न चले तो संसार का निर्धारित क्रम ही गड़बड़ा जाय। बिना पेण्डुलम की घड़ी का चक्र कैसे घूमे?
मनुष्य इन दिनों की परिस्थितियों से चिंतित न हो तो बात नहीं है। वह कुछ करने के लिए उपाय भी सोचता है, प्रचलनों का प्रतिगामी प्रवाह .... है कि सुधार परिष्कार का प्रयास कुछ जम ही नहीं पाता। बालू का महल प्रचण्ड अंधड़ के प्रवाह में यथा स्थान टिके रहना तो दूर उड़कर कहीं से कहीं चला जाता है और जहाँ दीवार खड़ी की गई थी वहाँ उनके लकीर जैसे निशान भी दीख पड़ते। अब तक के सुधार प्रयास वैसे ठोस परिणाम प्रस्तुत नहीं कर सके हैं, जैसा कि आशा अपेक्षा की गई थी। ऐसी दशा में सर्वसाधारण के मन में निराश उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जो जीतता है उसी का समर्थन करने के लिए दुर्बल मन लुढ़क जाता है। पानी के तेज प्रवाह को चीरते हुए उलटी दिशा में साहसपूर्वक छितराते हुए आगे बढ़ते जाना किन्हीं सशक्त मगरमच्छों से ही बन पड़ता है। प्रवाह से प्रतिकूल दिशा में कोई बिरले ही चल पाते हैं
ऐसी विकट घड़ियों में निराशा के अंधकार को चीरते हुए भारत काल का ब्रह्म मुहूर्त उदय होता है। उसके पीछे पीछे अरुणोदय की ध्वजा फहराते हुए उषाकाल चला जाता है। जब प्रतिकूलता झीनी पड़ती है तो अनर्थ भी अपने कदम पीछे हटा लेता है और उसे चुनौती देने के लिए अकेला मुर्गा भी मैदान में खड़े होकर गर्दन ऊँची उठाकर तनकर बाँग लगाता देखा जाता है। कहाँ व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ सफल अंधकार और कहाँ अकेला निहत्था मुर्गा, फिर उसके साहस के पीछे प्रभात के आगमन की सुनिश्चित संभावना ही काम करती है। यह विश्वास उसके मनोबल को सैकड़ों गुना आगे बढ़ा देता है और तीखी बांगें लगा कर सारे संपर्क क्षेत्र में नव जागरण का कुहराम मचा देता है। इन दिनों भी यही हो रहा है।
भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण के विरुद्ध एक प्रचण्ड विचारक्रान्ति का अवतरण हो रहा है। ऐसा अवतरण जिसने कि किसी समय धरती की प्यास बुझाने के लिए गंगा को स्वर्ग का आनन्द छोड़कर धरती पर बहने और खेत खेत को खींचने के लिए बाधित किया था। ऐसा अवतरण जिसमें के अरुणोदय होते ही अंधकार के विशाल साम्राज्य को देखते-देखते तिरोहित होना पड़ता है।
असुरता के शक्तिशाली साम्राज्य पृथ्वी के अधिकाँश भाग को शिकंजे में कसे हुए थे। पर उसे कुचल देने के लिए जब मनुष्यों तक ने इनकार कर दिया तो रीछ बानरों की मण्डली अपनी अदक्षता से परिचित होते हुए भी मैदान में कूदी और उसने वह कर दिखाया जिस पर सहज विश्वास भी नहीं होता। समुद्र छलाँगना, पर्वत उठाना, लंका जलाना एक बन्दर के लिए संभव हो सकता है? इस गुत्थी को बुद्धि न समझ सकती है, न समझा सकती है। इस गुत्थी के समाधान में वह विश्वास ही काम दे सकता है, जिसका प्रतिपादन है कि अनाचार को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया जा सकता।
