आनन्द और उल्लास का अजस्र निर्झर

November 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य का कारण शरीर-भाव संस्थान कहलाता हे। यह वह खदान है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष आनन्द से स्त्रोत उमगते रहते हैं। भावनाओं में सर्वप्रमुख है-आत्मीयता। इसका प्रकाश जिस व्यक्ति या वस्तुतः के ऊपर जितनी साधना के साथ सम्बद्ध किया जाता है, वह उतना ही प्रिय लगने लगता है, प्रिय ही नहीं अपना भी। यह आत्मीयता का चमत्कार है। वस्तुतः सभी वस्तुएँ चलती बदलती रहती हैं, साथ ही निर्जीव भी हैं। ऐसी दशा में वे अपनी विशेषताओं के कारण प्रिय लगें-लगती रहें, यह संभव नहीं। उनका स्वभाव, स्तर, रुझा एवं व्यवहार बदलता रहता है। विवाह के दिनों में पत्नी जितनी मनोरम लगती है, उतनी तब नहीं जब वह रुग्ण, दुर्बल या वयोवृद्ध हो जाती है। विग्रह या तलाक हो जाने पर तो उसकी चर्चा भी नहीं सुहाती। यह भावात्मक परिवर्तन क्यों होता है? उसमें प्रिय पदार्थों या प्रिय जनों में परिवर्तन आना ही कारण नहीं हे। अपनी आत्मीयता की घनिष्टता की, रुझान की कमीवेशी भी इसका कारण होती है।

किसी पदार्थ या प्राणी का प्रिय, अप्रिय, नीरस, सरस लगना इस बता के ऊपर निर्भर करता है कि हम उसे कितना चाहते हैं। किस हद तक अपना समझते हैं। उद्गम अपना अन्तराल है। वस्तुओं की उपयोगिता, अनुपयोगिता भी इसी कसौटी पर कसी जाती हे। जिन्हें पराया समझा जाता है उनके प्रति उपेक्षा भाव ही रहता है। अपनी अँगूठी खो जाने पर दुःख होता है किन्तु पड़ोस में रहने वाले जौहरी की दुकान से सारे रत्न-आभूषण चोरी चले जाने पर दुख नहीं, लोकाचार जैसा कौतूहल मात्र होता है। यद्यपि अँगूठी की तुलना में वे रत्नाभूषण अधिक सुन्दर भी थे और अधिक कीमती भी। पर उनके साथ आत्मीयता जुड़ी न होने से कोई हर्ष-विषाद नहीं होता।

कोई कितना प्रिय या अप्रिय लगता है? इसका आधार उसकी विशेषताएँ नहीं, वरन् यह है कि अपनी आत्मीयता की भावना उसके साथ किस कदर जुड़ी, चिपकी एवं घनीभूत हुई है। इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त प्रिय वस्तुओं या व्यक्तियों की तलाश नहीं करनी पड़ती। वे अपने आप में कुछ भी नहीं है। हमी अपने आरोपण के अनुरूप उन्हें वैसा बनाते है जैसा कि वे प्रतीत होते हैं। पदार्थ अपने आप में जड़ पदार्थों का ढेला ढकोसला मात्र है। इसी कारण वेदान्त तत्व-दर्शन में संसार को माया मिथ्या कहा गया है स्वप्न बताया गया है, और रज्जू-सर्प का उदाहरण देकर अपनी मान्यता को ही सब कुछ कहा गया है।

जीवित व्यक्ति भी संबंधों के अनुसार किसी का पुत्र, किसी का पिता, किस का मित्र, किसी का शत्रु होता हे। कोई उसे व्यापारी, पहलवान, चिकित्सक, विद्वान, सज्जन आदि के रूप में देखता है, तो किसी की मान्यता उसे संबंध में ठीक उलटी या उपेक्षा भरी होती है। ऐसी दशा में यह निर्णय करना कठिन है कि सामने वाला वस्तुतः क्या है? उसमें अनेक विशेषताएँ भी हैं और अनेक त्रुटियाँ भी। जिस पक्ष को उघाड़ा जाय, उजागर किया जाय वही भासने लगता है। जिसके संबंध में जितनी अनभिज्ञता है वह उतना ही गया गुजरा प्रतीत होता है। अनाड़ी के लिए हीरे और काँच के टुकड़े में कोई अन्तर नहीं। हीरा स्वयं क्या है? इसका मूल्याँकन किसी वैज्ञानिक द्वारा कराया जाय तो वह उसे पका हुआ कोयला भर सिद्ध करेगा। जौहरी का मूल्यांकन सर्वथा दूसरा है।

नेत्र चले जाने पर संसार के समस्त दृश्यों का लोप हो जाता है। श्रवण शक्ति न रहे तो समस्त विश्व में नीरवता भर शेष रह जायेगी। मस्तिष्क विकृत हो जाने पर हर किसी को विक्षिप्तों जैसे आचरण करते पाया जायगा। अपनी मृत्यु हो जाने पर सभी प्रसार-प्रस्तर की समाप्ति समझी जा सकती है। अपनी सत्ता एवं मान्यता ही सब कुछ है अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा, विश्वास सँजोया जाता है, किन्तु दूसरे की विपरीत मान्यता को असत्य कहा और उपहार उड़ाया जाता है। यहाँ यह निर्णय करना कठिन है कि वास्तविकता किस पक्ष के साथ हैं यह भी हो सकता है कि दोनों ही पक्ष रँगीली कल्पनाओं की उड़ानें उड़ रहे हों।