पराजितों की शक्ति भी समवेत होकर कभी कभी अपनी समर्थता का अद्भुत परिचय देती है। हारे हुए देवताओं की शक्ति सामर्थ्य को संगठित करके प्रजापति ने देवी दुर्गा की रचना की थी और उसके अदृश्य हाथों ने दृश्यमान महाबलशाली मधुकैटभ, महिषासुर, शुँभ, निशुँभ जैसे दुर्दान्त दैत्यों को धरती में मिला दिया था। मनुष्य की हड्डियों से बना बज्र वृत्रासुर जैसे त्रैलोक्य विजयी को चकनाचूर कर सकता है। इस पर बुद्धि भले ही विश्वास न करे, पर श्रद्धा को स्वीकार करना पड़ता है कि सत्य और न्याय साथ हों तो सावित्री जैसी महिला काल का रास्ता भी रोक सकती है और उसके शिकंजे से अपने पति को छुड़ा कर जिन्दा कर सकती है। इतना तो भीष्म ने भी मौत से कह दिया था कि बिना उत्तरायण आए मैं। तुम्हारे साथ नहीं चल सकता। मरजी हो तो निर्धारित मुहूर्त पर आ जाना तब तुझे तुम्हारे साथ चलने में आपत्ति न होगी।
सत्य के अपराजित होने पर जिन्हें विश्वास है वे काल से भी मोर्चा लेते रह सकते हैं और यथार्थता को विजयी बनाने के लिए बुद्ध, गाँधी की तरह अन्तिम साँस पूरी होने तक लड़ते रह सकते है। श्रद्धा और विश्वास की शक्ति अजेय जो है।
इन दिनों जिधर नजर डाल कर देखते हैं अनर्थ का ही बोलबाला दिखता है। पाप की विजय दुदुंभि बज रही है। कुम्भकरण का झलता हुआ मुँह असंख्यों को चबाने की तरह चकता दीखता है। पृथ्वी को चूरा ले जाने वाले हिरण्याक्षों की कमी नहीं। इतने पर भी कोई अदृश्य शक्ति कहती है कि उसकी नियत मर्यादाओं का उल्लंघन देर तक नहीं चल सकेगा आसमान पर कीचड़ उछालने वालों को कुकृत्य उनके चेहरे को ही कालिमा से लपेट देगा।
बीसवीं सदी के अन्तिम दिनों तक अनाचार को जीतते देखा जाता रहा है। हारा जुआरी दूने जोश से दाँव लगाता है। मरते समय चींटी को पंख उग आते हैं। मरने वाले पतंगे दीपक की लौ बुझाने के लिए कूदते हैं, पर अपनी जान गवाँ बैठने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाते। कौरवों की विशालकाय सैना पाण्डवों के छोटे से समुदाय के सामने देर तक खड़ी नहीं रह सकी थी। आग की चिनगारी को जब विचरने का मौका आता है तो विशाल क्षेत्र में फैली वन सम्पदा को दावानल बन कर कुछ ही समय में भस्मसात करके रख देती है, जब तूफान आते और घटाटोप बरसते हैं तो धरती पर दूर-दूर तक फैले तिनके, कचरे को न जाने कहाँ से उड़ाकर कहाँ पहुँचा देते हैं कि ढूंढ़ने पर उनका पता नहीं चलता।
समय चक्र परिवर्तनशील है। वह एक जैसी ही स्थिति में कभी रहता नहीं। बच्चा किशोर बनता है। किशोर से जवान, जवान से प्रौढ़, प्रौढ़ से जराजीर्ण बनता और मरने के बाद नया जन्म धारण कर लेता है। यह भ्रमणशील गतिचक्र कभी किसी के बूते रुका नहीं है। इन दिनों भी किसी को ऐसा मन छोटा नहीं करना चाहिए कि प्रस्तुत विपन्नताएँ, विभीषिकाएँ, अवांछनियताएं, दुष्प्रवृत्तियाँ आगे भी इसी प्रकार जड़ जमाए बैठी रहेगी। उनका बदलना निश्चित है। इस निश्चय में इतना और जोड़ लेना चाहिए कि महाक्रान्ति का समय अति निकट है। इक्कीसवीं सदी अण्डे का छिलका तोड़ कर बाहर निकलने का प्रबल पुरुषार्थ कर रही है। उसे मनोरम चूजे की तरह उछलता फुदकता हम सब निश्चित रूप से देख सकेंगे। शाँतिकुँज के प्रयास इन दिनों इसी दिशा में गतिशील है।