प्रश्न भाव संवेदनाओं के आधार पर आनन्द का रसास्वादन करने का है। इस संदर्भ में वस्तुओं या व्यक्तियों को टटोलना व्यर्थ है, वे सभी दर्पण की तरह हैं जिनमें हम अपनी ही छवि देखते हैं। गुम्बज में अपनी ही प्रतिध्वनि गूँजती है। प्रकाश में होकर गुजरते हुए अपनी ही प्रतिच्छाया साथ चलती है। यदि अन्तःकरण नीरस हो तो हर कहीं नीरसता ही भरी दिखाई देती है। स्वार्थी के लिए समस्त संसार स्वार्थ परायण है। अविश्वासी यह तक सिद्ध नहीं कर सकते कि हमारा वास्तविक पिता कौन है? माता का कथन ही इस निमित्त प्रामाणिक मानकर चलना पड़ता है। पर उसमें भी संदेह या अविश्वास करने की पूरी-पूरी गुँजाइश है। दृश्य-जगत पदार्थ विज्ञान की दृष्टि में अणु-परमाणुओं का जखीरा भर है, किन्तु भावुक भक्त उसे पर ब्रह्म का विराट स्वरूप होने का पूरा और पक्का विश्वास करते हैं।

पदार्थों में, प्राणियों में, सुन्दरता, सरसता ढूंढ़ना व्यर्थ है। अपना आत्मभाव ही उनके साथ लिपटकर प्रिय लगने की स्थिति विनिर्मित करता है। इस अपनेपन को यदि संकीर्णता के सीमा बन्धनों में बाँधा जाय तो आत्मीयता का प्रकाश विशाल क्षेत्र को आच्छादित करेगा और सर्वत्र अनुकूलता, सुन्दरता बिखरी पड़ी दीखेगी। परिवार को, शरीर को ही अपना न मानकर यदि प्राणि समुदाय पर, प्रकृति विस्तार पर, उसे बखेरा जाये तो दृष्टिकोण बदलते ही बहिरंग क्षेत्र में आनन्द भरा हुआ प्रतीत होगा। सब कुछ परमप्रिय, परम सुंदर लगेगा। प्रकृति की विशालता को यदि सुन्दरता की दृष्टि से देखा जाय तो हरे भरे खेत, सघन-जंगल, ऊँचे पर्वत, दौ बादल, भरे-पूरे जलाशय अतीव सुन्दर लगेंगे कुदकते-चहकते पशु पक्षी सजीव खिलौनों की .... क्रीड़ा कल्लोल करते हुए मन को विमोहित करेंगे समूची सृष्टि अपनी है, यह मान्यता अपनाने तनिक भी अवास्तविकता नहीं है। संसार के .... हम और हमारे साथ संसार का अविच्छिन्न संबंध है। उसमें आत्मीयता का पुट और भी गह लगा दिया जाये तो यह समूचा-जगत विशालकाय कलाकृति की तरह मनोरम दृष्टिगोचर होगा और उसे निरखते-निरखते उल्लास का ठिकाना न रहेगा।

दूसरों से अनुकूलता प्राप्त करने की कामना लेकर जिस तिस से अनुग्रह करने की याचना करना व्यर्थ है। इस मृगतृष्णा में भटकते रहने पर थकान और खीज ही हाथ लगेगी। क्यों न हम विशाल विश्व पर आत्मभाव की वर्षा करें और बदले में इसे बसन्ती फूलों से खिला मुसकराता देखें।

सुन्दर, सुयोग्य और अनुवर्ती अनुचर ढूँढ़ना व्यर्थ है। आत्मभाव की उदात्त-मान्यता अपनाकर सभी नये सिरे से दृष्टिपात करें और बदले हुए संसार का सुहावना चित्र आनन्द विभोर होकर देखें। दूसरों को अपने अनुकूल बनाना कठिन है। पर अपने को ऐसा बनाया जा सकता है कि सह-सौजन्य प्रदान करते हुए सन्तोष और आनन्द से अपना अन्तःकरण भर ले। विराट विश्व को श्रद्धा संवेदना से देखते हुए हर घड़ी विश्व ब्रह्माण्ड में परब्रह्म की झाँकी करते रहने का अमृतोपम रसास्वादन किया जा सकता है।

सुन्दर, सुयोग्य और अनुवर्ती अनुचर ढूँढ़ना व्यर्थ है। आत्मभाव की उदात्त-मान्यता अपनाकर सभी नये सिरे से दृष्टिपात करें और बदले हुए संसार का सुहावना चित्र आनन्द विभोर होकर देखें। दूसरों को अपने अनुकूल बनाना कठिन है। पर अपने को ऐसा बनाया जा सकता है कि सह-सौजन्य प्रदान करते हुए सन्तोष और आनन्द से अपना अन्तःकरण भर ले। विराट विश्व को श्रद्धा संवेदना से देखते हुए हर घड़ी विश्व ब्रह्माण्ड में परब्रह्म की झाँकी करते रहने का अमृतोपम रसास्वादन किया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118